क्या मानव जीवन का उद्देश्य “मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जीना मात्र है ?
गौतम बुद्ध हों, महावीर हों, या ओशो या #Modern #Motivational, #Financial, #Educational Guru, सभी की शिक्षाओं का मूल सार यही होता है कि मानव जीवन का उद्देश्य “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीते हुए मोक्ष प्राप्त करना।
जितने भी आध्यात्मिक, धार्मिक गुरुओं को मैंने पढ़ा या सुना, सभी के प्रवचनों का सार यही निकल कर आता है कि मानव की जिम्मेदारी देश व समाज की समस्याओं को दूर करना नहीं, बल्कि इस्कॉन वालों की तरह नाचते गाते, भजन गाते, झाल, मंजीरा ढ़ोल बजते, हरे कृष्णा हरे रामा जपते हुए मोक्ष प्राप्त करना है।
गाँवों देहातों को पिछड़ा हुआ कह, खेतों और भूमियों को माफियाओं को बेचकर लोग शहर भाग रहे हैं पागलों की तरह। और जो शहरों में वे विदेशों में की उड़ान भर रहे हैं। क्या कोई उन्हें अब रोक सकता है ?
नहीं कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि लोगों ने पढ़ाई ही की थी गुलामी की और सही समय पर शहर नहीं भागे, तो चाकरी कब करेंगे ?
उम्र निकल गयी तो चाकरी तो क्या गुलामी भी नहीं मिलेगी और भीख माँगकर जीना पड़ेगा।
और आश्चर्य तो यह कि माफिया उन्हीं खेतों और भूमियों को हथियाने के लिए पूरे विश्व को अपना गुलाम बनाना चाहते हैं, जिन्हें लोग छोड़-छोड़ कर शहर भाग रहे थे।
ओशो जैसे महान दार्शनिक भी यही समझाते हैं कि समाज जैसा पहले था, वैसा ही आज है और ऐसा ही कल रहेगा। ना सुधरा था कभी, न सुधरेगा कभी। इसीलिए समाज और दुनिया की चिंता छोड़ दो, और स्वयं को सुखी रखने के उपाय खोजो। ध्यान करो, नाचो गाओ, उत्सव मनाओ….।
तो क्या “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीते हुए मर जाना ही मानव जीवन का उद्देश्य है ?
भले नदियों और सागरों में ज़हर घुल जाए, अनाज से लेकर इलाज तक इन्सानों की पहुँच से बाहर हो जाये और एक बूंद पानी भी निःशुल्क ना मिले ?
खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है
कहते हैं लोग कि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है, इसीलिए ऐ मेरे दिल तू गाये जा, मौज उड़ाए जा….।
और जिसे देखो वही मौज उड़ाने में व्यस्त है। बेरोजगारों के पास अपना बहाना है मौज उड़ाने का, गाने-बजाने का। नौकरी-पेशा लोगों के पास अपना बहाना है, क्रिकेट खेलने और देखने वालों के पास अपना बहाना उत्सव मनाने का, इस्कॉन वाले तो उत्सव मनाने के लिए ही जन्म लेते हैं, देश व समाज के प्रति उनका कोई दायित्व है ही नहीं।
और संभवतः यही सत्य भी है कि मानव सुख की कामना से ही दौड़ रहा है। किसी को लूटने और लुटवाने में सुख मिलता है, किसी को ठगी और बेईमानी में सुख मिलता है, किसी को बलात्कार करने और करवाने में सुख मिलता है, किसी को चोरी, डकैती, झपटमारी में सुख मिलता है, किसी को रिश्वतख़ोरी, घोटालेबाजी, हेराफेरी और मक्कारी में सुख मिलता है।
कुछ लोग पूरे विश्व को बंधक बनाकर प्रायोजित महामारी से आतंकित करके लूटने और लुटवाने में आनंद प्राप्त करते हैं, कुछ लोग देश के बैंको को लूटकर विदेशों में सेटल हो जाते हैं और लूट का उत्सव मनाते हैं।
सभी का अपना-अपना अंदाज़ है सुख प्राप्त करने और उत्सव मनाने का। तो फिर गलत कोई कैसे हुआ ?
वैसे भी हम जिन्हें गलत कहते हैं, वे सरकार व समाज की नजर में गलत नहीं होते, इसीलिए चैन से सत्ता और ऐश्वर्य भोगते हैं। सारा समाज उनके सामने नतमस्तक रहता है उनकी जय-जय करता है। लुटेरों को बार-बार सत्ता सौंपता है यह कहकर कि मजा नहीं आया Once More….एक बार और !!!
मेरे जैसे लोग सोचते है की माफियाओं के साथ मिलकर सरकारें जनता पर अन्याय और अत्याचार कर रही हैं। जबकि जनता उन्हें ही बार-बार सत्ता सौंप कर यह सिद्ध करती है कि उनके साथ कोई अत्याचार या अन्याय नहीं हुआ।
तो फिर अन्याय और अत्याचार हो किसके साथ रहा है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जिसे अन्याय और अत्याचार समझ रहे हैं, वह हमारा भ्रम है ?
जो ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जी रहे हैं, जो सरकारी या गैर सरकारी नौकरी कर रहे हैं, उन्हें कहीं भी शोषण, अत्याचार, अन्याय नजर नहीं आता। यहाँ तक कि बेरोजगारों को भी कहीं अन्याय, शोषण अत्याचार नजर नहीं आता यदि उनकी अपनी चहेती पार्टी सत्ता में हो।
तो फिर हमें क्यों नजर आता है ?
कहीं हम दृष्टि दोष से पीड़ित तो नहीं ? कहीं हमें आँखों की कोई गंभीर समस्या तो नहीं ?
जो ध्यानस्थ बैठे हुए हैं, जो भजन-कीर्तन में डूबे हुए हैं, जो साधु-संत, उपदेशक, कथावाचक बने घूम रहे हैं, उन्हें तो कहीं कोई अन्याय, शोषण, अत्याचार नजर नहीं आ रहा। यहाँ तक कि साधु-समाज, आध्यात्मिकों का समाज, धार्मिकों का समाज, राजनीतिज्ञों के समाज को कहीं कोई अन्याय, अत्याचार, शोषण नजर नहीं आ रहा। बड़े-बड़े धार्मिक आध्यात्मिक, राजनैतिक संगठनों, संस्थाओं, पार्टियों और इनके सदस्यों, सहयोगियों, समर्थकों, भक्तों कहीं कोई अन्याय, शोषण, अत्याचार नजर नहीं आ रहा। लेकिन मेरे जैसे लोगों को क्यों नजर आ रहा है ?
क्या मैं आध्यात्मिक, धार्मिक नहीं हो पाया अभी तक ?
शायद यही सत्य है। यदि मैं भी चैतन्य और जागृत होने की बजाय, आध्यात्मिक और धार्मिक हो गया होता, तो मुझे भी अन्याय, शोषण और अत्याचार नजर नहीं आता कभी। और मैं पढे-लिखे धार्मिकों की तरह “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीता गर्व के साथ। तब मैं भी शहर की गंदगी को नदियों में बहाने वाले समाज को प्रकृति का शत्रु नहीं मानता और यह कभी नहीं सोचता जो नीचे लिख रहा हूँ:
ईश्वर व प्रकृति के शत्रु हैं धार्मिक और पढ़े-लिखे मानव
दुनिया की वह कोई भी नदी या सरोवर पवित्र व पावन नहीं है, जिसमें लोग कूड़ा-करकट फेंकते हैं, जिसमें शहर की गंदगी फेंकते हैं, जिसमें शहर का सीवर लाइन शहर का ज़हर उगलता है।
दुनिया का वह कोई भी शहर या तीर्थ पवित्र व पावन नहीं है, जिसके निवासी नदियों को दूषित करते हैं, जिसका प्रशासन शहर की गंदगी नदियों में बहाता है।
दुनिया का वह कोई भी व्यक्ति धार्मिक व ईश्वर के प्रति समर्पित नहीं हैं, जो सिवाय अपने कमरे या मकान को छोड़कर, हर जगह गंदगी फैलाता है।
मेरी अपनी धारणा तो यह है कि मैं कभी धार्मिक था ही नहीं क्योंकि ऐसे शहर में पला बढ़ा, जिसने यमुना नदी को नाला बना दिया। मैं कभी पवित्र व ईश्वर के प्रति समर्पित रहा ही नहीं, क्योंकि मैं अपने निवास-स्थान को छोड़कर हर जगह साफ़-सफाई देखना व रखना पसंद करता हूँ। क्योंकि मुझे सहजता में जीने की आदत है…यानि साल में कभी कभार जब मन करता है, तब अपने कमरे की सफाई करता हूँ।
तो यदि आप या आपका शहर नदियों को दूषित कर रहे हैं, शहर के सीवर लाइन से नदियों में जहर उगल रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि आप अधर्मी हैं अपवित्र हैं। फिर चाहे आप अपने घर या मंदिर को कितना ही चमका लें, कितने ही मन मार्बल, सोना चाँदी से सजा लें।
संगठन, संस्थाओं, पार्टियों की आवश्यकता ही क्या है ?
जब जीना ही है “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर, तो संगठन, संस्थाओं, पार्टियों, समाजों, संप्रदायों, धर्मों की आवश्यकता ही क्या है ?
अपने लिए ही तो जीना है ना? अपनी खुशी के लिए ही तो जीना है ना ? ध्यान-भजन, कीर्तन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास करते हुए ही तो जीना है ना ?
तो फिर किसी दड़बे में जाकर किसी ठेकेदार के अधीन जीने की क्या आवश्यकता है ?
छोटी सी भूमि ले लो, उसमें अपने परिवार के लिए आवश्यक अनाज, फल व सब्जियाँ उगा लो और जियो शान से बिना किसी की गुलामी किए ?
क्यों जाना मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर ?
क्यों चढ़ाना चादर, चुनरी, चढ़ावा माफियाओं की तिजोरियाँ भरने के लिए ?
और फिर लाभ क्या है हिन्दू होने का, मुस्लिम होने का, सिक्ख होने का, ईसाई होने का, कॉंग्रेसी या भाजपाई, सपाई, बसपाई होने का, संघी, बजरंगी होने का, जब इतने बड़े बड़े संगठन और समाज भी माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों के सामने नतमस्तक रहते हैं ?
क्या किसी बड़े दड़बे में शामिल होकर माफियाओं की गुलामी करने से सुरक्षा मिलती है ?
यदि ऐसा है, तो उस हिन्दू का क्या जो कर्जों में डूब कर आत्महत्या कर लेता है और दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दड़बा यानि हिन्दू दड़बा खड़ा तमाशा देखता रह जाता है ?
उस मुस्लिम का क्या, जिसे झूठे आरोप में जेल में डाल दिया जाता है या गौहत्या के झूठे आरोप में मोबलिंचिंग कर दी जाती है और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा दड़बा यानि इस्लामिक दड़बा खड़ा तमाशा देखता रह जाता है ?
यूरोपियन देशों की फुटपाथों पर पड़े उन बेघरों की सहायता कौन करेगा, जब दुनिया का सबसे बड़ा दड़बा यानि ईसाई दड़बा भी उनका भला नहीं कर पा रहा ?
जब सभी को अपनी अपनी समस्याएँ स्वयं ही सुलझानी है, तो फिर इन दड़बों की आवश्यकता ही क्या है ?
फिर सभी बड़े दड़बे और संगठन माफियाओं और लुटेरों के अधीन हैं, और किसी भी धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति को इनकी गुलामी करने में कोई आपत्ति नहीं है। तो फिर धार्मिक ग्रंथो का रट्टा लगाने का लाभ क्या है ?
जब बड़े बड़े संगठन और दड़बे भी “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर ही जी रहे हैं, तो फिर देश व समाज की चिंता कर कौन रहा है ?
सभी तो लूटने और लुटवाने में व्यस्त हैं या फिर माफियाओं की चाकरी और गुलामी करके स्वयं को धन्य समझ रहे हैं। ऐसे में यदि ओशो जैसा व्यक्ति भी कहता है कि ध्यान में डूब जाओ, भूल जाओ समाज सुधार। क्योंकि समाज न कभी सुधरा था, ना कभी सुधारेगा। तो गलत क्या कहता है ?
जब मानव जीवन का उद्देश्य ही है “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीना, तो फिर गलत कोई भी नहीं। सभी सही हैं। वे भी सही हैं, जो लूट और लुटवा रहे हैं और वे भी सही हैं लुटने, पिटने के बाद उन्हीं लुटेरों माफियाओं के चरणों में लोट रहे हैं, जिन्होंने उन्हें लूटा और लुटवाया।
आए दिन को ना कोई नयी पार्टी, संगठन, संस्था बनाता रहता है कि हम देश की सेवा करेंगे, हम जनता की सेवा करेंगे। लेकिन होता क्या है ?
गुलामी माफियाओं और लुटेरों की।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मानव जीवन का उद्देश्य माफियाओं और लुटेरों की चाकरी करना ही है ?