एक आलसी और निकम्मा संत
कई हज़ार साल पहले की बात है। किसी गाँव में एक महान आलसी और निकम्मा संत रहता था। न तो अपने घर की ही सफाई करता था और न ही शरीर की। महीनों महीनों नहीं नहाता था। केवल कोई त्यौहार आदि होता तभी नहाता था और वह भी मूड हुआ तो…
गाँव के सभी लोग उसे पाखंडी ढोंगी और न जाने क्या क्या कहते थे। लेकिन वह इतना बेशर्म हो चूका था कि किसी बात का बुरा नहीं मानता था। सारे दिन अपने बिस्तर में पड़ा रहता और अप्प्ल के लैपटॉप पर या आई-फोन ८ पर कुछ न कुछ करता रहता था। कोई बाहर गाँव का श्रद्धालु आ भी जाता कभी कभार तो गाँव के लोग उस संत की पोल-पट्टी खोल देते थे जिससे कोई भी उससे मिलने नहीं आता था। बस गाँव के लोग मानवता के नाते बारी-बारी से उसे खाना जरुर भिजवा दिया करते थे।
एक दिन एक धन्ना सेठ उस गाँव से गुजरा तो रात होने के कारण उसी गाँव में ठहरने का निश्चय किया। उसके साथ आये सेवकों ने व्यापारी के ठहरने की व्यवस्था करने के लिए टेंट आदि लगाना शुरू कर दिया। व्यापारी ने सोचा कि जब तक ये लोग व्यवस्था बनाते हैं थोड़ा गाँव घूम लेते हैं और लोगों से भी मिल लेते हैं।
व्यापारी गाँव में घुमने निकला तो गाँव के लोगों ने बहुत ही प्रसन्नता से उसका किया। व्यापारी ने पूछा कि इस गाँव में कुछ विशेष है क्या जो किसी और गाँव में न हो ? दरअसल मैंने नया एसएलआर कैमरा लिया है उसे ट्राई करना था, लेकिन चाहता था कि पहली फोटो कुछ विशेष होनी चाहिए।
गाँव वालों ने दिमाग में बहुत जोर लगाया कि उनके गाँव में विशेष क्या है तो कुछ भी नहीं दिखाई दिया। अचानक एक बच्चा बोला हमारे गाँव में एक संत है। तो सभी बोले इसमें विशेष क्या है ? व्यापारी भी बोला कि बेटा संत-महंत तो हर गाँव देहात में मिल ही जाते हैं….. लेकिन फिर भी मैं एक बार उनसे मिलना चाहता हूँ। बच्चा बोला उनकी विशेषता यह है कि वो नहाते नहीं नहीं हैं ।
“अच्छा !!! तब तो उनसे जरुर मिलना चाहिए।” व्यापारी बोला और गांववालों के साथ की कुटिया में पहुंचे ।
संत अपने बिस्तर में ही लेपटोप खोले बैठा हुआ था।
व्यापारी ने उसे अपना परिचय दिया और जानना चाहा कि वह संत हैं तो किस प्रकार के संत हैं ? कोई सिद्धि है या कोई ऐसी बात जो उसे संत बनाती हो ?
संत ने प्रतिप्रश्न किया, “किस तरह के संत की तलाश आप कर रहें हैं ?”
“जैसे सभी संतों की कुछ न कुछ विशेषता होती है, कोई डॉक्टरी छोड़ कर संत बनता है तो कोई इंजीनियरिंग छोड़ कर संत बनता है….. यानि आत्मज्ञान हो जाता है तो त्याग देता है संसार को और संत हो जाता है….आदि आदि । क्या ऐसा ही कोई त्याग किया है आपने ?” व्यापारी ने पूछा । सभी गाँव के लोग भी वहीँ बैठे हुए उनकी वार्तालाप सुन रहे थे ।
संत : “अच्छा तो आप डिग्री वाले संत को तलाश रहें हैं ?”
“नहीं, संसार को त्यागने का कारण जानना चाहता हूँ ।” व्यापारी शांत स्वर में बोला ।
“अभी तक आप कितने संत या महंत से मिले हैं जिन्होंने संसार या भौतिक माया-मोह को त्याग चुके हैं ?” संत ने फिर प्रश्न किया ।
“हा हा हा हा…. महाराज मैंने दुनिया घूमा है और बड़े बड़े त्यागी संतों को देख चुका हूँ, कई संत तो ऐसे भी हैं जिनके पास करोड़ों की संपत्ति है लेकिन उन्हें कोई मोह नहीं है संसार से । कई ने तो पाँच छः शादियाँ कर रखीं हैं लेकिन ब्रम्हचारी हैं…..”
संत मुस्कुराते, “अच्छा तो आप इन्हें त्यागी मानते हैं ? इस प्रकार तो मैं भी बहुत बड़ा त्यागी हूँ । आस पास इतनी खूबसूरत हरियाली है लेकिन मैं कमरे से बाहर ही नहीं निकलता । यानि मैंने भी त्याग कर रखा है संसार का । क्यों सही नहीं है क्या ?” संत ने बात बीच में ही काट कर पूछा ।
“जी वह तो ठीक है लेकिन फिर आपके पास कोई शिष्य या भक्त क्यों नहीं आते
? गाँव वाले बता रहे थे कि आप को कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं है ?” व्यापारी ने फिर जानना चाहा।
“यह शरीर ही मोह है । जब तक आपके पास शरीर हैं आप त्यागी नहीं कहे जा सकते । क्योंकि शरीर की अपनी आवश्यकताएं होती हैं और उन्हें पूरा करना भी आवश्यक होता है । इसलिए संसार को त्यागने का जो दावा करते हैं वे झूठ बोलते हैं । समाज में रहकर त्यागी होने का दावा करना भी झूठ है। व्यापार और मोल-भाव में उलझे संत भी संत नहीं हैं । संत हैं आप…”
“मैं ??? मैं भला कैसे संत हुआ ?” व्यापारी आशचर्य चकित होकर पूछा ।” गाँव के लोग भी एक दूसरे का मुहं देखने लगे।
“क्योंकि आप जानते हैं कि आप व्यापारी हैं और आप संत होने का ढोंग नहीं कर रहे । आप जो हैं जैसे हैं उससे संतुष्ट हैं वही संत होने की पहली सीढ़ी है । एक गृहस्थ अपने घर परिवार के कर्तव्यों का पालन करता वही संत होने की पहली सीढ़ी है । एक दूसरे के सुख-दुःख में काम आते हैं वही संत का गुण है।”
अब देखिये मुझ से सारे गाँव के लोग घृणा करते हैं, लेकिन भोजन में भिजवाने में कभी चूकते नहीं। यही संत होने का प्रमाण है। अर्थात संत वही जो अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहे। अब आप पूछेंगे कि मेरा योगदान क्या है ? मैंने कौन सा संत का कर्तव्य निभाया ?
तो उत्तर होगा कि जिस प्रकार आप जो कुछ कर रहें हैं वह सामाजिक नियम के अंतर्गत कर रहें हैं चाहे ख़ुशी से करें या लोग क्या कहेंगे की डर से। लेकिन मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह एक प्रयोग है। प्रयोग यह कि समाज की कई मान्यताएं आज विकृत हो चुकी हैं उन्हें ही समझ रहा हूँ कि वास्तव में वे मान्यताएं क्यों बनी थी और आज क्यों वे मात्र कर्मकांड बन कर रह गयीं ?” संत बोला
“तो यह कैसा समझना हुआ कि आप कई-कई महीने नहीं नहाते ?” किसी महिला ने पूछा
“मेरे नहाने या न नहाने से मुझे हानि होती है या नहीं वह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि मेरे नहीं नहाने के कारण गाँव के सारे बच्चे नहाने लगे वह मेरा योगदान है। आज बच्चे आपस में ही बात करते हैं कि चलो चलकर नहा लें नहीं तो बाबा जैसी शक्ल हो जायेगी। तो हमारे जैसे कुछ न भी करें तो भी यदि वे समाज में हैं तो वे अपने शरीर को कष्ट देकर भी समाज को कुछ न कुछ सार्थक देते ही हैं। इसलिए मेरा आलसी होना भी किसी के लिए निंदनीय हो सकता है, लेकिन जिनको प्रेरणा लेनी हो तो वे एक आलसी आदमी से भी प्रेरणा ले सकते हैं। निर्भर करता है कि आप क्या चाहते हैं।
और एक बात जो आप में से किसी ने भी नहीं जाना कि प्रकृति आपकी शुभचिंतक है वह आपकी देख रेख करती है क्योंकि उसने किसी उद्देश्य से आपको पृथ्वी पर भेजा है। इसलिए यदि आप कुछ भी न करें तो भी आपकी देख रेख हो जायेगी जैसी कि मेरी हो रही है। निकम्मा हूँ आलसी हूँ सारे दिन बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ लेकिन न खाने की समस्या है न रहने की। और यह इसलिए क्योंकि प्रकृति ने जो जीवन दिया है और जिस काम के लिए मुझे भेजा है वह अभी पूरा नहीं हुआ है और जिस दिन पूरा हो जाएगा तो मैं कितना ही मेहनती क्यों न होऊं कितना ही अमीर क्यों न होऊं, मुझे दुनिया छोड़ना ही पड़ेगा।
इसलिए आप अपने मन का करिए जो आपको अच्छा लगता हो और जिससे किसी और को असुविधा या कष्ट न पहुँचता हो । कोई अकर्मण्य भी तभी तक बैठ सकता है जब तक प्रकति चाहती है, हर कोई मेरी तरह खाली बैठा रहेगा या बैठ सकता है वह भी संभव नहीं है ।” संत ने इतना बोला और अपने लेपटोप पर कुछ टाइप करने लगा ।
व्यापारी को सारी बात समझ में आ गई । उसने अपना कैमरा निकला और उदघाटन करना शुरू किया ।
-विशुद्ध चैतन्य