चुन्नुमल घुन्घुनियाँ और ब्रम्हराक्षस

चुन्नुमल घुन्घुनियाँ एक बहुत ही प्रतिष्ठित व्यापारी थे। देश विदेश में उनका व्यापार फैला हुआ था। करोंड़ों का लेन देन चलता था उनका। व्यस्त इतने रहते थे कि आँख खुलते ही काम पर लग जाते और आँख बंद होने तक काम करते रहते थे। चारों ओर जयजयकार था उनका।
लेकिन चुन्नुमल खुश नहीं थे। कारण था राजकोष से लिया गया कर्ज जो उतर ही नहीं रहा था। हर दूसरे दिन राजा का कोई आदमी आ जाता था तकाजा करने के लिए। बेचारे जितना अधिक काम करते उतना ही व्यापार बढ़ता लेकिन कर्जा वहीँ का वही रहता। सेठ जी ने कई ज्योतिषी और पंडितों को कुंडली दिखवाई हवन करवाए लेकिन राहत नहीं मिल रही थी।
उधर उनकी धर्म पत्नी अलग मुँह फुलाए रहती थी कि कभी हमारी शक्ल भी देख लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि मैं मर जाऊं और तुम मुझे पहचान भी न पाओ और आग लगा आओ किसी और की चिता को। बच्चों की शक्ल तो उसे याद ही नहीं थी।
एक दिन उस नगर में एक बहुत ही पहुँचे हुए संत पहुँच गए। वैसे भी पहुँचे हुए लोग ही पहुँचते हैं, सो पहुँच गए उस नगर में भी। सेठ जी को पता चला तो बड़ी मुश्किल से थोड़ा समय निकाल कर रात में पहुँचे जब सब लोग जा चुके थे और संत सोने की तैयारी में थे। बहुत अनुनय विनय के बाद संत उनसे मिलने को तैयार हुए।
सेठ जी ने अपनी समस्या उनको बताई कि कैसे वह इतना मेहनत करते हैं और फिर भी सभी दुखी रहते हैं और धनलाभ भी नहीं हो रहा।कर्जे बढ़ रहें हैं सो अलग। संत ने ध्यान से सारी बातें ध्यान से सुनी और अपनी आँख बंद कर कुछ देर ध्यान लगाने के बाद बोले, “समस्या तो बहुत ही गंभीर है और एक बहुत ही शक्तिशाली ब्रम्हराक्षस का साया पड़ा हुआ आपके पीछे।”
“क्या बात कर रहें हैं आप महाराज ???” सेठ जी ब्रम्हराक्षस का नाम सुनते ही थर-थर काँपने लगे।
“मैं ठीक कह रहा हूँ और मैं तो उसे अभी भी तुम्हारे पास ही खड़े देख भी रहा हूँ।” संत ने सेठ के दाहिने ओर इशारा करते हुए कहा।
सेठ जी जहाँ बैठे थे वहाँ से उछल कर सीधे संत के चरणों में आ गिरे, “मुझे बचा लीजिये महाराज !!! मैं और मेरा परिवार बर्बाद हो रहें है। आप जितना भी धन मांगेंगे मैं देने को तैयार हूँ।”
“अगर धन से ही समस्या सुलझ जाती तो पहले ही नहीं सुलझ गई होती ? इसके लिए कम से कम छः महीने की तपस्या करनी होगी और वह भी आपको अपने पुरे परिवार के साथ। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है।
“महाराज लेकिन मेरा व्यापार संभालेगा कौन ? मैं तो एक दिन क्या एक घंटे के लिए भी छुट्टी नहीं ले सकता तो छः महीने की तो सोचना भी असंभव है।” सेठ ने अपनी असमर्थता जताते हुए हाथ जोड़े।
“ठीक है फिर जैसी प्रभु की इच्छा। आप जाइए अपना व्यापार संभालिये और ब्रह्मराक्षस तो आपको संभाल ही रहा है।” यह कहते हुए संत ने सेठ जी को एक माला दी और कहा कि इसे गले में डाल लो ताकि अकेले में डर न लगे।
सेठ जी बुझे मन से अपने घर लौट गए। घर पहुँच कर सारी बात पत्नी को बताई तो पत्नी के भी होश उड़ गए। बोली, “मुझे तो पहले ही शक था कि कुछ तो गड़बड़ है क्योंकि इतना हवन करवाने के बाद भी हमारे घर में शान्ति नहीं है तो बड़ी मुसीबत ही होगी।”
तब तक नौकर खाना लेकर आ गया लेकिन अब खाना कहाँ खिलाया जाता ? सेठ जी बार बार अपनी दाहिने और देखते कि कहीं ब्रह्मराक्षस न दिख जाए। थोड़ी देर बाद पत्नी बोली “चलिए जी उठिए अभी चलते हैं स्वामी जी के पास।”
“अभी ??? इतनी रात में ???” सेठ जी चौंक कर बोले।
“जी हाँ अभी !!!” और सेठानी ने सेठ जी का हाथ पकड़ कर खींचा और घर से बाहर आ गए। थोड़ी देर बाद स्वामी जी के पास पहुंचे और उन्हें नींद से जगाने के लिए क्षमा मांगते हुए सेठानी ने तपस्या में जाने के लिए स्वीकृति दे दी।
संत ने सेठ जी से पूछा कि जब आप सपरिवार बाहर जा रहें हैं तो व्यापार की जिम्मेदारी किस पर सौंप कर जायेंगे ?
सेठ जी बोले कि बर्बाद तो हम हो ही रहें हैं और यदि यह तपस्या नहीं की तो हमारा परिवार भी नहीं बचेगा इस ब्रम्हराक्षस से। इसलिए जाना तो आवश्यक है ही। चूँकि और कोई उपाय नहीं है इसलिए मैं अपने मैनेजर को ही सारी जिम्मेदारी सौंप कर जाऊँगा।
“क्या वह इतना विश्वसनीय है कि आपके लौटने तक सब संभाल ले ?” संत ने फिर पूछा।
“महाराज मैंने कभी किसी पर विश्वास नहीं किया लेकिन मैनेजर ही सबसे पुराना आदमी है और अभी तक उसके विरुद्ध कोई शिकायत भी नहीं सुनी मैंने।” सेठ अपनी विवशता जताते हुए बोले।
“सोच लीजिये फिर से एक बार। क्योंकि हो सकता है आपके जाने के बाद सारा व्यापार चौपट कर दे या फिर सब कुछ हडप कर कहीं और भाग जाए ?”
“नहीं महाराज ऐसा तो वह शायद नहीं करेगा लेकिन कर भी सकता है।” सेठ जी की आखों में परेशानी झलक रही थी।
“देखिये यदि आप तपस्या पर निकले और आपका ध्यान यहाँ व्यापार की तरफ रहा तो कोई लाभ नहीं होने वाला। यह एक बहुत ही कठोर तपस्या है और बहुत ही कम लोग इस तपस्या में सफल हो पाते हैं। इसलिए सोच लीजिये कि क्या करना है ? व्यापार या तपस्या ? संत ने फिर पूछा
“तपस्या !!!” सेठ और सेठानी दोनों एक स्वर में बोले।
संत ने उनको तपस्या के कुछ नियम बताये और आशीर्वाद देकर उन्हें विदा कर दिया। छः महीने बाद जब वे लौटे तो सेठजी पूरी तरह से बदले हुए थे। उनका पूरा परिवार खुश था। जब सेठ जी ने अपने व्यापार के विषय में जानकारी ली तो पता चला कि राजा का सारा कर्ज भी चुकता हो गया और दूसरे सारे कर्ज भी समाप्त हो चुके थे।
नोट: अब आप बताएं कि संत ने तपस्या के लिए कौन सी विधि बतायी थी कि सारी समस्या सुलझ गयी ?