अजीब है ये दुनिया भी


हम कुँए में कूदें, पर चोट लगे तो देखने वाला दोषी। हम बिना आपसे पूछे आपकी ज़मीन पर कब्ज़ा करें, पर जब आप हटाना चाहे तो हटाने वाला दोषी… कोई कुछ कहे तो कहने वाला दोषी…
भूल जाओ कि हमने क्या किया, लेकिन यह देखो कि हमारे साथ क्या हुआ।

भोले बाबा को अपने साथ ले जाती माँ गंगा
दुनिया को बेवकूफ बनाने और भगवान् को मस्का लगाने के लिए शंकर जी की मूर्ति रख दी मैया की ज़मीन पर….
आखिर बर्दाश्त की भी तो कोई हद होती है ? मैया को गुस्सा आया और ले गईं अपने साथ भोले बाबा को… उन सब दुकानों को जो धर्म के नाम पर चल रही थी… शायद लोग सुधरेंगे नहीं, पर कोशिश करेंगे प्रकृति को सुधारने की।
अरे भाई धर्म की आड़ में हो रहे धंधे से धार्मिक चश्मा पहने लोगों को तो बेवकूफ बना सकते हो, पर भगवान् (प्रकृति) को कैसे बेवक़ूफ़ बनाओगे ? विकास और विश्वास के नाम पर विश्वासघात किया प्रकृति के साथ और मोक्ष दिला दिया उन बेचारों को जो अपनी लम्बी उम्र और सुख-समृद्धि की चाह में तीर्थ करने गए थे। कौन था वहाँ जो ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ गया। कई गए थे पिकनिक करने। आज हर ओर यही चर्चा है कि नास्तिक और आस्तिक अपनी बकवास बंद करें और एक बार वहाँ का मंजर देखें… दिल बैठ जाता है…
क्यों बैठ जाता है दिल ?

तब दिल क्यों नहीं बैठा जब तीर्थ को तीर्थ नहीं रहने दिया ?
तब दिल क्यों नहीं बैठा जब तीर्थ भी फाइव स्टार सुविधा उपलब्ध करवाने की होड़ लगी ?
तब दिल क्यों नहीं बैठा जब गंगा और अन्य नदियों की अपनी ज़मीन पर भी कब्ज़ा कर रहे लोगों को देखते रहे और एक शब्द नहीं निकला ?
तब दिल क्यों नहीं बैठा जब पाखंडी साधू-संन्यासी अपने आश्रम नदियों के जमीन पर बना रहे थे ? तब दिल क्यों नहीं बैठा जब लक्ज़री होटल और रेस्टोरंट वहाँ बन रहे थे ?
किसको बेवकूफ बना रहे हैं ये धर्म के ठेकेदार, दुकानदार, सरकार और इनके चाटुकार… ?
ईश्वर को ? दुनिया को ? पड़ोसी को ? या स्वयं को ?

तीर्थ या सिद्धस्थल दुर्गम स्थलों पर इसलिए नहीं बने थे कि वहाँ लोग सुख की कामना करें बल्कि इसलिए बने थे कि सुख सुविधाओं से दूर कष्ट भोगते हुए केवल वास्तविक जिज्ञासू, श्रद्धालू या साधक ही वहाँ पहुँचे। ताकि हर कोई ऐरा गेरा पिकनिक मनाने या धर्म की दुकानदारी चलाने के लिए वहाँ पहुँचने की हिम्मत न कर सके। पर आधुनिकता और विकास के नाम पर सिद्ध स्थलों को भी बाजार बना दिया। उत्तराखंड में जो दुर्घटना हुई वह ईश्वरीय नहीं मानवीय है। मानवों ने निहित स्वार्थ के लिए प्रकृति, श्रद्धा और ईश्वर का मजाक बनाया और अपनी ही किये की सजा भोगी उन्होंने।
सरकार को दोष देना व्यर्थ है क्योंकि सरकार को हमने ही चुना है और हमारी पसंद वही होगी जैसे हम हैं या होना चाहते हैं। जब वहाँ बन रहे बाँध के विरोध में उत्तराखंड के लोग एक जुट हुए थे तब पुरे भारत के धार्मिक ठेकेदार और उनके चमचे तमाशा देख रहे थे, अब सरकार को कोस रहें हैं।
आपको पूरा अधिकार है मुझे गाली देने का, कोसने का, बददुआ देने का…क्योंकि किसी इंसान के मरने पर मुझे उतना दुःख नहीं हुआ जितना सिद्धस्थलों की दुर्गति और उनका व्यवसायीकरण से हुआ है। जितना धर्म के नाम पर फैले पाखण्ड से हुआ है। जितना उन श्रद्धालुओं से हुआ है जो सिद्धस्थलों में प्लास्टिक की बोतलें, शराब की बोतलें, प्लास्टिक के थैले… आदि कचरा फेंक कर समझते हैं कि पाप मुक्त हो गये। ईश्वर खुश होकर अपने भक्तों की मनोकामना पूरी कर देंगे…कि मेरा भक्त मिनरल वाटर पीता है या विलायती दारु पीता है…

यदि सचमुच ईश्वर पर विश्वास है तो उन अवैध भूमि अधिग्रहण को रोको जो पाखंडी लोग धर्म के नाम पर कर रहें हैं। उन पाखंडी श्रद्धालुओं को रोको जो यहाँ से प्राचीन मूर्तियाँ तस्करी करके भारत से दूर ले जाने आते हैं ताकि भारत में मुस्लिम और ईसाइयों को अपनी दूकान जमाने में आसानी रहे। जिस तरह अफगानिस्तान में बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया। जिस तरह तक्षशिला, नालंदा में रखी प्राचीन पुस्तकें ध्वस्त की गईं… वर्ना एक दिन आएगा जब भारतीय सभ्यता और संस्कृति इतिहास बन जायेंगी हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की तरह।
-विशुद्ध चैतन्य
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