पंचायत चुनाव: नोट के बदले वोट और वोट के बदले मिठाई

मैंने अपनी पंचायत के मुखिया से कहा, “अरे भाई आप मुखिया का चुनाव जीत गए, तो कम से कम मिठाई तो खिलानी ही चाहिए थी ?”
छूटते ही मुखिया ने कहा: “आपने तो वोट दिया ही नहीं ?”
मुखिया की बात में दम भी था और तर्क भी। नोट के बदले वोट और वोट के बदले मिठाई। सीधा-सादा गणित है इसमें कोई दिमाग लगाने की आवश्यकता ही नहीं।
अब चुंकि मैंने चुनाव में भाग ही नहीं लिया, तो मिठाई का अधिकारी कैसे बन सकता था ?
चुनाव तो एक व्यवसायिक उत्सव है, एक व्यापार है, शुद्ध लेन-देन पर आधारित। और इसमें दो ही प्रजाति भाग लेती है। और वह दो प्रजाति है, वैश्य और शूद्र। वैश्य को मुनाफा चाहिए, दौलत चाहिए और शूद्र को नौकरी और दो वक्त की रोटी। अब इस खेल में ब्राह्मणों का क्या काम ?
खैर तय कर लिया है मैंने कि चुनावों की नौटंकियों से दूर ही रहना है क्योंकि जीते कोई भी, रहेगा तो वह माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का गुलाम ही। और माफियाओं, लुटेरों का गुलाम कभी भी जनता और देश का भला कर ही नहीं सकता।
मुझे याद है जब हम छोटे हुए करते थे और जब स्कूल में पास हो जाते थे, तो दादी मिठाई बनाती थी बड़े प्रेम से और फिर कहती कि जाओ गाँव में बाँट कर आ जाओ। कोई घर छूटना नहीं चाहिए, भले उनसे हमारा झगड़ा ही क्यों न चल रहा हो। क्योंकि हमारा गाँव हमारा परिवार हुआ करता था। लेकिन बड़े होने के बाद वह बड़ा परिवार फिर कभी नहीं मिला। बड़ा तो छोड़िए अब तो छोटे परिवार भी लुप्त होने के कगार पर पहुँच चुके हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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