सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन और क्रान्ति की नौटंकी से लाभ क्या है ?
आज हर तरफ लोग क्रान्ति और सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की बातें कर रहे हैं। कहने वाले और सुनने वालों की भीड़ बढ़ती ही चली जा रही है। तो प्रश्न उठता है कि सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न लोगों ने देखना क्यों शुरू किया वह भी जागते हुए ?
सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देखना कोई नयी बीमारी नहीं है, बल्कि उतनी ही पुरानी है जितनी धार्मिक, राजनैतिक और शासकीय व्यवस्था। जब राजनीति शुरू नहीं हुई थी, जब कोई राजा या शासक नहीं था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की। सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन तो दूर, किसी ने व्यवस्था परिवर्तन के विषय में भी कल्पना नहीं की होगी।
गौतम बुद्ध, मोहम्मद से लेकर अब तक न जाने कितने महापुरुष आ चुके हैं, जिन्हें व्यवस्था ठीक नहीं लगी। उन सभी ने व्यवस्था परिवर्तन से लेकर सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन करने तक के लिए दिन रात एक कर दिये थे। लेकिन परिणाम निकला वही ढाक के तीन पात।
समाज संगठित होने की बजाय, बिखरता चला गया, टूटता चला गया। प्राचीनकालीन में लोग सूर्य, चंद्र, पहाड़, नदी, तालाबो की उपासना करते थे। आज हर पंथ के कई उपपंथ हैं, कई शाखाएँ हैं और सभी परस्पर विरोधी हैं। उदाहरण के लिए इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, हिंदुइज़्म को ही ले लीजिये। इनकी कई शाखाएँ हैं और सभी परस्पर विरोधी विचारधारा से युक्त हैं।
आप लोगों के लिए ये सब धर्म हैं, लेकिन मेरे लिए सम्प्रदाय हैं बिलकुल वैसे ही जैसे वामपंथ, दक्षिणपंथ, अंबेडकरवाद, मोदीवाद, गाँधीवाद, गोडसेवाद….आदि। कभी ध्यान दिया कि हर पंथ या सम्प्रदाय के संस्थापक के जीवन का उद्देश्य क्या था ?
क्या वे सब भी कोई नयी व्यवस्था, नयी जीवनशैली नहीं देना चाहते थे ?
क्या वे नहीं चाहते थे कि समाज पहले से अच्छा हो जाये, परस्पर सहयोगी बनें, मिलजुलकर रहें ?
उनके विचारों और शिक्षाओं पर किताबें लिखी गयीं और उन्हें ईश्वरीय वाणी मानकर उनका अनुसरण करने के लिए कहा गया। लेकिन हुआ क्या ?
क्या समाज, सम्प्रदाय अपने आरध्यों, गुरुओं के दिये सिद्धांतों का अनुसरण कर रहे हैं ?
आप लोगों के संप्रदायों के संस्थाप्क गुरुओं ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दी सत्य, न्याय और धर्म के लिए, देश की गरिमा और मान-सम्मान के लिए। क्या आप अपने गुरुओं के आदर्शों पर चल रहे हैं ?
क्या आपका सम्प्रदाय अपने गुरुओं के सिद्धांतो पर चल रहा है ?
💔💔💔
फिर भी मेरा भारत महान !
बच्चों को तो बख़्स दो 🙏 pic.twitter.com/dJuqPjH4rW
— Major Surendra Poonia (@MajorPoonia) June 19, 2022
सत्य तो यह है कि कोई भी सम्प्रदाय, पार्टी, संस्था, संगठन अपने गुरुओं के दिखाई मार्ग पर नहीं चल रहा, केवल ढोंग कर रहा है धर्म, सत्य और न्याय के साथ होने का।
ऐसे ही मनुष्यों को कृष्ण ने स्थिरप्रज्ञ तथा तथागत बुद्ध ने स्थविर कहा
2017 में वेनेजुएला के प्रेसिडेंट निकोलस मादुरो ने नोटबन्दी कर दिया। इससे पूरे देश में हाहाकार मच गया। बाजार और दुकानें बंद होने लगीं, कई जगह हिंसक घटनाएं भी हुईं।
एक बेक़ाबू हिंसक भीड़ ने बसों में आग लगा दिया। तभी वहाँ पर एक शख़्स आया और एक जलती हुई बस के बगल में खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से सिगरेट निकाली और जलती बस से अपनी सिगरेट सुलगा कर वहाँ से चला गया। गीता में ऐसे ही मनुष्यों को कृष्ण ने स्थिरप्रज्ञ तथा तथागत बुद्ध ने स्थविर कहा है।
अब आप बताइये कि क्या यही मानवता है ?
क्या ऐसा ही होना चाहिए सभ्य मानवों को ?
क्या ऐसा ही बनना नहीं सिखा रहे आपके धार्मिक ग्रंथ, आपके सद्गुरु, आपके स्कूल, कोलेज्स ?
क्या ऐसा ही नहीं बन चुका आपका समाज और आपका सम्प्रदाय ?
“अग्निवीर योजना” के समर्थक और विरोधियों के तर्क-वितर्क देखने के बाद, जो केन्द्रीय बिन्दु उभरकर सामने आ रही है, वह यह है कि सेना में भर्ती होने के लिए व्याकुल युवा देश के लिए नहीं, पक्की पेंशन वाली नौकरी के लिए सेना में भर्ती होना चाहते हैं।
लेकिन ऐसी मानसिकता क्यों बनी युवाओं में ?
मुझे ऐसा लगता है कि ऐसी मानसिकता के लिए सबसे बड़े दोषी हैं धार्मिक व आध्यात्मिक गुरु और बाबा लोग।
“मैं और मेरा परिवार सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीने वाले धर्म व आध्यात्मिक गुरुओं, बाबाओं ने अपने अनुयाइयों को भी यही सिखाया और आज हर कोई “मैं और मेरा परिवार सुखी तो जग सुखी के ही सिद्धान्त पर जी रहा है।
धार्मिक व आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा दी गयी किताबी ज्ञान का ही परिणाम है कि समाज ना तो धार्मिक हो पाया, ना देशभक्त और न ही परोपकारी।
क्या लगता है इन भावी अग्निवीरों को दूसरों की संपत्तियो में आग लगाने से इनके घर के चूल्हे जलेंगे ?
सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन चाहिए क्यों ?
क्या इतने सारे मजहब, इतने सारे पंथ, इतने सारे पार्टियाँ, संगठन, संस्थाएं और सरकारें बनाकर मन नहीं भरा ?
क्यों आवश्यकता पड़ती है नए=नए सम्प्रदाय, समाज, संस्थाएं और संगठन बनाने की ?
जो अब तक बने, वे सब असफल क्यों हो गए, कभी इसपर समाज ने ध्यान क्यों नहीं दिया ?
यदि ध्यान दिया, तो फिर कारणो को दूर कर अपने ही सम्प्रदाय, समाज, पंथ, पार्टी, संस्था, संगठन को सुधारने की बजाए, ढोये क्यों चले जा रहे हैं लोग ?
जिसे भी देखो कहते फिरता है कि मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। तो ये जो दुनिया भर में बैर और नफरत बाँट और बटोर रहे हैं, वे सब आए कहाँ से ?
अभी हाल ही में अफगानिस्तान में गुरुद्वारा में इस्लामिक आतंकियो विस्फोट किया, जिससे कई सिक्ख मारे गए। ये सांप्रदायिक द्वेष घृणा आयी कहाँ से ?
जितने गुरु, उतने ही मार्ग, उतने ही पंथ, उतने ही सम्प्रदाय। और परिणाम वही ढाक के तीन पात !
कहा जाता है कि मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मंजिल सभी की एक ही है। तो फिर अलग अलग पंथ वाले लोग आपस में शत्रु क्यों हैं ?
क्यों कहते हैं कि फलाना गलत है, हम सही हैं ?
क्या सम्भव है सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन एक ऐसे देश में, जहां आधी से अधिक जनसंख्या पाँच किलो अनाज और एक बोतल दारू पर बिक जाती हो ?
किताबों पर भले अच्छी-अच्छी बातें लिखी हों, लेकिन क्या वे सब व्यावहारिक हैं ?
हमें सड़कों के किनारे फलों के पेड़ लगाने चाहिए। ताकि हर किसी को, यहाँ तक कि बेघर और अनाथ भी पेट भर खा सकें।
इसे ही कहते हैं किताबी ज्ञान से उत्पन्न सुविचार।
सत्य तो यह है कि किताबी ज्ञान का व्यावहारिकता से कोई सम्बंध नहीं होता। जिस किताब का सम्बन्ध व्यवहारिक ज्ञान से होता है, वह किताब भूली बिसरी यादें हो जाती हैं। लेकिन जिन किताबों का ज्ञान व्यवहारिक नहीं होता, दुनिया उन्हें सीने से लगाए रहती है। उसका एक पन्ना भी गलती से किसी के हाथों फट जाये, तो कत्ल-ओ-गारद मचा देते हैं।
अब यहाँ किसी ने बहुत सुंदर किताबी ज्ञान दिया, पढ़कर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई होगी। फूटपाथ पर रहने वालों से लेकर महंगी कोठियों में रहने वाले तक वाह-वाह कर उठे होंगे। लेकिन कोई यह नहीं सोचेगा की ये विचार कहीं से भी व्यावहारिक नहीं है।
अब आप बताएं कि क्यों व्यावहारिक नहीं है ?
जानता हूँ कि आपके पास उत्तर नहीं होगा। जबकि उत्तर बहुत सीधा सा है कि जब धार्मिकों और सभ्य नागरिकों का समाज ही बेईमान है, तो सड़कों के किनारे लगाए गए पेड़ों के फल तो क्या, पेड़ भी सबूत बचे रहेंगे, इस बात की क्या गारंटी ?
कल सड़कों के किनारे लगाए गए पेड़ों का कोई ठेकेदार निकल आएगा। फिर वह उन फलों को खुद बेचेगा और सारा समाज मौन धारण करके बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत देखो के सिद्धान्त पर जीने की शिक्षा देगा। लेकिन अपने आराध्यों की शौर्य गाथाएँ गाएगा कि हमारे आराध्य ने तो अधर्म व अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुती दे दी। लेकिन अपने घर में कोई ईमानदार निकल आए, सत्य की राह पर निकलना चाहे, तो होश उड़ जाएँगे।
और फिर यही लोग उन लोगों की भीड़ में खड़े दिखाई देंगे, जो सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की बातें करके अपने उल्लू सीधा कर रहे हैं। जो अपने ही समाज, अपने ही सम्प्रदाय, अपनी ही संस्था और संगठन को भेड़चाल से मुक्त नहीं करवा पाये, वे निकले हुए हुए हैं सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन करने।
आखिर कब तक चलेगी ये नौटंकी और क्यों चाहिए ऐसी नौटंकियाँ, जब अधिकांश जनता खुश है पाँच किलो अनाज और एक बोतल दारू से ?