क्या आध्यात्मिक उत्थान में बाधक है स्त्री?

“When you rape, beat, maim, mutilate, burn, bury, and terrorize women, you destroy the essential life energy on the planet.” ― Eve Ensler, The Vagina Monologues
“No wonder male religious leaders so often say that humans were born in sin—because we were born to female creatures. Only by obeying the rules of the patriarchy can we be reborn through men. No wonder priests and ministers in skirts sprinkle imitation birth fluid over our heads, give us new names, and promise rebirth into everlasting life.” ― Gloria Steinem, The Vagina Monologues
“बहुत टेंशन है….टेंशन तो हम सबको है….और सबकी टेंशन की एक ही वजह है….योनि….”
संवाद के उपरोक्त अंश अंग्रेजी नाटक ‘द वैजाइना मोनोलॉग्स’ (The Vagina Monologues) के हिंदी रूपांतरण ‘किस्सा योनि का’ से लिया है ।
और शायद यही वह सबसे ज्यादा प्रभावशाली चीज है जिससे बाहर कोई भी धर्म या संप्रदाय नहीं निकल पाया । सभी धर्म अनाहत चक्र (हृदय) से नीचे ही सारे प्रयोग और उपदेश करते रहे । हिन्दू धर्म में संत की बुनियाद या श्रेष्ठता उसके ब्रम्हचर्य (सेक्स से विरक्ति) पर टिकी होती है । जिस सन्यासी या संत को स्वप्नदोष (Night Fall) हो जाए वह बेचारा यह मानता है कि उससे कोई पाप हो गया या ब्रम्हचर्य भंग हो गया । सड़क पर चलते समय भी सतर्क रहते हैं कि किसी स्त्री पर नजर न टिक जाए और कोई देख न ले…

कुछ सम्प्रदायों और अफ्रीकन जन-जातियों में खतना और FMC आदि भी यही दर्शाता है कि धर्म केवल जननांगों पर ही केन्द्रित है । शायद वे लोग समझ चुके थे कि केवल उपदेश और ध्यान से ही कोई कामुक विचारों से मुक्त नहीं हो सकेगा, इसलिए किसी व्यक्ति के धर्म को समझने से पहले ही उसके मूलाधार चक्र पर ही वार किया जाता है । लगभग सभी धर्मों में स्त्री को आध्यात्मिक उत्थान में बाधक ही माना गया । आज तक यही मानसिकता बनी हुई है कि आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त करना है तो स्त्री से दूर रहो… तो क्या स्त्री आध्यामिक उत्थान में बाधक है स्त्री ? क्या आध्यात्मिक उत्थान पाने का अधिकार नहीं है स्त्री को ? क्या स्त्री कोई वस्तु है ?
शायद हमारा धर्म ही ऐसा धर्म था कभी, जब स्त्री को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था । अजंता एलोरा और वात्स्यायन का कामसूत्र इसका उदाहरण है । लेकिन मैं वापस अपने विषय पर आता हूँ…
…तो सारे धर्म केवल काम पर केन्द्रित होकर रह गये । क्या नहीं करना चाहिए वह महत्वपूर्ण हो गया और क्या करना चाहिए वह गौण हो गया । हमने स्वयं को ईश्वर से भी महान समझ लिया । प्रकृति के विरोध में खड़ा कर दिया सारा धर्म और कई तो मानवता के विरोध में खड़े हो गए ।
जबकि धर्म का सार ही है कि प्रकृति के साथ तारतम्यता । जैसे ब्रम्हचर्य अर्थात ब्रम्ह (प्रकृति/सृष्टि/ब्रम्हांड) के अनुसार आचरण करना । अर्थात प्रकृति के साथ तारतम्यता स्थापित करना; प्रातः काल उठना, स्नान ध्यान करना व दैनिक कार्य करते हुए सूर्यास्त के साथ वापस शयन के लिए उचित वातावरण बनाते हुए शांत निद्रा को प्राप्त करना ।
यदि हम ध्यान से देखें तो मनुष्य को छोड़ कर सभी जीव जगत ब्रम्हचारी हैं । वे कपड़े से तन को नहीं ढकते लेकिन बलात्कार जैसी घटनाएँ उनके साथ नहीं घटती । अनावश्यक हिंसा उनके जीवन में नहीं घटती । लेकिन हम दुनिया भर के कर्मकांड करके भी इन सबसे नहीं बच पाते । हर दिन समाचार पत्रों में कोई न कोई कामांध व्यक्ति की काली करतूत का विवरण पढने मिल ही जाता है ।
हम तो अनाहत चक्र तक भी नहीं पहुँच पाते
मूलाधार चक्र जो कि भोग विलास और प्रजनन का स्त्रोत है हम सभी वहीँ पर केन्द्रित रह गए । ऊपर उठने का प्रयास ही नहीं किया । हम तो अनाहत चक्र तक भी नहीं पहुँच पाते जहाँ सभी के लिए प्रेम का भाव आ जाता है । जहाँ सम्पूर्णता का भाव आ जाता है । हमारी सारी लड़ाई इसी बात पर रहती है कि कैसे मूलाधार से पीछा छूटे । हमारी सारी कोशिश रहती है कि बिना नींव के मकान बना लें, बिना आधार के महल बना लें । एक कल्पना लोक में पड़े रहते हैं कि स्वर्ग जगत से कहीं परे है । जहाँ अनंत सुख है । अब इन धार्मिक लोगों की सुख की परिभाषा क्या है ? स्त्री-बच्चों से मुक्ति, कमाने का झंझट नहीं, न रोज रोज नहाने का झंझट और न खाने का, न किराया चुकाना न इनकम टैक्स वालों का डर… बस शान्ति ही शान्ति ।
उस स्वर्ग को छोड़िये, किसी ऐसी जगह जाकर तो कुछ दिन बिताइए जहाँ कोई पूछने वाला न हो और बीमार पड़े तो दवा तो दूर पानी भी देने वाला न हो । सारा स्वर्ग का भूत उतर जाएगा । जिस संसार और शरीर की कामना देव और गन्धर्व करते हैं हमें आज वह प्राप्त है तो हम उसकी निंदा करते फिर रहें हैं । लेकिन सदियों से निंदा करते हुए भी क्या वास्तव में हम ऊपर बढ़ पाए ? सदियों से सभी धर्मों के लिए आदर्श बने हुए हैं वे लोग जो जंगलों में पशुओं के भांति भटकते फिरते हैं । जिनमें से बहुत ही कम लोग महावीर या बुद्ध की तरह वास्तविक ज्ञान के लिए भटकते हैं, लेकिन अधिकांश तो केवल इसलिए भटकते हैं कि कोई उद्देश्य नहीं है जीवन में ।
क्यों ऐसा होता रहा कि धर्म, मानव को समन्वयता से जीना नहीं सिखा पाया और लोग धर्म से विमुख होते चले गए ?
सनातन से ही सभी धर्म निकले विरोध स्वरूप और अब ब्रम्हा-विष्णु-महेश गौण हो गए और बाबा और बापू अराध्य हो गए । कोई नास्तिक कहलाना पसंद करता है तो कोई हिप्पी ।
और अब एक नया धर्म साइनटॉलोजी का अविर्भाव हो गया । इनका मानना है कि ये लोग भेड़चाल पर आधारित धर्म से अलग मानवता और सम्पूर्णता पर आधारित सिद्धांत पर कार्य करते हैं । क्या बाकि धर्म मानवता पर आधारित नहीं है ?
शायद नहीं !
क्योंकि यदि ऐसा होता तो मानव जाति आज इतनी दुविधा में नहीं होती । आज पाप और पुण्य की परिभाषा ताकतवर और कमजोर के लिए अलग अलग कर दिया इन धर्म के ठेकेदारों ने । एक धनाढ्य वर्ग के लिए जो कर्म सार्वजनिक रूप से मान्य होता है वही दूसरों के लिए अपराध हो जाता है । जैसे दो शादी, लिविंग इन रिलेशनशिप, एक्स्ट्रामेरिटल अफेयर्स, भूमिअधिग्रहण, स्त्रियों का शोषण, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, घोटाला…
सभी धर्म केवल इसी विषय में उलझे रहे कि कैसे वीर्य संचयन किया जाये ? कैसे यह सिद्ध किया जाये कि सेक्स से बड़ा अपराध कोई नहीं है ? कैसे स्त्रियों को प्रताड़ित किया जाय और पुरुषों को श्रेष्ठ बनाया जाए ? जबकि यौनाचार के आरोप सभी धर्म के ठेकेदारों पर लगते रहें हैं और कई प्रमाणित भी हुए हैं ।
तो क्या मानव जन्म स्त्री और पुरुषों को एक दूसरे से घृणा करने के लिए मिला है ?
क्या हमारे जन्म का उद्देश्य केवल संसार से घृणा करते हुए मरना है ?
मैं कृष्ण को सम्पूर्ण मानव मानता हूँ जिसने चारों अश्व (काम, क्रोध, लोभ,मोह) को साधने और सदुपयोग करने की कला में पारंगता प्राप्त की और यही मानव जगत को सिखाने की कोशिश की । लेकिन मानव इन्हें त्याग कर यात्रा करना चाहता है । और बिना अश्व के कोई शरीर रूपी इस रथ से यात्रा कैसे कर पायेगा ?
श्रीकृष्ण ने कर्म को महत्व दिया तो विद्वानों ने अकर्म को । श्रीकृष्ण की रासलीला सब को रास आती है लेकिन स्त्री और पुरुष का संयोग तथाकथित ब्रह्मज्ञानी और ईश्वर को जान चुके महापुरुषों को फूटी आँख नहीं सुहाती ।
ओशो तो एक बहाना मात्र बन गये कामांध लोगों के लिए । ये तो वहीँ के वहीँ रह गए । न बुद्ध समझ में आया और न महावीर, न विवेकानंद और न ठाकुर दयानंद देव । ओशो ने दमन का विरोध किया था रूपांतरण को महत्व दिया था ।
ठाकुर दयानंद देव ने कहा था कि सन्यास का अर्थ बंधन नहीं मुक्ति है । ठाकुर जी ने अपने जीवन काल में सन्यासियों की स्वयं शादी करवाए थे । वे मानते थे कि भौतिक जगत का तिरस्कार करके आध्यात्मिक उन्नति संभव ही नहीं है । ईश्वर की रचना का अपमान करके ईश्वर को पाने की बातें ही मूर्खतापूर्ण है ।
यह और बात है कि उनकी बातें किसी के समझ में नहीं आई उस समय । लेकिन यदि हम आज हो रही सारी अराजकता पर दृष्टि डालें तो एक ही चीज सभी धर्मों में समान दीखता है कि स्त्रियों पर अत्याचार और दमन । दंगे होंगे तो कोई किसी भी धर्म का हो वो स्त्रियों को ही सबसे पहले अपना शिकार बनाने की कोशिश करेगा ।
मुस्लिम देशों में तो स्थिति और भी भयावह है, उदहारण के लिए सीरिया, लीबिया को ही लें । सारी वर्जनाएं स्त्रियों के लिए ही तय किये गए हैं या यह कहें कि योनी से ऊपर कोई भी तथाकथित धार्मिक निकल ही नहीं पाया । जिनका स्वयं से साक्षात्कार नहीं हो पाया, जो स्वयं को नहीं जान पाया, जो सृष्टि को नहीं जान पाया, वह ईश्वर और मोक्ष को क्या जानेगा भला ?
सारांश यह कि सभी धर्म प्रेम, समर्पण, मिलन, सृजन के विरोध में हैं । एक भूखा नंगा दर-दर भटकता साधू उनके लिए आदर्श है, धर्म के नाम पर दंगा करने वाले लोग आदर्श हैं, आतंकवाद और हिंसा के समर्थक आदर्श हैं, नफरत के बीज बोते लोग आदर्श हैं, अपने धर्म की समीक्षा न कर दूसरों पर कीचड़ उछालते छद्म धार्मिक लोग आदर्श हैं… लेकिन बंधुत्व की बात करना पाप है, प्रेम की बात करना पाप है…
हर धर्म दूसरे धर्म के विरोध में खड़ा है और कहते हैं कि हमारा धर्म प्रेम और सौहार्द सिखाता है । धर्म के नाम पर और उसके आढ़ पर जितने पाप होते हैं, शायद और किसी नाम पर नहीं होते । क्योंकि धर्म दमन पर से आध्यात्म को प्राप्त करवाने की कोशिश कर रहा है और दमन मानव का मूल गुण-धर्म नहीं है ।
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