न्याय केवल व्यवसाय और तमाशा मात्र बनकर रह गया

पहले मुझे लगता था कि सजा किसी को सही मार्ग पर लाने के लिए दी जाती है, लेकिन अब समझ में आया कि सजा सजा होती है और सुधरने या न सुधरने से उसका कोई लेना देना नहीं होता। केवल सजा की निर्धारित अवधि पूरी करनी होती है।
उदाहरण के लिए संजयदत्त का केस ही लें। लोग परेशान हैं कि उसे पेरोल पर क्यों छोड़ा गया ? और यदि उसे छोड़ा गया तो बाकी को क्यों नहीं छोड़ा गया…?
क्या ये लोग बताएँगे कि बाकी लोग और संजयदत्त में समानताएँ कितनी हैं ?
न्यायालयों में रंगे हाथ पकड़े गए आरोपी को भी बेशर्मी से बचाने के लिए झूठे प्रत्यक्षदर्शी और साक्ष्य इकट्ठे वकील मिल जायेंगे और वहीँ मिल जायेंगे तमाशा देखते न्यायाधीश। जो जानते हुए भी कि आरोपी दोषी ही है साक्ष्य के अभाव में या अच्छे वकील की पैरवी पर छोड़ दिया जाएगा एक और अपराध करने के लिए।
लेकिन यदि किसी से अपराध हुआ और वह स्वयं अपनी गलती का एहसास करके प्रायश्चित कर रहा हो तो भी हम उसके पीछे पड़े रहेंगे कि वह जेल में क्यों नहीं है ?
अरे अपने नेताओं को जेल में क्यों नहीं भर रहे जो पूरे देश की इज्ज़त लूट रहें हैं दिनदहाड़े ?
गरीबों का जीना दुश्वार कर रहे हैं पुलिस और प्रशासन की सहायता लेकर… और प्रमाणित कीजिये कि जितने लोगों ने अपनी सजा पूरी की वे सभी सुधर गए हैं ?
वास्तव में न्याय व्यवसाय एक तमाशा मात्र बनकर रह गया है। जब अपना या शक्ति-संपन्न कोई कानून की शिकंजे में फँसता है तो न्याय की परिभाषा बदल जाती है लेकिन दूसरा कोई फँसता है तो न्याय सर्वोपरि हो जाता है। कितने निर्दोष जेलों में पड़े निर्दोषिता के प्रमाण के आस में अपना जीवन व्यतीत कर रहें हैं, तो कितने दोषी होते हुए भी सत्तासुख भोग रहें हैं क्योंकि साक्ष्य सामने लाने वाले को अपनी नौकरी और जीवन की चिंता है।
~ विशुद्ध चैतन्य

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