लीलामन्दिर आश्रम: एक महान संत के स्वप्न की समाधि
बाबाधाम के चार स्तम्भ माने जाते हैं, बम-बम बाबा, हरिशरण बाबा, बालानंद महाराज और ठाकुर दयानंद देव जी। ये चारों ही ऐसे संत थे जिन्होंने देवघर को एक नई पहचान दी, वर्ना बाबाधाम केवल तांत्रिक साधना करने वालों और कांवड़ियों में ही लोकप्रिय था। इन महान संतों ने आध्यात्म को नए आयाम दिए।
ठाकुर दयानंद देव जी का नाम आज भी बाबाधाम में विशिष्ठ स्थान रखता है। वे ही पहले संत थे जिन्होंने अंग्रेजो के अत्याचार से क्षुब्ध होकर ३० जून १९१२ में एक सभा में निम्न घोषणा की और लिखित रूप में गवर्नर से भी कहा था;
“From the consideration of Dharma alone, we dissolve the relation of Ruler and Ruled.”
परिणाम यह निकला कि अंग्रेज सरकार नाराज हो गई और एक दिन आश्रम में संकीर्तन कर रहे उनके शिष्यों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दी। इस घटना में उनके एक शिष्य की मृत्यु हो गई और कई घायल हो गए।
इनका जन्म १९ मई १८८१ में सिलहट जिले के हबीबगंज सबडिविजन के बामई में हुआ था जो कि इस समय बांग्लादेश में पड़ता है। उन्होंने विश्वशांति का सपना देखा और सन १९०९ में ‘अरुणाचल मिशन’ नाम से एक संस्था की स्थापना की। १७ दिसंबर, सन १९१२ को पेरिस में हुए शांति सम्मलेन में ठाकुर दयानंद जी ने अपनी विश्व-एकता योजना की एक रुपरेखा प्रस्तुत की। “प्रत्येक देश की जनता किसी निश्चित अवधि के लिए अपने बीच से एक राष्ट्रपति चुने और वह काउन्सिल की सहायता से उनका भाग्य निबटारा करे। फिर प्रत्येक देश के राष्ट्रपति अपने बीच से एक प्रधान राष्ट्रपति चुने जो भिन्न-भिन्न देशों से भेजे गए मंत्रियों के साथ (जिसमें सार्वभौम प्रजातंत्र का अंग होगा) मिलकर, देशो की सरकार से भिन्न एक सरकार बनाएं। वह प्रत्येक देश के कार्यों की समीक्षा करेंगी और सभी को समान रूप से समृद्ध व विकसित होने देने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे। जिससे की कोई देश किसी कमजोर देश का शोषण कर लाभ न उठा पाए।…
यह उनका स्वप्न था जो आगे चलकर UN (The UN was founded in 24 Oct 1945 after World War II to replace the League of Nations, to stop wars between countries, and to provide a platform for dialogue.) के रूप में स्थापित हुआ और ठाकुर जी का स्वप्न साकार हुआ।
ठाकुर दयानंद और स्वामी विवेकानंद जी में जो समानतायें मुझे दिखाई पड़ी, वह थी मानव कल्याण हेतु कार्य करना व अपनी चिंता छोड़ दूसरों के लिए जीना। वे अन्य संतों की तरह भजन कीर्तन और भक्ति मार्ग की आढ़ में मंदिरों और गुफाओं में छुपने से अच्छा, विश्व में एकता व सबके विकास के लिए कार्य करते थे। वे चाहते थे कि सभी अपने अपने धर्मों को माने पर दूसरों को कष्ट पहुंचाए बिना। सभी अपने देश व भाषा का सम्मान करें लेकिन किसी और का देश व भाषा का अपमान किये बिना। उन्होंने साधू-संतों का प्रचलित सिद्धांत, “मैं सुखी तो जग सुखी” कभी नहीं अपनाया और “जग सुखी तो मैं सुखी” के सिद्धांत को अपनाते हुए “विश्वशांति” को अपना उद्देश्य बनाया।
ठाकुर दयानंद देव जी जब बाबाधाम आये तो कबिलासपुर में एक छोटे से मकान
(जमाबंदी न० ७, प्लाट न० १३) में अपना निवास बनाया। यहीं वे ध्यान व साधना करते थे। उन्होंने सड़क के किनारे एक कुआं भी बनवाया, ताकि बाबाधाम आने वाले तीर्थयात्री अपनी प्यास बुझा सकें। धीरे धीरे उस कुँए का पानी तीर्थ यात्रियों में इतना पवित्र माना जाने लगा कि लोग अपनी यात्रा से लौटते समय उस कुँए से पानी प्रसाद के रूप में अपने घर ले जाने लगे। यह कुआँ आज भी है लेकिन जर्जर अवस्था में। ठाकुर दयानंद जी के सद्विचार और सदगुणों ने उस समय के कई धनाढ्य लोगों को अपनी ओर आकृष्ट किया और वे उनके शिष्य बने। उन्ही में से एक शिष्य जिनके मकान में वे रह रहे थे, कुछ समय बाद वह सारी जमीन उन्हें जनकल्याणार्थ आश्रम बनाने हेतु दान में दे दी। आश्रम का निर्माण कार्य १९२१ में शुरू हो गया जो कि १९२४ में बनकर तैयार हुआ। २६/११/१९२२ को विधिवत दस्तावेज बनवाकार उस शिष्य ने अपनी १.७४ एकड़ भूमि ठाकुर को देना चाहा, तो उन्होंने अपने नाम पर न लेकर अपने शिष्य स्वामी आलोकानंद के नाम करवा दिया। यही ठाकुर दयानन्द जी की महानता का परिचय है।
जब तक ठाकुर दयानंद देव जीवित रहे जन-कल्याणार्थ कार्य करते रहे लेकिन उनके स्वर्गवास के पश्चात उनके उत्तराधिकारी उनके दिखाए मार्ग से भटक गए और भजन-कीर्तन को ही जीवन का सिद्धांत बना लिया। उन्होंने ठाकुर की प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना शुरू कर दिया और बाहरी दुनिया से कटने लगे। आश्रम की दिनचर्या “जय जय दयानंद, प्राण गौर नित्यानंद” जपने और प्रसाद ग्रहण करने तक ही सीमित हो गया। आश्रम ने ग्रामीणों के शिक्षा, संस्कार को उन्नत करने के लिए काम करना बंद कर दिया। अध्यक्ष और ट्रस्टी अपने-अपने घर-परिवार में उलझ गये। परिणाम यह हुआ कि उनका नाम और उनकी शिक्षा दोनों ही पतन की राह पकड़ ली। ठाकुर दयानंद देव जी का सपना (विश्वशान्ति और सदभावना) को पूरा करने के लिए बनाया गया ‘अरुणाचल मिशन’ का मुख्यालय ‘लीलामंदिर आश्रम’ केवल धर्मभीरुओं और कायरों का गढ़ बन कर रह गया। यहाँ आने वाले सन्यासी और ट्रस्टियों के लिए यह होलीडे-इन बन गया जहाँ वे छुट्टियाँ बिताने और आराम करने के लिए आने लगे। किसी को भी आश्रम के रख-रखाव और विकास के लिए कुछ सोचने का समय नहीं मिला। यदि किसी सन्यासी ने आश्रम के हित व उत्थान के लिए कुछ करना भी चाहा तो उसे डरा-धमका कर या आश्रम के नियम के विरुद्ध कार्य करने का अभियोग लगा कर निकाल दिया गया।
जब भूमाफियाओं (धर्मानंद झा और शिवानन्द झा) की नज़र इस भूमि में पड़ी तो उन्हें यह आसानी से कम खर्च में प्राप्त होने वाला फल दिखाई दिया। उन्होंने आश्रम में आना जाना शुरू कर दिया और आश्रम के प्रबंधकों और ट्रस्टियों का विश्वास जीतने के लिए अपनी गाडी में घुमाने से लेकर हर रोज फल व मिठाई आदि लाने जैसे कार्य करने लगे। प्रमुखों को विश्वास में लेकर वे आश्रम के कागजात सम्बन्धी जानकारी भी प्राप्त करने में सफल हो गये। अब उन्होंने अगला कदम उठाया और अपने ही कुछ ख़ास लोगों को यहाँ से दीक्षा दिलवाकर यहीं बैठा दिया। इन लोगों का काम था कि आश्रम की गतिविधियों में नज़र रखना और संभावित खतरे से उन्हें अवगत करवाते रहना। धीरे धीरे उन्होंने डकैती और मार-पीट का सहारा लेकर संयासियों को डराना व भगाना शुरू कर दिया। धीरे धीरे स्थिति यह हो गई कि हर कोई इनसे डरने लगा और ये लोग मनमानी करने लगे। ये लोग आश्रम के फल-फूल से लेकर पेड़ों तक को क्षति पहुंचाते थे।
एक दिन धर्मानंद झा ने आकर कहा कि उसने जमाबंदी ७ प्लाट न. १९/९९ (एरिया १७ डेसीमल) को खरीद लिया है। भय के कारण आश्रम प्रबंधक और ट्रस्टियों ने कोई ठोस रक्षात्मक कदम नहीं उठाया। परिणाम यह हुआ कि प्लाट न० १३ (एरिया ३० डेसीमल) पर भी अपना अधिकार घोषित कर दिया और क़ानून को धोखा देने के लिए आनन्-फानन में उक्त जमीन का कागज अपने नाम बनवाने के लिए धर्मानंद झा ने बंदोबस्त पदाधिकारी दुमका में जमीन का खाता अपने नाम खुलवाने का आवेदन दिया। जिसमें यह कहा गया कि उक्त जमीन का अंश रकवा ०.४७ एकड़ मेरे दखल कब्जे में है, जहाँ से आश्रम के नाम एक नोटिस तुरंत निर्गत किया गया और साथ ही १२.०१.१२ को तिथि निर्धारित किया। पुनः बंदोबस्त पदाधिकारी ने कानूनगो से जांच रिपोर्ट माँगा। इस पर कानूनगो साहब ने यथाशीघ्र स्थल जाँच कर अगली तारीख को जाँच प्रतिवेदन सुपुर्द कर दिया। इस रिपोर्ट में उक्त खाता के कुल जमीन में से अंश रकवा ०.४७ एकड़ जमीन पर धर्मानंद झा का दखल कब्ज़ा एवं मकान होने की बात लिख दिया। इस पूरे मामले में प्रबंधक की लापरवाही साफ दिखाई देती है। अब वह लापरवाही किस वजह से की, इसका जवाव शायद वह ही दे सकें मगर कागजातों पर ध्यान दें, तो यह साफ नजर आ जायेगा कि गलत तरीके से भू-माफियाओं ने जगह पर कब्जा किया है। प्रबंधकों को चाहिये था कि सबंधित मामले में अदालत में मामला दायर करें मगर ऐसा नहीं किया गया। आज भी स्थिति ऐसी है कि जिस दिन कोर्ट की तारीख पड़ती है ट्रस्टी और अध्यक्ष महोदय बीमार पड़ जाते हैं और इलाज करवाने शहर से बाहर चले जाते हैं। शायद भूमाफिया का डर उनके दिलो-दिमाग में कुछ ज्यादा ही पड़ गया।
आज लीलामंदिर आश्रम कमजोर व असहाय खड़ा अपनी बर्बादी का तमाशा देख रहा है और ट्रस्टी और प्रबंधक अपने परिवारों में खोये हुए हैं। स्वामी शिव चैतन्यानंद कुछ करना चाहते हैं आश्रम के लिए तो उन्हें किसी तरह का अधिकार नहीं दिया गया। न तो उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त होती है किसी से और न ही मानसिक। यदि अवांछित व्यक्तियों को रोकते हैं, तो वे हाथापाई पर उतर आते हैं। इस बात का यदि अध्यक्ष या ट्रस्टियों से शिकायत की जाती है, तो वे मीटिंग-मीटिंग खेलने लगते हैं लेकिन यहाँ आकर समस्या का समाधान नहीं करते और न ही उपद्रवियों के विरुद्ध कोई ठोस कदम उठाते हैं। स्वामी शिव महाराज ने पुलिस में शिकायत की तो उपद्रवी तो नाराज हुए ही, ट्रस्टी और अध्यक्ष भी नाराज हो गए।
यहाँ ध्यान देने योग्य जो बातें सामने आती हैं वह यह है कि कैसे मूढ़ अंधभक्त, अपने गुरु के स्वप्न, शिक्षा व धरोहर का सर्वनाश कर देते हैं। हम यहाँ यह भी जान पाते हैं कि कैसे पथ प्रदर्शक के दिखाए मार्ग पर न चलकर अंधभक्त वहीँ उनकी मूर्ती जमा कर जम जाते हैं और फिर शुरू हो जाता है एक नया धर्म या संप्रदाय और मिल जाता है लड़ने-मरने के नए बहाने। इससे धर्म के कम्बल में छुपे खटमलों को मौका मिल जाता है अपने अपने जौहर दिखाने का।
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- UNESCO Action for Peace (unesco.org)
किसी भी सिद्धांत की रक्षा अनुयायी के बलिदान ओर उसके पृति कर्तव्य निष्ठा से होती हैं. चाहे आप देश के पृति लागू करे या संस्थान के पृति ।ठगी तो हरेक छेत्र में है जागरूक तो सच्चे आदमी रहगे तो ठीक नहीं तो दूसरा वर्ग अपना कार्य करेगा आप लेख लिखते रहो ।गाडी अपने ढर्रे पर चलती रहेगी ।जो कार्य कृत्यों से होना हैं वह लेखो से नहीं होगा ।
मैं केवल लिख ही नहीं रहा हूँ, आवश्यक कदम भी उठा रहा हूँ | जिसकी वजह से ट्रस्टी, अध्यक्ष और उनके शुभचिंतक सहमें हुए हैं और मुझे धमकियाँ भी दिलवाई जा रहीं हैं |