खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाना है

जैसे आयु बढ़ती है, प्राणी अधिक से अधिक समझदार होता जाता है और समझ जाता है कि खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाना है।
क्योंकि आयु के साथ-साथ अनुभव भी बढ़ता जाता है।
फिर एक समय आता है, जब वह भीड़, समाज और परिवार का अंतर भी समझने लगता है। और जब उसे अंतर समझ में आने लगता है, तो फिर वह भीड़ से स्वयं को अलग कर लेता है और अपने परिवार में व्यस्त हो जाता है। यदि परिवार ना हो, तो वह एकाँकी जीवन जीने लगता है, लेकिन भीड़ में दोबारा शामिल नहीं होता।
और जब व्यक्ति भीड़ से अलग जीने लगता है, तब उसे यह भी समझ में आने लगता है कि जब व्यक्ति के अपने जीवन में कष्ट और अभाव अधिक हो, तब वह दूसरों की ज़िंदगी में दुख देखकर खुश होने लगता है।
कुछ लोग अपने घर परिवार की समस्याओं को भूल कर अरब देशों की समस्याओ पर दुखी होने लगते हैं। कुछ लोग अपने स्वयं के दुखों को भूलकर देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के सुखों में सुखी होने लगते हैं।
जिनके पास ढंग के पहनने के लिए कपड़े तक नहीं होते, वे नौलखा सूट पहनकर घूमने वाले जुमलेबाजों को देखकर खुश रहने लगते हैं।
सारांश यह कि मानव की प्रवृति है खुश रहने की और खुश रहने के बहाने खोज ही लेता है। फिर भले अपना घर बर्बाद हो जाये, फिर भले अपना देश बिक जाये।
क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रन्थों और धार्मिक/आध्यात्मिक गुरुओं ने सिखाया है:
“खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाना है।
सारी जमा-पूंजी और संपत्ति
जुमलेबाजों, माफियाओं और
देश व जनता को लूटने लुटवाने वालों को
सौंपकर जाना है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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