माफियाओं और सरकारों के ग़ुलाम साधु-संत देश व समाज के हितैषी नहीं

वाराणसी के एक आश्रम में ठहरा था अपनी यात्रा के मध्य। अत्याधिक थका हुआ था, क्योंकि ट्रेन में सीट नहीं मिली थी लगभग पूरी रात खड़े होकर यात्रा करनी पड़ी थी। पैर हिलाने तक की जगह नहीं मिल रही थी। ऊपर से टीटी के भी दर्शन नहीं हुए पूरी यात्रा में।
वाराणसी जब पहुंचा तो दोपहर की तेज धूप और गर्मी से हालत खराब हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि चक्कर आ जाएगा और गिर पड़ूँगा कहीं। तब एक परिचित के कहने पर आप पार्टी एक नेता ने एक गाँधीवादी आश्रम का पता बताया कि वहाँ जाकर आप आराम कर सकते हैं।
ये साधु-संत नहीं, कोई पाखंडी है
मैं जब वहाँ पहुँचा तो बहुत ही बुरी तरह से थका हुआ था, तो मैं तुरंत नहाकर सोने चला गया। दो घंटे बाद जब मेरी आँख खुली तो मैंने सुना कि कोई किसी से फोन पर बात कर रहा था और कह रहा था, “अरे ये कोई साधु-संत नहीं लग रहा, कोई पाखंडी होगा। साधु-संत भला गर्मी से ऐसे परेशान होता है क्या ? गर्मी से इसकी हालत इतनी खराब हो गयी, इतनी बुरी हालत तो हमारे जैसे लोगों की भी नहीं होती कभी। अब आपके कहने पर रख लिया है, लेकिन ये कोई साधु संत नहीं है।”
मैं उठा दरवाजा खोलकर देखा, तो जो फोन पर बात कर रहा था, वह विषय बदलकर कुछ और बात करने लगा।
यह घटना इसलिए बताया क्योंकि मैं यह समझाना चाहता था कि समाज की नजर में साधु-संतों की जो छवि बनी हुई है, वह किताबी है। और उस किताबी छवि को प्राप्त करने के लिए साधु-संतों को अप्राकृतिक जीवन शैली अपनानी पड़ती है, जैसे कि अघोरी या दिगंबर जैन साधु संत अपनाते हैं।
समाज ने साधु-संतों को अपना जमुरा बना रखा है
केवल मूर्ख जनता को खुश करने के लिए, उनकी वाह-वाही बटोरने और चापलूसी और जयकारा पाने के लिए बेचारे दुनिया भर का कष्ट सहते हैं। और इसीलिए नहीं कि उन्हें कोई आनंद प्राप्त होता है यह सब सब करने से, बल्कि इसलिए कि समाज ने किताबी ज्ञान के आधार पर साधु-संतों को अपना जमुरा बना रखा है।
जैसी जीवन शैली समाज स्वयं आचरण में नहीं लाता, जो समाज के लिए व्यवहारिक ही नहीं है, उस जीवन शैली को जीने के लिए विवश करते हैं कुछ लोगों को साधु-संन्यासी बनाकर। फिर उनकी जय जय करते नाचते हैं।
कभी सोचा है कि जो समाज अघोरियों के सामने नतमस्त्क होता है, वह समाज स्वयं अघोरियों की तरह क्यों नहीं जीता ?
जो समाज निर्वस्त्र साधु-संतों को पूजता है, वह समाज स्वयं निर्वस्त्र क्यों नहीं रहता ?
जो समाज दरिद्र, दीनहीन साधू संतों को पूजता है, वह समाज स्वयं धन, ऐश्वर्य, कीर्ति के पीछे क्यों भागता है ?
प्रवचन यानि परायों के वचन, परायों के लिए
अब कुछ लोग प्रवचन और कथावाचन को अपनी आजीविका का माध्यम बनाकर जी रहे हैं, तो गलत क्या है ?

सोशल मीडिया पर क्या प्रवचन करने वाले, सुविचार पोस्ट करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। यह और बात है कि इनके पर पास आजीविका के दूसरे माध्यम है, इसलिए सोशल मीडिया पर सुविचार पोस्ट करने और प्रवचन करने के पैसे नहीं ले रहे।
लेकिन सोचिएगा कभी कि सुविचार पोस्ट करने वाले, पढ़ने वाले, प्रवचन सुनने और सुनाने वालों की भीड़ आज तक आध्यात्मिक, धार्मिक और देशभक्त क्यों नहीं हो पायी ?
क्यों ये भीड़ देश को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध मुँह खोलने का साहस नहीं करते ?
क्यों ये लोग प्रायोजित महामारी का आतंक मचाकर जनता को बंधक बनाकर सामूहिक बलात्कार करने वालों के विरुद्ध मुँह खोलने का साहस नहीं कर पाते ?
साधु-संतों के भेस में घूम रहे अधिकांश वैश्य हैं या फिर शूद्र
देश व जनता को लूटने और लुटवाने वाली माफियाओं की सरकारों के सामने नतमस्त्क रहने को विवश समाज, उनकी वेतन और पेंशन के लालच में उनकी गुलामी करने को विवश समाज भी मालिक बनना चाहता है। इसीलिए वह ऐसे लोगों को खोजता है, जिसे वह अपना जमुरा बनाकर रख सके। जिसे अप्राकृतिक जीवन शैली जीने के लिए विवश करके स्वयं को धन्य समझे।
पहले मुझे लगता था कि साधु-संत समाज को प्रेरणा देते हैं। अधर्म, शोषण व अन्याय के विरुद्ध संगठित होने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन जब स्वयं इनके बीच में पहुँचा, तो जाना कि ये सब तो वैश्य हैं। त्याग के नाम पर धंधा जमाये बैठे हैं। स्वयं इनमें साहस नहीं अधर्म, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने की, तो भला ये किसी को और प्रेरित कैसे कर सकते हैं ?
ये तो बाकी बनियों की तरह माफियाओं, लुटेरों की चाटुकारिता में लिप्त रहते हैं। ये तो स्वयं समाज और सरकार के जमुरे बने जीते हैं। इनमें और राजनैतिक पार्टियो के नेताओं में कोई अंतर ही नहीं है। जैसे राजनैतिक पार्टियों के नेता अधर्म, अन्याय व शोषण के विरुद्ध आवाज नहीं उठा पाते कि कहीं उनकी कोई सीडी लीक न हो जाये, ठीक वैसे ही ये भी अपनी किसी न किसी कमजोरी के कारण सरकारों और माफियाओं के गुलाम बनकर जीते हैं।
आश्चर्य तो मुझे इस बात पर है, कि जो साधु-संत गुलाम हैं समाज, सरकार और माफियाओं के, वे अहंकार से अकड़े घूमते हैं। दुनिया उनकी जय-जय करती है। लेकिन जो धर्म, न्याय, सत्य के पक्ष में हो, जो देश व जनता का हितैषी हो, उसे माफिया और सरकारें, तो दुतकारती ही हैं, समाज भी उनसे दूर भागता है। ऊपर से धार्मिक होने का ढोंग ऐसा करते हैं, जैसे देश व जनता को लूटने और लुटवाने से बड़ा कोई धार्मिक कर्म है ही नहीं।
क्या ईश्वर ने लुटेरों, माफियाओं, शैतानों और प्रायोजित महामारी का आतंक फैलाकर देश को बंधक बनाकर जनता का सामूहिक बलात्कार करने वालों की चाकरी और जय करने को ही धर्म माना ?
क्या आपके आसमानी, हवाई, ईश्वरीय धार्मिक ग्रंथो में ईमान, ज़मीर, जिस्म बेच चुके लोगों को ही धार्मिक माना ?
समझ में ही नहीं आता कि कोई जाये तो जाए किस दड़बे में ?

गौतम बुद्ध और ओशो ही दो ऐसे व्यक्तित्व हुए मेरी नजर में, जो सनातनी थे। इनहोंने भेदभाव मुक्त वातावरण बनाया। लेकिन इनके अनुयाइयों ने इनके पंथ को भी हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, जैन, कॉंग्रेस, भाजपा, सपा, सीपीआई…..टाइप का दड़बा बना दिया।
मेरी अपनी नजर में एक सनातनी और एक नास्तिक में केवल आस्तिकता और नास्तिकता का ही अंतर होता है। सनातनी भी किसी दड़बे में कैद नहीं हो सकता और नास्तिक भी नहीं।
नास्तिकता तो आया ही इसलिए, क्योंकि आस्तिकों को मौत से आतंकित होकर प्रायोजित सरकारी महामारी के सुरक्षा कवच लेते देखा। जब आस्तिक ही शैतानों के सामने नतमस्क हो जाये, तो फिर ऐसी आस्तिकता से तो नास्तिकता भली।
फिर आस्तिकों ने इतने सारे दड़बे बना रखे हैं, कि समझ में ही नहीं आता कि कोई जाये तो जाए किस दड़बे में ?
सभी अपने अपने दड़बों और दड़बों के संस्थापकों, ठेकेदारों को महान बताते हैं। सभी कहते हैं कि हमारे दड़बे के आराध्य की जय-जय करोगे तो तुम्हें सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी।
लेकिन जब उनके दड़बों में झाँककर देखो, तो उनके दड़बों के सदस्य स्वयं खुशी खुशी देश व जनता को लूटने और लुटवाने वाली सरकारों, माफियाओं के सामने नतमस्क हुए पड़े हैं।
संन्यास किसी का पालतू जमुरा होना नहीं है
मैंने संन्यास लिया, तो मेरे लिए संन्यास किसी का पालतू जमुरा होना नहीं है। संन्यास लेने का अर्थ ही है कि अब मैं स्वतंत्र हूँ, समाज के दिशानिर्देश पर नहीं चलूँगा। जो समाज स्वयं भेड़चाल से मुक्त नहीं, जो समाज सरकारों, माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के सामने नतमस्त्क रहता हो, वो समाज मुझे सिखाएगा कि संन्यासी को कैसा होना चाहिए ?
भले आप माने या ना माने, लेकिन सत्य तो यही है कि जिसे आपका समाज, आपकी सरकार और आपके पालतू साधु-संत धर्म मानकर जी रहे हैं, मेरे लिए वह धर्म है ही नहीं। और इसीलिए मैं वैसा नहीं हूँ, जैसा आपके पालतू साधु-संत और ना ही कभी होना चाहूँगा। आप मुझे अब जो समझें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी ना तो फूटी कौड़ी मिलती है मुझे आपके समाज से, ना आपकी सरकारों से और न ही आपके राजनैतिक पार्टियों से। तो कोई अधिकार भी नहीं बनता मुझे वैसा बनाने का, जैसा आपका समाज है, जैसी आपकी सरकारें हैं, जैसे आपके पालतू साधु संत हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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