संन्यास स्व-मर्यादित मुक्ति है न कि कोई बंधन

अक्सर लोग कहते हैं कि संन्यासी को ऐसा होना चाहिए या वैसा होना चाहिए । उसे यह करना चाहिए व वह करना चाहिए या यह खाना चाहिए या वह नहीं खाना चाहिए….यदि देखा जाए तो यह उन लोगों की समस्या है जो स्वयं से असंतुष्ट हैं और संन्यास का मूल अर्थ ही नहीं पता ।
यदि संन्यासी को सामाजिक तौर तरीके से ही रहना है तो फिर संन्यास लिया ही क्यों जाए ?
फिर तो वह किसी भी संस्था में चला जाए और उनके नियम कानून को अपना ले जिनके नियम उसे अच्छे लगते हैं ?
संन्यास स्व-मर्यादित मुक्ति है, न कि कोई बंधन
संन्यासी को क्या नैतिकता और मर्यादा वे लोग सिखायेंगे, जो स्वयं अपनी मर्यादा नहीं जानते ?
संन्यासी को त्याग और बैराग वे लोग सिखायेंगे, जो दूसरों की संपत्ति पर निगाह गड़ाए रहते हैं ?
संन्यासी को बेरोजगार रहना चाहिए या रोजगार करना चाहिए वे लोग सिखाएंगे, जो दूसरों के आय और बैंक पर लार टपकाते घूमते हैं ?
संन्यासी को भाषा और संस्कृति अब वे लोग सिखायेंगे, जो अपनी ही संस्कृति और भाषा को विदेशियों से कम करके आँकते हैं ?
क्या वे लोग देशभक्ति सिखाएँगे संन्यासी को जिनके बच्चों को राष्ट्रीय भाषा नहीं आती इस बात से शर्मिंदा नहीं होते, लेकिन इस बात से शर्मिंदा होते हैं कि अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन नहीं आती ?
आज अधिकांश आश्रम कान्वेंट स्कूलों में परिवर्तित हो चुके हैं । भारतीय संस्कृति व शिक्षा तो केवल स्वाद के लिए आचार और चटनी की तरह परोसे जाते हैं । जिसे खाना या न खाना थाली लेने वाले पर निर्भर करता है ।
एक संन्यासी होने का अर्थ है आत्म चिंतन के लिए पर्याप्त अवसर को पाना और फिर तय करना कि उसे क्या करना है । लेकिन लोग संन्यास लेते हैं झूठी जयकारा, श्रद्धा व भौतिक सुख के लिए । ये लोग वही होते हैं जो यह कहते हैं कि मैं तो उस आश्रम से संन्यास लूँगा जो अपनी जाति या वर्ण का होगा । ये लोग संसार त्यागने का नाटक करते हैं लेकिन सारी मेहनत सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए ही करते हैं । इसलिए आज मौलिक संन्यासी लुप्त होते जा रहें हैं और सांसारिक संन्यासियों का ही वर्चस्व छाता जा रहा है ।

मैं आध्यात्मिक जगत और भौतिक जगत के बीच सेतु (ब्रिज) बनाना चाहता हूँ
संन्यास का अर्थ कभी भी यह नहीं रहा कि यह कोई समाज का रूप ले या जिसने संन्यास लिया वह गृहस्थ नहीं हो सकता या कोई गृहस्थ संन्यासी नहीं हो सकता ।
ठाकुर दयानंद देव जी ने कहा था, “मैं आध्यात्मिक जगत और भौतिक जगत के बीच सेतु (ब्रिज) बनाना चाहता हूँ ।” और वे सही ही कह रहे थे ।
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं । नीचे के तीन चक्र भौतिक जगत को प्रभावित करते हैं और ऊपर के तीन चक्र आध्यात्मिक जगत को । जिनके ऊपर के चक्र अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं उनका भौतिक जगत से विरक्ति होने लगती है । यहाँ तक कि उनके अपने शरीर से भी विरक्ति होने लगती है और कुछ तो शरीर के रख रखाव के प्रति भी लापरवाह हो जाते हैं । जबकि जिनका नीचे के तीन चक्र ही सक्रिय हो पाते हैं वे भोग विलास को महत्व देते हैं ।
ठाकुर दयानंद देव जी के कहने का तात्पर्य यह था कि वे चाहते थे कि व्यक्ति केंद्र में रह कर दोनों जगत के आनंद की अनुभूति करे । जब सातों चक्र या लोक का आनंद कोई प्राप्त करता है तो स्वतः ही मोक्ष उपलब्ध हो जाता है । किसी और कर्म-काण्ड या बिचौलियों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती ।
लेकिन अधिकांश लोग केवल मूलाधार चक्र तक ही सीमित रह जाते हैं जीवन पर्यन्त । उनका जीवन बाहर से देखने में निःसंदेह बहुत आकर्षक लगता हैं, लेकिन वास्तव में उनमें और पशुओं के जीवन शैली में कोई अंतर नहीं रह जाता । पशु पक्षी भी स्वयं को संवारने में समय लगाते हैं, भोजन की व्यवस्था करने में, रहने व जनन के लिए व्यवस्था करने में और अपने संगी साथियों के साथ समय बिताने में जीवन व्यतीत कर देते हैं । यही काम तो एक आम व्यक्ति भी करता है ।
संत किसे कहते हैं ?
मैं मानता हूँ कि संत वे लोग होते हैं जिनके कारण समाज को एक नई दिशा मिलती है या वे प्रयासरत रहते हैं जैसे; एडिसन, सुकरात, ब्रूसली, विवेकानन्द, वात्स्यायन, चाणक्य, मंगल पांडे, शंकराचार्य, ओशो, रामदेव, व्यास, वैलेंटाइन, वाल्मीकि, शहीद भगत सिंह…..आदि । ये सभी लोग अलग अलग क्षेत्र में अपना योगदान दिया क्योंकि ये लोग वास्तविक संत थे । इन लोगों ने अपने जन्म का उद्देश्य को जाना । लेकिन हर किसी को संत बनने की आवश्यकता नहीं है ।
यदि ठाकुर दयानंद देव जी के मार्ग को चुनते तो व्यक्ति केंद्रीय चक्र पर स्थिर रहकर भौतिक व आध्यात्मिक सुखों को पूर्णता से भोगते हुए भी एक महान संत बन सकता है । दुर्भाग्य यह रहा कि स्वयं ठाकुर दयानंद के शिष्य व अनुयाई यह बात नहीं समझ पाए और बिना समझे भक्ति मार्ग पर उतर गए और भुखमरी और दरिद्रता को आध्यात्म मान कर न तो स्वयं की सहायता कर पाए और न ही किसी और की ।

तो संत वे नहीं जो केवल अच्छे ग्रन्थ लिख लेते हैं या भौतिक जगत की निंदा करते फिरते हैं, या नंगे घूमते हैं, या कोई जादूगरी दिखाते हैं…. वास्तविक संत वे ही हैं जिन्होंने सारे चक्रों को साधा और उनपर पूर्ण नियंत्रण है । जैसे एक सारथि का अपने घोड़ों पर होता है, ड्राइवर का अपनी गाड़ी में होता है… लेकिन क्या आप उसे अच्छा सारथि मानेंगे, जो यह कहे कि घोड़ों का त्याग करने से ही रथ सही दिशा में चलेगी ? या उस ड्राइवर को अच्छा ड्राइवर मानेंगे, जो कहे कि यह कार तो नश्वर है इसका मोह छोड़ दो और पैदल चलो यदि अपनी मंजिल तक पहुँचाना है ?
~विशुद्ध चैतन्य