साम्प्रदायिकता नहीं परस्पर सहयोगिता है वास्तविक धर्म
बीबीसी हिंदी समाचार की एक हेडलाइन ‘नौ देशों में विलुप्त हो सकता है धर्म‘ पर नजर पड़ी। समाचार में लिखा था;
अमेरिकन फ़िज़िकल सोसाइटी’ में छपे शोध के नतीजे इशारा करते हैं कि इन देशों में धर्म का लगभग अंत हो जाएगा. डॉक्टर रिचर्ड वीनर कहते हैं कि पेरु में लोग विलुप्त होती जा रही स्थानीय भाषा ‘क्यूचुआन’ के बजाय स्पेनी भाषा बोलने को कारगर समझ सकते हैं, और यही धर्म के साथ भी हो सकता है.
शोधकर्त्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चेक गणराज्य, फ़िनलैंड, आयरलैंड, नीदरलैंड्स, न्यूज़ीलैंड और स्विटज़रलैंड के एक सदी के जनगणना आंकड़ों का अध्ययन किया. रिसर्च कॉरपोरेशन फ़ॉर साइंस एडवांसमेंट’ के डॉक्टर रिचर्ड वीनर बीबीसी को बताया, “ये एक सीधा-सा विचार है. जिस सामाजिक समूह में अधिक लोग होंगे, उसकी ओर और अधिक लोग आकर्षित होंगे. बहुत से आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों में लोग ख़ुद को धर्म से अलग करते जा रहे हैं. नीदरलैंड्स में ये आंकड़ा 40 फ़ीसदी है लेकिन चेक गणराज्य में 60 फ़ीसदी लोग किसी भी धर्म से प्रतिबद्धता नहीं दिखाते.”
खबर पढ़ने के बाद मन में प्रश्न उठा कि क्या वास्तव में धर्म खतरे में हैं ? क्या वास्तव में एक दिन धर्म लुप्त हो जाएगा ?
फिर उत्तर भीतर से ही आया कि बिलकुल सच है। आसमानी, हवाई किताबों पर आधारित धर्म एक दिन लुप्त हो ही जाएगा और लोग हिन्दू, मुस्लिम सिख इसाई बनने की बजाये इंसान बना करेंगे। लोग धार्मिक कर्मकाण्ड और परमपराओं को निभाने से बेहतर समझेंगे मानवीय कर्मकांडों को निभाना, मानवता को निभाना।
लेकिन प्रश्न फिर उठा कि धर्म मानवता के विरुद्ध कैसे हो सकता है ? धर्म के प्रति लोगों की विरक्ति कैसे हो सकती है ? धर्म तो मानव के कल्याण के लिए लिए ही है, धर्म तो आपसी सद्भाव व सौहार्द के लिए ही है ?
तो उत्तर आया कि बिलकुल धर्म मानवता के कल्याण के लिए ही है, धर्म आपसी सद्भाव व सौहार्द के लिए ही है। लेकिन जिन धर्मों के लुप्त होने की बात कही जा रही है, वे सब किताबी धर्म हैं। वे सब आसमानी, हवाई किताबों पर आधारित धर्म हैं। यानि जो अव्यवहारिक हैं जो केवल प्रवचनों और उपदेशों में सीमित होकर रह गया, इंसानों के आचरण में नहीं उतर पाया। जो केवल कर्मकांडों, दिखावों, बाह्य आडम्बरों, कपड़ों, रंगों, तिलक, टोपी, जनेऊ में सिमट कर रह गया वही धर्म खतरे में है। और यही कारण है कि वे लोग चिल्ला रहे हैं धर्म खतरे में हैं।
वस्तुतः वे सभी धर्म हैं ही नहीं, बल्कि सम्प्रदाय विशेष के पूर्वजों द्वारा निर्धारित नियम कानून व परम्पराएं हैं जिन्हें अब कोई व्यव्हार में नहीं लाता। और जो भी चीजें अव्यवहारिक हो जातीं हैं, वे लुप्त हो जाती हैं।
क्या वास्तव में धर्म खतरे में हैं ?
समाज ने सम्प्रदायों को धर्म घोषित कर दिया, जिसके कारण यह कहा जाने लगा कि धर्म खतरे में हैं। वास्तव में धर्म कभी भी खतरे में नहीं हो सकता, क्योंकि जिस दिन धर्म खतरे में पड़ जाएगा, मानवों का ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ही आस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। जिस दिन गुर्त्वाकर्षण बल धर्म विमुख जाएगा, हम सब हवा में तैरते दिखाई देंगे और जल्द ही हवा भी पृथ्वी को छोड़ देगा। क्योंकि हवा भी पृथ्वी पर टिका है तो गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से ही और जो कुछ भी पृथ्वी पर टिका है वह गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से ही।
जिस दिन माँ अपने धर्म से विमुख हो जायेगी, जिस दिन पिता अपने धर्म से विमुख हो जाएगा, जिस दिन जल अपने धर्म से विमुख हो जाएगा, जिस दिन अग्नि अपने धर्म से विमुख हो जायेगी…..उस दिन सब कुछ ध्वस्त हो जाएगा, यह सृष्टि ही ध्वस्त हो जायेगी।
चूँकि सृष्टि का कोई भी पदार्थ, तत्व या प्राणी धर्म विहीन नहीं रह सकता, इसीलिए धर्म खतरे में है ही नहीं, बल्कि सम्प्रादयिकता खतरे में हैं। सम्प्रदायों को धर्म मानने की मुर्खता के कारण ही धर्म खतरे में दिखाई दे रहा है। और चूँकि धर्म की समझ नहीं किसी को, इसीलिए शोर मचाते फिर रहे हैं कि धर्म खतरे में हैं।
साम्प्रदायिकता खतरे में क्यों पड़ा ?
खतरे में इसलिए पड़ गया क्योंकि सम्प्रदाय अब हाईजेक कर लिए गये, सड़क छाप गुंडों मवालियों द्वारा। सम्प्रदाय हाईजेक कर लिए गये धूर्त, कपटी, देशद्रोही नेताओं और उनके चाटुकारों द्वारा। सम्प्रदाय हाईजेक कर लिए गये धूर्त, धंधेबाज धर्म के ठेकेदारों द्वारा। और खुद को धार्मिक कहने वाले लोग वास्तव में धर्म से दूर और साम्प्रदायिकता के नशे में धुत्त होने लगे। जब सारा समाज ही साम्प्रदायिकता के नशे में धुत्त हो जाये या प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से साम्प्रदायिकता का समर्थन करने लगे, तब जिन्हें धर्म की समझ है, वे खुद को उन मानसिक रोगियों के समूह से अलग करने लगते हैं। कुछ खुद् को नास्तिक कहने लगते हैं तो कोई नए पंथ की ओर रुख करने लगते हैं। कुछ लोग असमंजस में रह जाते हैं कि वे आस्तिक हैं या नास्तिक तो वे इस बहस से खुद को दूर कर लेते हैं और किसी अविष्कार में खो जाते हैं या फिर किसी अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं।
जो बेरोजगार हैं, जिनके पास कोई काम नहीं, जीवन का कोई उद्देश्य नहीं, वे धर्म रक्षक सेनाएं बनाते हैं और सड़कों पर आवारागर्दी, गुंडागर्दी करते घूमते हैं। धार्मिकों का समाज उन्हें देखकर खुश होता रहता है कि हमारी नालायक औलादें कम से कम कुछ कर तो रहीं हैं। देश की सेना के लायक न सही, सड़क छाप गुंडों मवालियों की सेना में शामिल हो गये यही बहुत है। कम से कम उनकी तस्वीरें तो मिडिया में छपती हैं, चाहे तोड़फोड़, मारपीट करते हुए ही छपे। कम से कम पुलिस उन्हें पकड़ कर जेल तो ले जाती है, इतनी इज्जत क्या कम है ? जेल में तो बड़े बड़े लोग जाते हैं, श्री कृष्ण तो जेल में ही पैदा हुए थे…हमारी नालायक औलादें कम से कम इस लायक तो हुए कि कृष्ण की जन्मभूमि में आते जाते रहते हैं ?
और चूँकि धार्मिक की समाज मानसिक् रूप से इतना नीचे गिर चुका है, तो स्वाभाविक है कि धर्म नाम के सम्प्रदायों से सभ्य लोगों की विरक्ति होगी ही। और इसी लिए धर्म नाम के सभी सम्प्रदाय खतरे में पड़ गये।
दूसरा कारण यह भी कि जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय हैं, उनमें अब इतनी भी क्षमता नहीं रह गयी कि वे नालायक, गुंडे बदमाश, आवारा, लुच्चे लफंगों को पैदा होने से रोक सकें। उनकी सारी धार्मिक शिक्षाएं बेअसर साबित हुईं और वे अपने समाज में इनकी बढ़ती जनसँख्या पर लगाम लगा पाने में पूरी तरह विफल हो गये। धार्मिकों का समाज भ्रष्टाचारियों को पैदा होने से रोक पाने में असफल हुआ, धार्मिकों का समाज धूर्त मक्कार नेताओं को उभरने से रोक पाने में असफल हुआ। और परिणाम यह हुआ कि धर्म का सुन्दर नाम लिए, साम्प्रदायिकता अब बोझ बन गयी। सभ्य लोग अब इस बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। सभ्य लोगों को समझ में आ गया कि ये धर्मों के बाजार जीवन का आधार नहीं है। न ही ये ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग है और न ही आत्मिक, आर्थिक और भौतिक उत्थान का मार्ग। ये केवल धार्मिक उन्मादियों, लुच्चों लफंगों की महफ़िल बनकर रह गयी है।
और लुच्चे लफंगों ने कभी भी किसी का भला नहीं किया, तो स्वाभाविक है धर्म का भी भला नहीं करेंगे और न ही समाज व देश का भला करेंगे।
साम्प्रदायिकता नहीं, परस्पर सहयोगिता है वास्तविक धर्म
पहली गलती तो यह की समाज ने कि साम्प्रदायिकता को धर्म समझ लिया। और दूसरी गलती यह की समाज ने कि सम्प्रादयिकता के नाम पर धार्मिक उन्माद, उत्पात को रोकने की बजाये, उन्हें हवा देते रहे, उन्हें सुलगाते रहे। अपने अपने समाज की कुरीतियों को दूर करने की बजाए, अपने समाज के शोषित पीड़ित वर्गों को न्याय व रोजगार दिलाने की बजाये मूर्ख बनाते रहे कि मंदिर जाओ तो भला होगा, मस्जिद जाओ तो भला होगा, धर्म परिवर्तन कर लो तो भला होगा….और ये मूर्ख बनाने का काम सदियों से चला आ रहा है और आज तक जारी है।
धर्मगुरुओं ने कभी भी लोगों को आत्मनिर्भर होने में सहयोग नहीं किया, केवल शोषण किया समाज का। राजनेताओं ने भी समाज को आत्मनिर्भर होने में सहयोग करने की बजाये केवल कुछ चुनिन्दा पूंजीपतियों को समृद्ध करने में सारा जोर लगा दिया। इसलिए धर्म नाम के सम्प्रदायों का महत्व अब समाप्त होने लगा।
धार्मिक विद्वानों ने भौतिक सुखों को माया बताया, इससे दूर रहना सिखाया, परिणाम यह हुआ कि समाज आत्मनिर्भर होने की बजाये भगवानों, बाबाओं और नेताओं पर निर्भर हो गया। और जो दूसरों पर निर्भर हो जाता है, वह अपाहिज हो जाता है।
यहाँ नीचे विडियो दे रहा हूँ, ध्यान से देखिये कि कैसे एक गाँव पानी के लिए सरकार भरोसे बैठा रहा और उनके खेत बंजर हो गये। लेकिन जब उन्हें अक्ल आ गयी कि दूसरों पर निर्भर रहने पर केवल मौत ही मिलने वाली है, तब उन्होंने आपसी सहयोग की योजना बनायी और आज वे जल के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं। हो सके तो इनसे प्रेरणा लें ताकि धर्म को सही रूप में समझ सकें।
~विशुद्ध चैतन्य
बुंदेलखंड के गांव ने दिखाई राह
बुंदेलखंड में लोग पानी के आकाल से लंबे अर्से से परेशान हैं. हजारों करोड़ के पैकेज दिए गए लेकिन जमीन पर फर्क नहीं पड़ा. फर्क पड़ा तो सिर्फ एक गांव में. एनडीएवी ने इस पूरे इलाके की हकीकत जानने की कोशिश की. यहां आज भी लोग पानी की किल्लत से दो चार हो रहे हैं.
NDTVKhabar.com द्वारा इस दिन पोस्ट की गई 16 जून 2018