जब वे हमारी मांगे पुरी नहीं कर सकते तो काहे के भगवान ?


ब्रम्हा, विष्णु और महेश, केवल ये तीन ही भगवान थे किसी ज़माने में। जनसँख्या बढ़ी तो भगवान भी बेचारे व्यस्त हो गए। अब हर किसी की मांगें पूरी करना उनके वश के बाहर हो गया तो लोगों ने भी उन्हें याद करना बंद कर दिया क्योंकि भगवान हम अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए ही तो बना रहें हैं। जब वे हमारी मांगे पुरी नहीं कर सकते तो काहे के भगवान ?
लोगों ने भगवान को सबक सिखाने के लिए देवियों को पूजना शुरू कर दिया।
लेकिन यहाँ भी लोगों ने अपने अपने पसंद और आवश्यकतानुसार देवियों की स्थापना शुरू कर दी। उनमें भी माँ सरस्वती बेचारी अल्पमत में रह गई और दुर्गा, काली, लक्ष्मी ने अपना परचम लहरा दिया।
और सही भी है कि सरस्वती बेचारी विद्या और संगीत की देवी है और आज विद्या और संगीत गुणी अनपढ़ या गुंडे-मवाली के यहाँ नौकरी कर रहे होते हैं। या फिर किसी नेता की धोती पकडे देश “….को लाओ, देश बचाओ…” का नारा लगा कर देश बचा रहे होते हैं। और इन नेताओं का अध्ययन और आध्यात्म से दूर दूर तक रिश्ता नहीं होता।
सरस्वती का दूसरा गुण गीत-संगीत भी पूंजीपतियों के लिए समय की बरबादी के सिवाय और कुछ नहीं होता। अम्बानी, टाटा, बिड़ला, बिलगेट्स… कोई भी गायन वादन नहीं जानता शायद लेकिन सारे माँ सरस्वती से आशीर्वाद प्राप्त लोग इनके दरवाजे पर पड़े रहते हैं।इनके यहाँ तो जूता पालिश करने वाला भी स्नातक से कम नहीं होगा।

तो बुजुर्गों ने अनुभव से समझा कि माँ सरस्वती की आराधना करके भूखे मरने से अच्छा है दूसरी देवियों की आराधना किया जाए और फिर वही परंपरा चल पड़ी।
और फिर न तो न्यूटन ने, न ही आइन्स्टीन ने सरस्वती की आराधना किया था लेकिन सबसे ज्यादा ज्ञानी माने जाते हैं।
एडिसन ने भी सरस्वती की आराधना नहीं की थी लेकिन आज हम उसी के दिए रौशनी पर ज्ञानी बन रहें हैं। और जिन लोगों ने माँ सरस्वती की आराधना की वे लोग शास्त्र रटते रहे लेकिन अर्थ नहीं समझ पाए।
आज भी संस्कृत के प्रकांड पंडित और कम्पुटर प्रोग्रामर भरे पड़े हैं, बेरोजगार भी हैं, लेकिन अपने स्वयं के भाषा पर कोई ऐतहासिक कदम उठाने की अक्ल नहीं इकठ्ठा कर पाए यह काम भी अमेरिका के ही जिम्मे सौंपा हुआ है। वे बेचारे अपने बच्चों को संस्कृत सिखा रहें हैं ताकि २०२० तक मिशन संस्कृत पूरा कर सकें क्योंकि उनके पास संस्कृत के विद्वान नहीं है और भारतीय विद्वानों ने साथ देने से मना कर दिया क्योंकि हमारे शास्त्रों में लिखा है शायद कि संस्कृत एक रटंत विद्या है उसे तकनीकी या व्यावहारिक न बनायें।
वैसे भी भारतीय तो पैदा ही अंग्रेज या अंग्रेजों के नौकर बनने के लिए ही होते हैं, इनका बस चले तो उस भगवान को गोली मार दें जाकर जो इन्हें बार बार भारत में पैदा कर देता हैं।
खैर समय का पहिया और आगे बढ़ा देवियाँ भी लोगों की इच्छा पूर्ति करने में असफल रहने लगीं तो लोगों ने गुरुओं और मार्गदर्शकों को भगवान बना कर पूजना शुरू कर दिया क्योंकि उनके दिखाए रास्ते में चलने का समय ही किसके पास है ?
सबके अपने अपने घर-परिवार है और फिर दुनिया में आये भी इसीलिए हैं कि बीवी बच्चे पालने हैं। सद्मार्ग, परोपकार, समाज-सेवा, देश-सेवा जैसे काम तो भगवान के जिम्मे हैं या फिर कोई देवदूत या सिद्ध पुरुषों का काम है या फिर किसी सरफिरे टूटी चप्पल पहने, फटे पुराने कुरता पायजामा पहने समाज सेवक का जिसकी न घर में इज्ज़त न समाज में।
अब भला कोई शरीफ आम आदमी यह सारे काम कैसे कर कर सकता है ?
तो लोगों ने उन लोगों को ही भगवान दिया कि जिस रास्ते पर तुम हो हम उस मार्ग पर नहीं चलेंगे लेकीन तुम्हें भोग लगा देंगे और जिस मार्ग में तुम चल रहे थे और मरने के बाद चलोगे उसमें तुम्हारा मनोबल बढाने के लिए हम भजन कीर्तन करेंगे जब हमें समय मिला, नहीं तो किराये पर लोगों को बुलवाकर भजन कीर्तन या पूजा अर्चना करवा दिया करेंगे….

ऐसे ही एक गुरु थे ठाकुर दयानंद देव जी। जिन्होंने संत होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज बुलंद किया था। परिणाम स्वरुप उन्हें भी अंग्रेजों का कोप भाजन होना पड़ा। उन्होंने विश्व शान्ति अभियान शुरू किया तो कई लोग उनके साथ जुड़ गए।
उन्होंने कहा था, “I want to make bridge between Spiritual and the Material world…” क्योंकि ईश्वर की सृष्टि की उपेक्षा करके ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। लेकिन उनके म्रत्यु के पश्चात उनके शिष्यों के लिए उनके दिखाए मार्ग “विश्वशांति” को समझना कठिन हो गया या भटक गए तो उन्होंने उन्हें भगवान बना दिया और उनकी मूर्ति बना कर पूजना शुरू कर दिया। क्योंकि जिस मार्ग पर हमें नहीं चलना होता है लेकिन लोग गालियाँ न दें इसलिए मार्गदर्शक को भगवान बना देने में ही भलाई होती है।
अब कोई भगवान् के रास्ते में भला पैर कैसे रख सकता है ?

करना तो वही है जो हमें करना है।अब उनके शिष्यों ने शांति का अनूठा तरीका निकाला कि न तो आश्रम में लोग रहेंगे और न ही रहेगी अशांति। तो एक एक कर आश्रम से सभी लोगों को डरा-धमका कर भगाने लगे और आज स्थिति यह हो गई कि अरुणाचल मिशन का मुख्यालय वीरान हो गया। अब ट्रस्टी गर्व से कहते हैं कि आश्रम में कोई नहीं होगा तव भी ठाकुर आश्रम चला लेंगे, सब लोग भाग गए लेकिन आश्रम और मिशन का कुछ नहीं बिगड़ा, यह ठाकुर ही का ही प्रताप है…. आज यहाँ शान्ति है क्योंकि लोग ही नहीं हैं यहाँ दो चार बचे हैं जो ठाकुर के स्वप्न की समाधि की चौकीदारी कर रहें हैं।
इन चौकीदारों को यह भी नहीं पता कि ठाकुर ने मिशन की स्थापना क्यों की थी ?
इन्हें तो बस इतना पता है कि रोज सुबह शाम ठाकुर को भोग लगाना चाहिए चाहे जीवित लोग भूखे मर जाएँ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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