न धर्म बचा है न इंसानियत अब तो केवल ढोंग बचा है

मेरे एक पोस्ट पर दो महत्वपूर्ण कमेंट्स आये थे जिनका उत्तर मैं विस्तार से देना चाहता था…पहले पोस्ट पढ़ लीजिये, फिर वे दो महत्वूर्ण कमेंट्स और फिर मेरा उत्तर….
कोई मुस्लिम मारा जाए भीड़ द्वारा तो मुस्लिम समाज चिंतित हो जाएगा लेकिन कोई मुस्लिम भूख से मर रहा हो, उसके खेत की फसल नष्ट…
Posted by विशुद्ध चैतन्य on Saturday, 1 July 2023
“अप्राकृतिक मौत तो अत्यंत दुखद है। किन्तु गुरूजी मोब लिंचिंग व जैसा आपने इंगित किया, अन्य मौत में कुछ फर्क तो है ही। पहली समाज की क्रूरता प्रदर्शित करती है, जो कानूनन अपराध है जबकि दूसरी समाज की उदासीनता जिसे मोरल अपराध तो कहा जा सकता है किन्तु कानूनन अपराध नहीं है।” –Abdul Basit
“Sir with all due respect…
Mje aap ye bta do….
How a person dying from hunger and A person who is healthy, going to live a life,earnig well ..is killed by a anarchist mob is same…How?????
You are violently taking his life…he was capable of all thing…
Yahi to galat hai sir ji….
Aap jaise log iss inhuman crime ko justify karne ke lie aa jate hai……what to say i mean u all had justified kathua rape case..what else can be expected…
If cow are pious …ask ur gov . To make a law prohibiting cow slaughter
Next time give BJP vote only when they will do that
Otherwise there will be anarchy if this kind of situation will go on
Ask BJP to make law
Stop killing people in name of religion
This is inhuman and cruel thing a man can do…And stop justifying it..plz” –Arif Khan

उपरोक्त दोनों ही यह कहना चाहते हैं कि भीड़ द्वारा की गयी हत्या और समाज द्वारा किसी को मरता हुआ छोड़ देना, दोनों में भिन्नता है। एक जघन्य अपराध है और दूसरा अपराध की श्रेणी में तो आता है लेकिन वह नैतिक अपराध है यानि वह अपराध जघन्य अपराध नहीं है।
मुझपर यह भी आरोप लगाया गया कि मैं भीड़ द्वारा की गयी हत्या को जस्टीफाई कर रहा हूँ।
How a person dying from hunger and A person who is healthy, going to live a life,earnig well ..is killed by a anarchist mob is same…How?????
सबसे पहले तो मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं किताबी धार्मिक नहीं हूँ और न ही धार्मिकता या नैतिकता का ढोंग करना पसंद करता हूँ। मेरे लिए किसी भी भीड़ द्वारा की गयी किसी भी निर्दोष या दोषी की हत्या, बलात्कार….आदि सब अपराध ही है। मैं किसी एक अपराध को धार्मिकता के चश्में से और दूसरे अपराध को राष्ट्रीय कानून या संविधान की नजर से नहीं देखता। मेरे लिए धर्म, जाति या ईशनिंदा के नाम पर हत्या, बलात्कार, सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षति, दंगा-फ़साद, लूट-पाट आदि सभी संवैधानिक, नैतिक व धार्मिक अपराध हैं। आप नैतिक अपराध और राष्ट्रीय संविधान की दृष्टि में किये गये अपराधों को अलग अलग रख सकते हैं, किसी को कम या या किसी को अधिक महत्व दे सकते हैं, लेकिन मैं नहीं।
किसी भी निर्दोष का मारा जाना मानवता पर कलंक है। हिंसक पशु भी किसी राह चलते निर्दोष को जान से नहीं मार देते यदि वे पागल या भूखे न हों। लेकिन मानव यदि नर-भक्षी हो जाए, नैतिकता या धार्मिकता के नाम पर तो शर्मनाक है। वह अपनी हवस, अपनी भूख मिटाने के लिए इंसानों का ही शिकार करने लग जाए तो यह शर्मनाक है।
कानून या संविधान
कानून या संविधान वह नियम हैं जो समाज को यह बताता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। ये नियम तय करते हैं कि क्या पाप है क्या पुण्य, क्या नैतिक हैं और क्या अनैतिक, क्या अपराध है और क्या नहीं, क्या धर्म है और क्या अधर्म। संविधान चाहे पारिवारिक हो, सामजिक हो, किसी संस्था का हो या किसी राज्य या देश का, सभी में यह सुनिश्चित किया जाता है कि अपराधियों सजा देने का अधिकार भीड़ को नहीं है। सजा केवल अधिकृत विशेषज्ञ ही दे सकते हैं और वह भी पूरी जांच परख करने के बाद।
आप पाप-पुण्य कहें या नैतिक-अनैतिक कहें या अपराध-निरपराध कहें या धर्म-अधर्म। केवल शब्दों का अंतर है, अर्थ एक ही है। धर्म वह जो समाज के लिए हितकर हो, सुखकर हो, सहयोगी हो और अधर्म है विपरीत। जब कोई समाज या भीड़ हिंसक हो जाए और वह किसी निर्दोष की हत्या पर उतारू हो जाए, तो निश्चित मानिए कि वे अपराधी हैं, अधर्मी हैं, अनैतिक हैं। फिर यह हत्या भीड़ की अनदेखी की वजह से हुई हो या जानबूझकर की गयी हो। फिर कोई भूख से मर गया हो, या कर्जों के बोझ से दबकर मर गया हो या दौड़ा दौड़ाकर, पीट पीट कर मार दिया गया हो, एक ही बात है। क्योंकि ये अधर्म है, अनैतिक है, पाप है, अपराध है।
धार्मिकों का दोगला समाज
समाज दोगला होता है विशेषकर धार्मिकों का समाज। वह अपने पाप की सजा के लिए कयामत के दिन की प्रतीक्षा करता है लेकिन दूसरों के पापों की सजा तुरंत देना चाहता है। उदाहरण के लिए ईशनिंदा के नाम पर हत्या या सजा। ईश्वर की निंदा की किसी ने, उसके लिखे किताब को क्षत्ति पहुँचाई तो सारा समाज दौड़ पड़ेगा उसे सजा देने के लिए। तब कयामत की प्रतीक्षा नहीं करेगा। तब नहीं कहेगा कि ईश्वर की निंदा की है, ईश्वर की किताब को क्षति पहुँचाई है, ईश्वर खुद उसे सजा देगा। यानि ईश्वर से ऊपर हो गया समाज जो ईश्वर का अनादर करने वाले को सजा देने निकल पड़ता है ??
दूसरा दोगलापन देखिये समाज का कि यदि अपराधी गरीब है, असहाय है, किसी राजनेता से संरक्षण प्राप्त नहीं है, तो उसे दौड़ा-दौड़ा कर पीट पीट कर मार देंगे। लेकिन यदि अपराधी आर्थिक रूप से समृद्ध है, ऊँचे पदों पर आसीन है, अच्छे रुतबे वाला है, तो वह देश भी बेचकर खा जाये तो यही न्यायप्रिय समाज उसके पीछे दुम हिलाता घूमेगा। यदि अपराधी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा भी कर दी अपने अपराधों की, अपने ऊपर चल रहे केसों की, तब भी समाज उसकी जय जयजयकार करते हुए घूमेगा। और ऐसे लोगों में वे भी लोग होंगे, जो खुद को धर्म व नैतिकता का ठेकेदार समझते हैं, जो खुद को धर्मशास्त्रों, कानून व नैतिकता का जानकार समझते हैं।
कोई गरीब चोरी करता पकड़ा जाए तो भीड़ उसे मौत दे देगी, लेकिन यदि कोई नेता चोरी करता पकड़ा जाए तो कानून उसे सजा देगा। देगा भी या नहीं देगा उससे भी समाज को कोई सरोकार नहीं होता, वह जेल में बैठा बैठा ही चुनाव लडेगा और जीत जाएगा। और आप मुझ पर दोष लगा रहे हैं कि मैं अपराध को जस्टिफाई कर रहा हूँ ???
भीड़ द्वारा की गयी हत्या और भूख, बेरोजगारी व कर्ज से हुई आत्महत्या दोनों के लिए भीड़ ही जिम्मेदार है। भीड़ धार्मिकों की, भीड़ नैतिकता के ठेकेदारों की, भीड़ खुद को सभ्य वह शिक्षित मानने वालों की, भीड़ आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की और भीड़ धर्म व जाति के नाम पर हत्या करने वालों की….भीड़ ही होती है। भीड़ के पास विवेक नहीं होता, भीड़ के पास अक्ल नहीं होती, वह तो केवल भीड़ है अपनी बुद्धि, सोचने समझने की शक्ति खो चुकी, मानसिक् रूप से विक्षिप्त हो चुकी भीड़ है वह बस और कुछ नहीं। फिर वह खुद को कितना ही धार्मिक दिखाने की कोशिश करे, कितना ही नैतिक दिखाने की कोशिश करे, सब व्यर्थ। क्योंकि कोई निर्दोष मारा गया भीड़ की लापरवाही या उन्माद में वह पाप ही होगा, वह अधर्म होगा।
कठुआ रेप केस धार्मिकता के आढ़ में किया गया था। वह धार्मिक ही नहीं, मानवीय रूप से भी अपराध ही था। किसी को ईशनिंदा के नाम पर मार दिया गया, किसी को कार्टून बनाने पर मार दिया, किसी को फिल्म बनाने पर मार दिया, किसी को आलोचनात्मक लेख लिखने पर मार दिया….ये सब अपराध ही हैं, अधर्म ही हैं। मैं इनमें से किसी भी हत्या को धर्मसंगत नहीं समझता और न ही धार्मिक पुस्तकों या मान्यताओं के आधार पर जस्टिफाई करूँगा।
पहले धर्म को समझ लें, पहले नैतिकता को समझ लें, पहले संविधान को समझ लें…फिर मुझपर कोई आरोप लगायें। कोई लड़की या लड़का आपस में प्रेम करें, वे अकेले में मिलें तो आपका धर्म, नैतिकता खतरे में पड़ जाते है। लेकिन कोई बैंक ही लूटकर फरार हो जाये, कोई दुनिया भर के टैक्स लगाकर आपको लुटे और उसका साथ देते समय आपका धर्म और नैतिकता खतरे में नहीं पड़ता।
कोई भीड़ किसी को पीट पीट कर मार दे और मारने वाला और मरने वाला अलग अगल मजहब के हुए तो आपका धर्म और नैतिकता जाग जाता है। लेकिन आपके ही लापरवाही के कारण कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जाता है, कोई किसान आत्महत्या कर लेता है, कोई निर्दोष बेघर हो जाता है…तब न तो आपकी नैतिकता जागती है और नहीं धर्म। न तब आपका खुदा नाराज होता है और न ही आपके समाज की नजर में कोई अपराध होता है।
समाज और सरकारों की दोगला नहीं हूँ मैं। किसी भी कमजोर, निर्दोष, निहत्थे पर हुए अपराधों को अलग अलग नजरों से नहीं देखता। फिर अपराध असभ्यों की भीड़ करे या सभ्य धार्मिकों की भीड़….मेरे लिए दोनों ही भीड़ हैं और दोनों ही अपराधी हैं।
हाँ मैं परिस्थिति जन्य अपराधों के लिए भी समाज, धर्म व नैतिकता के ठेकेदार व सरकारों को ही दोषी मानता हूँ। किसी को अपने बच्चे या परिवार की जान बचाने के लिए चोरी करनी पड़ी या हथियार उठाने पड़े या हत्या करनी पड़ी तो मैं उसे अपराधी नहीं मानूंगा, बल्कि उस समाज को अपराधी मानूँगा जिसका वह सदस्य है। वह इस अवस्था में पहुँचा क्योंकि समाज ने उसकी सहायता नहीं की। क्योंकि सरकार ने उसकी सहायता नहीं की, उसे न्याय नहीं मिला, इसीलिए ही उसे अपराध करना पड़ा, इसीलिए वह व्यक्ति दोषी नहीं, बल्कि समाज व सरकार ही दोषी माने जायेंगे। मैं ऐसे व्यक्ति को कभी भी सजा देना पसंद नहीं करूँगा।
~ विशुद्ध चैतन्य
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