आपने किसी के कहने पर गुरु मान लिया क्या आपने उनकी उपयोगिता को परखा ?


आपने किसी के कहने पर गुरु मान लिया क्या आपने उनकी उपयोगिता को परखा? अगर नहीं तो आप अंधभक्ति में लीन हैं । –सोनिका शर्मा
कुछ घटनाएँ होती हैं जिन्हें हम नियंत्रित कर पाते हैं, लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो नियति तय करती है । उदारहरण के लिए हम जब यात्रा पर निकलते हैं तब हम पूरी तरह से आश्वस्त होकर ही निकलते हैं कि सब ठीक है । लेकिन अचानक कोई ऐसी खबर या घटना होती है जो हमारी यात्रा में व्यवधान डाल देती है और हम चाहकर भी उसे नहीं बदल पाते हैं और हमें वह यात्रा स्थगित करनी पड़ती है । बाद में हमें पता चलता हैं कि जो हुआ अच्छा हुआ ।
एडिसन को जब स्कूल से मंदबुद्धि कहकर निकाला गया तो उस समय के लिए उसके साथ बुरा हुआ था, ट्रेन के गार्ड ने जब उसके कान पर थप्पड़ मारा और वह उस चोट से सुनने में असमर्थ हो गया तो वह बुरा हुआ उस समय के लिए क्योंकि न वह जानता था और न ही अन्य लोग कि नियति ने उसके लिए क्या तय किया हुआ है । यही दो कमियाँ उसके लिए वरदान सिद्ध हुईं और वह हमें रोशनी दे गया । क्योंकि जो वह दुनिया को देने जा रहा था वह किसी किताब में नहीं लिखा था और न ही कोई विद्यालय इस लायक हुआ था कि उस जैसे महान विद्वान् को कोई ज्ञान दे पाए ।
ठीक इसी प्रकार मेरे साथ भी हुआ कि जो चीजें में हासिल करना चाहता था नहीं मिला । जिन लोगों को अपना समझा वे सब दूर हो गए । जो सपने देखे वे चूर-चूर हो गए । मैंने संघर्ष करना छोड़ दिया क्योंकि अब कुछ पाने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी । अब कभी कोई उमंग या सपना उठता भी तो दूसरे ही पल यह ख्याल आता कि किसके लिए ?
ऐसा कौन है मेरा अपना जिसके लिए कुछ करना या पाना है ?
और पा भी लिया तो क्या करूँगा ?
आप कह सकते हैं कि यह तो अकर्मण्यता वाले सोच हैं, निराशावादी सोच हैं… बिलकुल सही है । क्योंकि न तो मैं जानता हूँ कि नियति ने मेरे लिए क्या तय किया है और क्या नहीं और न ही आप जानते हैं । एक निरुद्देश्य यात्रा पर हूँ मैं ।
निरुद्देश्य इसलिए क्योंकि अब मैं अपने लिए कुछ कामना नहीं कर रहा था । अब जिनके लिए कुछ करना भी चाहता था तो ये वे लोग हैं जो मुझे न तो जानते हैं और न ही कुछ करने के बाद ये लोग मुझे याद रखेंगे । न ये लोग मेरे उस खालीपन को कभी भर पायेंगे जो जीवन ने मुझे दिए ।
संन्यास धारण किया हुआ है लेकिन मेरा संन्यास उस संन्यास से अलग है जो आम लोग जानते या पहचानते हैं । मेरे संन्यास में भजन-कीर्तन करते हुए जीवन बिताना नहीं है । कुछ उपयोगी करना चाहता हूँ ऐसा जो मुझे संतुष्टि दे कि जीवन व्यर्थ नहीं गया ।
मैंने हमेशा पाखंडियों से नफ़रत की लेकिन ऐसे व्यक्ति के साथ चल पड़ा जो महा-पाखंडी है, कट्टर स्वार्थी इंसान ! जो केवल अपने सिवाय और किसी के लिए नहीं सोच सकता । लेकिन न तो मैंने पहले से कुछ तय किया हुआ था कि उसके साथ जाना है और नहीं उसे पता था कि वह जिससे मिल रहा है उसे लेकर जाना है ।
यह अचानक तय हुआ । और जब चले थे तो गुरु चेले के रूप में नहीं केवल एक सहयात्री के रूप में । आश्रम पहुँच कर ही पता चला कि मैं यहाँ क्यों आया या लाया गया । और यह ऊपर कोई है जो तय करता है और हमें नहीं पता होता । और जहाँ तक अंधभक्ति का सवाल है, अंधभक्ति तभी हो सकती है जब किसी पर भक्ति हो और मेरी भक्ति वर्तमान गुरु पर न पहले थी और न आज है । यह सब रिश्ते बने किसी ऐसे उद्देश्य को पूरा करने के लिए जो अभी हम में से कोई नहीं जानता । इसलिए प्रतीक्षा करना ही उचित है ।
तो यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वह व्यक्ति केवल कागजों पर ही मेरा गुरु है न कि मन और आचरण से । मेरे गुरु, ईश्वर और प्रकृति हमेशा रहें हैं और रहेंगे ।
-विशुद्ध चैतन्य
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