धर्म को समझो, मानने का झंझट क्यों?

आजकल मैं अक्सर यही कहता हूँ कि “धर्म को समझो, माने नहीं!” और फिर लोग मुझे अजीब सी नजरों से घूरते हैं। लेकिन ध्यान रहे, इसका मतलब ये नहीं है कि मैं शास्त्रों का गंगाजल पीकर उनसे ओतप्रोत हो चुका हूँ, या हर ग्रंथ को कंठस्थ करके किसी सच्चे बाबा की तरह उपदेश देने लगा हूँ। न ही मैं कोई साधू संत हूँ जो तप करते-करते पत्थर बन चुका हो। मैं तो एक साधारण मानव हूँ, जिसमें वही सारे गुण हैं जो किसी सामान्य इंसान में हो सकते हैं – जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह… हाँ वही चार घोड़े जो इंसान को दिन-रात दौड़ाते रहते हैं। जैसे ही इनसे मुक्त होते हैं, इंसान को ब्रह्मज्ञान मिल जाता है। और फिर क्या! इंसान खुद को चंद्रास्वामी, आसाराम बापू, निर्मल बाबा, नित्यानंद जैसे महान संतों के श्रेणी में पा जाता है।
अब मैं क्या कहूँ, मुझे तो इन महापुरुषों का पूरा श्रद्धा भाव से नमन करना चाहिए, क्योंकि ये वही लोग हैं जो माया से पार होकर ब्रह्मज्ञान के महासागर में डूबे हुए हैं। और उनकी महिमा तो ऐसी है कि मोक्ष भी उनके दरवाजे पर लाइन लगाए खड़ा रहता है, बस जैसे ही उनके चरणों में प्रवेश करो, वही मोक्ष का टिकट भी कट जाता है। क्या बात है!
अब, जिस धर्म की मैं बात करता हूँ, वह तो विश्वधर्म है। वो धर्म, जिसमें पूरी सृष्टि समाहित है, और जिसके बारे में हम इंसान तो नहीं समझ पाते, लेकिन हर पशु-पक्षी बिना शास्त्र पढ़े, बिना किसी उपदेश के, पूरी श्रद्धा और निष्ठा से निभाता है। इसे हम कहते हैं मातृत्व, प्रेम, और समर्पण – वही अद्भुत धर्म, जो कहीं शास्त्रों में नहीं मिलता, पर फिर भी हर जीवंत प्राणी इसे जीता है।
श्री कृष्ण ने इस धर्म को अपने विश्वरूप से समझाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन कुछ ज्ञानियों ने इसे अलग ही दिशा में मोड़ दिया। उनका ध्यान तो केवल मंदिरों के निर्माण, मूर्तियों की पूजा, और हमारे पैसे की ओर गया। उन्होंने श्री कृष्ण के चित्र बनाए, मूर्तियाँ बनाई, और फिर ‘धर्म’ का व्यापार शुरू कर दिया। जय जय के नाम पर दुकानें सज गईं, और हम भक्तों ने अपने कर्मों का बोझ हल्का करने के लिए उन मंदिरों के दर्शन करने शुरू कर दिए। अब यही धर्म का सबसे बड़ा धंधा बन चुका है, जय जय!
तो मेरे प्यारे दोस्तों, जब हम कहते हैं कि धर्म को समझो, मानने का कोई दबाव नहीं है। क्योंकि असल धर्म तो उसी वृक्ष की तरह है, जो बिना थके अपनी ऑक्सीजन हमें देता है, या फिर उस श्वास की तरह जो बिना रुके चलती रहती है। यही धर्म है, जिसे हम सच्चाई और सादगी से जी सकते हैं। बाकी जो बचे, उनके लिए भगवान की दुकानें और मंदिरों के धंधे हमेशा तैयार हैं!
-विशुद्ध चैतन्य
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