क्या इतना व्यापक रूप है किसी और धर्म में ?
कई हज़ार साल पहले की बात है। एक दिन मेरे पास तुनकू पंडित आया बहुत उल्लास से भरा हुआ। आकर बोला, “बाबा मैंने धर्म परिवर्तन का निश्चय कर लिया है।”
“अरे क्यों भाई ? अपने धर्म में क्या बुराई है ?” मैंने उससे जानना चाहा।
“अरे बकवास धर्म है यह !! प्रेम-प्यार अपनापन से रिक्त है यह। उससे मत मिलो, उसका छुआ मत लो, उसको मिटा दो, वह नीच और वह ऊँच….. खण्डों में बिखरा हुआ है या धर्म। जितना सहेजने का प्रयास करते हैं उतना ही और बिखर जाता है। मेरे बहुत से मित्र हैं जो दूसरी जात के हैं और कई दूसरे धर्म एक भी। हम साथ साथ खेले और बड़े हुए, एक दूसरे के सुख दुःख में काम आये और आज लोगों को हमारे मिलने जुलने से आपत्ति है। लोग तरह तरह के बातें करते हैं….” तुनकू विद्रोही स्वर में बोला।
“हम्म….बात तो सही कह रहें हैं आप पंडित जी। लेकिन आप स्वयं ही पंडित हैं और आप ही ऐसी बातें करेंगे तो सोचिये समाज में क्या सन्देश जाएगा ?” मैंने उन्हें समझाते हुए कहा।
“अरे कुछ नहीं जाएगा… जो जाना था सो पहले ही चला गया अब रह क्या गया है ? हम दक्षिणा माँगते हैं तो उन्हें लगता है कि लूट रहे हैं। पूजा पाठ में भी लोग शॉर्टकट वाले पंडितजी को ढूँढ़ते हैं। फेरे के समय भी लोग आकर पहले ही कहने लगते हैं कि पंडित टाइम नहीं है, जरुरी मीटिंग में जाना है जरा फटाफट निपटा दीजियेगा। पहले विधि विधान से पूजा-पाठ करवाने से जजमान प्रसन्न होते थे और अब शॉर्टकट वाले पंडित जी से…. सारा धंधा ही चौपट हो रखा है। बच्चे पालने भारी पड़ने लगा है….
“अच्छा तो यह बात है !” मैंने पंडित की बात काटते हुए बोला।
मैंने कहा, “पंडित जी। क्या आप जानते हैं सारा किया धरा आप लोगों का ही है ? आपने ही शास्त्र पढ़े, वेद पढ़े और आपने ही नियम कानून बनाये। आप ने ही भेदभाव की दीवारें गहरी की और आप लोगों ने ही छुआ-छूत फैलाई। किसी और को दोष क्यों दे रहे हैं आप ? जब तक आप लोगों का भला होता रहा तब तक तो कोई बुराई नहीं दिखी भेद-भाव में, लेकिन अब धर्म में ही खोट हो गया ? धर्म तो वही का वही है जो पहले था पंडित जी, उसमें कुछ नहीं बदला। जिस प्रकार न सूरज बदला है और न चाँद ठीक उसी प्रकार हमारा धर्म भी नहीं बदला है। बस अपनी आँखों से चश्मा उतार लेंगे आप ये काले रंग का तो सब साफ़ साफ़ दिखने लगेगा। अन्यथा दाल में काला नहीं पूरी दाल ही काली दिखाई देगी।
कौन सा ऐसा धर्म है इस सृष्टि में जो हिन्दू धर्म से विराट व संकीर्णता से मुक्त है ? कौन सा ऐसा धर्म है जिसमें लोग गरीब नहीं है या धर्म उन्हें पाल रहा है ? सभी गरीबों को सरकार ही पालती है न कि धर्म। आप हिन्दू हैं या मुस्लिम कोई फर्क नहीं पड़ता, मंदिर या मस्जिद आपका भला करने नहीं आने वाले। भूखे मरेंगे तो सरकार को कोसा जाएगा, न कि पंडित मौलवियों को। धर्म बदलने से गरीबी नहीं मिटती, गरीबी मिटती है धर्म को समझने से। एक हमारा धर्म ही है जो इतना व्यापक व उदार है जिससे सभी धर्मों की उत्पत्ति हुई लेकिन आपस मैं कोई बैर नहीं था। एक हमारा ही धर्म है जिसमें बाप हिन्दू है तो बेटा बौद्ध और बहु सिख हो सकती है, लेकिन साथ साथ रह सकते हैं बिना भेदभाव के।
यहाँ मूर्ति पूजक को भी सम्मान है और निराकार उपासक को भी।
यहाँ माँ सरस्वती की अराधना भी होती है और माँ काली की भी।
यहाँ शाकाहारी का भी सम्मान है और माँसाहारी का भी सम्मान है।
यहाँ दाढ़ी मूंछ रखे हुए भी हिन्दू हैं और मुंडाए हुए भी हिन्दू हैं।
यहाँ काम भी देव है तो रति भी देवी….
क्या इतना व्यापक रूप है किसी और धर्म में ? केवल कुछ संकीर्ण व कुंठित मानसिकता के लोगों के कारण अपने धर्म को त्यागना चाहते हैं आप ?” मेरे अन्दर सोया हुआ उपदेशक जाग गया था।
“देखिये महाराज ! आप बाबा जी हैं संयासी हैं इसलिए सम्मान कर रहा हूँ आपका। इसका मतलब यह नहीं कि कुछ भी बोले चले जाएँ ? पंडितों के कारण ही आज यह धर्म बचा हुआ है वरना तो…. और धर्म के बारे में कभी पंडितों को मत सिखाइएगा…. सारे वेद और शास्त्र कंठस्थ हैं मुझे और कौन से पेज में कौन सा श्लोक लिखा है वह बता सकता हूँ मैं… मुझे क्या करना है और क्या नहीं आप जैसे घर-परिवार छोड़ कर भागे हुए बाबाओं से नहीं समझना। आप क्या जानो परिवार बच्चों की जिम्मेदारी की क्या होता ? आप क्या जानो जब शाम को चूल्हा नहीं जलता है और बच्चे कहते हैं कि पापा आप हमारी चिंता मत करो और सो जाओ, हमें बिलकुल भी भूख नहीं लगी है। कल जब आप काम पर जाओगे तो ढेर सारा खाना ले आना….।” कहते कहते उसका गला भर आया। क्रोध और दुःख से वह कांपने लगा और लड़खड़ा कर बैठ सर झुकाए बैठ गया। उसकी आँखों से निंकल कर एक बूँद टप कर भूमि पर जा मिली।