आनंद, उत्सव और परस्पर सहयोगिता है धर्म, घृणा और द्वेष नहीं

बचपन में फ़कीर या संन्यासी की रूपरेखा जो मेरे मन बस गयी थी, वह कुछ वैसा था जो सदैव प्रसन्नचित रहता है, हँसता, गाता, नाचता अपनी धुन में मगन रहता है। जब भी उनकी कोई तस्वीरें देखता तो ऐसा लगता था कि उनके जीवन में सुख ही सुख है और दुःख का उन्हें कोई अनुभव ही नहीं।
तब नहीं जानता था कि संन्यास क्या होता है और उनका जीवन कैसा होता है। माँ या पिताजी से बस यही पता चला कि संन्यासी वह होता है जो सामाजिक बंधनों से मुक्त होता है और केवल ईश्वर की आराधना व चिन्तन में लिप्त रहता है। चूँकि उन्हें समाज के सुख दुःख से कोई लेना देना नही होता, किसी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं होती, किसी से कोई अपेक्षा नहीं रहती, इसीलिए वे लोग हमेशा खुश रहते हैं। जबकि हम जैसे सामाजिक दायित्वों से बंधे लोगों के लिए सुख के भी पल होते हैं और दुःख के भी।
मुझे अपने जीवन में निश्चिंतता और सुख का अनुभव अपनी माँ के देहांत के बाद शायद कभी नहीं हुआ। अब हँसता भी हूँ तो लगता है दिखावा कर रहा हूँ, अब खुश भी होता हूँ, तो मन में कोई हलचल नहीं होती। बस बाहरी ओढ़ी हुई सी ख़ुशी होती है। कभी समझ नहीं पाया कि माँ के जाने के बाद ऐसा क्या हुआ कि मैं फिर दोबारा वह सुख व ख़ुशी नहीं प्राप्त कर पाया। मुझे याद है वह अंतिम ख़ुशी जो मैंने नौ वर्ष की आयु में पायी थी वह है दिवाली मनाना। उस दिवाली के बाद फिर कभी कोई दिवाली नहीं आयी जो मुझे ख़ुशी दे पायी। क्योंकि दिवाली के बाद आयी जनवरी ने माँ को हमेशा के लिए मुझसे दूर कर दिया था। माँ के बाद कोई मेरा अपना नहीं बन पाया, माँ के बाद कोई इतना विश्वसनीय नहीं बन पाया जिससे में खुलकर मिल सकूं।
कई नौकरियाँ बदली, कई तरह के काम किये, कई मित्र बनाए…समय के साथ सब छूटते चले गये। मतलब की नौकरी, मतलब के मित्र, मतलब के सम्बन्ध स्थाई नहीं होते यह बहुत देर से समझ में आया। माँ से बेहतर अपना और कोई नहीं यह भी समझ में आया।
बचपन में सोचा करता था कि जब मैं विवाह योग्य हो जाऊँगा तो शायद दुबारा कोई मुझे अपना मिल जायेगा…लेकिन नहीं मिला। समझ में आया विवाह प्रेम पर नहीं, दौलत और शोहरत पर आधारित होता या फिर स्वार्थ पर। स्वार्थी तो मैं भी हूँ लेकिन इतना स्वार्थी नहीं बन पाया कि विवाह योग्य कोई साथी खोज पाऊँ। या फिर शायद इतनी दौलत नहीं इकट्ठी कर पाया कि विवाहित हो पाऊँ। फिर बरसों बाद समझ में आया कि विवाह शुद्ध व्यापार है।
प्रेम खरीदने की योग्यता होनी चाहिए प्रेमिका मिल जायेगी। पत्नी खरीदने की योग्यता होनी चाहिए पत्नी मिल जायेगी, पति खरीदने की योग्यता होनी चाहिए पति मिल जाएगा…..यानी हर चीज बिकाऊ है और हर चीज खरीदी और बेचीं जा सकती हैं, व्यक्तिगत सम्बन्धी तक। और जो मेरे साथी विवाहित हुए, उनके मुरझाये चेहरे देखकर विवाह से मन घबरा गया।
फिर संन्यास लिया सोचा था कि संन्यासियों के बीच रहूँगा शायद मैं बदल जाऊँ। लेकिन नहीं बदल पाया क्योंकि आज भी मैं वही हूँ जो कल था। मैं संन्यासियों की तरह समाज के दुखों को भूलकर खुश नहीं हो पाया। ‘मैं सुखी तो जग सुखी’ के सिद्धांत को नहीं अपना पाया। लेकिन समझ में आया कि सबका दुःख उनका अपना है दूसरों का नहीं। कोई अमीर किसी गरीब की चिंता नहीं कर रहा होता। कोई हिन्दू किसी मुस्लिम की चिंता नहीं कर रहा होता। कोई मुस्लिम किसी हिन्दू की चिंता नहीं कर रहा होता। कोई कांग्रेसी कभी भाजपाइयों की चिंता नहीं करता और कोई भाजपाई कभी कांग्रेसियों की चिंता नहीं करता।
कोई मुस्लिम मारा जाए भीड़ द्वारा तो मुस्लिम समाज चिंतित हो जाएगा लेकिन कोई मुस्लिम भूख से मर रहा हो, उसके खेत की फसल नष्ट हो जाने का कारण दुनिया भर के कर्जों में दब गया हो, तब मुस्लिम समाज आँखे मूँद लेगा। इसी प्रकार कोई हिन्दू मारा जाए मुस्लिम भीड़ के हाथों तो हिंदुत्व ही खतरे में पड़ जाएगा। सारे हिन्दू संगठन दिन भर उस हिन्दू का शोक मनाएंगे मुस्लिमों को कोसेंगे। लेकिन जब कोई हिन्दू भूख से मर जाये, गरीबी से मर जाए, उसकी जमीन कोई भूमाफिया छीन ले, किसान आत्महत्या कर ले, आदिवासी बेघर हो जाएँ….तब हिंदुत्व खतरे में नहीं पड़ेगा, तब किसी हिन्दू संगठन की सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उनका व्यव्हार कुछ ऐसा होगा, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
यानि ये शोक मानना, ये विरोध जताना भी साम्प्रदायिक है मानवीय नहीं। मौका मिलना चाहिए दुसरे सम्प्रदायों को बुरा दिखाने का, लेकिन अपनी बुराइयाँ दिखाई नहीं देगी इन्हें। इन्हें दिखाई नहीं देगा कि इनके अपने दड़बे में ही इनके अपनों के कारण ही कितने लोग शोषित पीड़ित व दुखी हैं….लेकिन दूसरे दड़बे के हाथों किसी पर अत्याचार हो जाये तो आसमान सर पर उठाये फिरने लगेंगे। और ढोंग करेंगे मानवता का, इन्सनियता का। वास्तविकता यह है कि न तो धर्म बचा है और न इंसानियत, अब तो केवल ढोंग ही बचा है ।
यह सब देखकर मैं खुश नहीं हो पाता कभी भी। यह सब देखकर नाच नहीं पाता कभी भी, या सब देखकर गा नहीं पाता कभी भी। लेकिन कहते हैं न, सुख और दुःख सब अपने ही भीतर है ?
तो भीतर जाने पर पाता हूँ कि मैं सबसे सुखी इंसान हूँ। मुझे दूसरों के दुखों को देखकर दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। जो समाज खुद दुखों को गले लगाए रखना चाहता हो, जो समाज खुद को दुखों से मुक्त न करना चाहता हो, उनके दुखों को लेकर मैं भला क्यों दुखी होता हूँ ? जानबूझकर सोये हुए को नहीं जगाया जा सकता, जानबुझकर दुखी हुए लोगों को सुख नहीं पहुँचाया जा सकता…इसलिए अब बदलूँगा स्वयं को। अब अपने ही सुखों में सुखी रहूँगा, दूसरों के दुखों में दुखी रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं।
वास्तव में संन्यासी होने का अर्थ ही समाज के ढोंग, पाखण्ड आडम्बरों से अलग करके स्वयं को सुखी व प्रसन्न रखें का उपाय खोजना। और जो ऊपर उठने का अभिलाषी हो उसे सही राह दिखाना। न कि उन समस्याओं को लेकर दुखी होना, जिसे आप सुलझा नहीं सकते, जिसके लिए आप जिम्मेदार नहीं, जिसका आपसे कोई सम्बन्ध नहीं।
~विशुद्ध चैतन्य
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