आध्यात्मिकता, भौतिकता और दोगले धार्मिकों का समाज
कई प्रयोग करते हुए निरंतर बढ़ा चला जा रहा हूँ, लेकिन मेरा प्रयोग केवल मेरे लिए है। मेरे अपने ही आध्यात्मिक उत्थान के लिए। बिलकुल वैसे ही जैसे कोई ऋषि बियाबान में ध्यान करता रहता है, मैं समाज में रहकर ध्यान कर रहा हूँ। मेरा ध्यान उस रहस्य को जानने के लिए है, जिसे आज तक कोई धार्मिक, संत-महन्त नहीं समझ पाया।
सुनने में अजीब ही लगेगा आप सभी को, लेकिन ऐसा ही है।
अर्श से फर्श पर गिरने की मेरी आत्मकथा
पहले अपनी बुराइयाँ गिनवा देना चाहता हूँ ताकि आप लोग मुझे कोई पहुँचा हुआ ज्ञानी या संत ही न समझ लें। और जो कुछ भी आगे बताऊंगा, उसे आप किसी अन्धविश्वास से नहीं, बल्कि अपने विवेक से समझने का प्रयास करें।
उलझ गया था बचपन में ही सही और गलत के बीच। जिसे समाज गलत कहता है वही करते हुए उन्हें देखता था। धार्मिक ग्रंथो में जितनी भी नैतिक बातें लिखीं हैं, बचपन में जितनी भी नैतिक बातें सिखाई पढ़ाई गयीं, वे सब खोखले दिखाई देने लगे थे। चोरी करना पाप है लेकिन लोगों को चोरी करते देखता था। झूठ बोलना पाप है, लेकिन लोगों को झूठ बोलते हुए देखता था। दूसरों की स्त्रियों पर बुरी नजर मत डालो, लेकिन लोगों को स्त्रियों को घूरते देखता था। कभी किसी को धोखा मत दो, लेकिन लोगों को धोखा देते हुए देखता था। बेईमानी मत करो, लेकिन लोगों को बेईमानी करते हुए देखता था। धन के पीछे मत दौड़ो, लेकिन लोगों को धन के पीछे दौड़ते हुए देखता था…..ऐसी कई बातें थीं जो किताबों में कही गयीं, लेकिन व्यवहार में नहीं उतार पाया समाज।
मन उलझनों में घिरा रहता था कि सही क्या है। वह सही है जो किताबों में लिखा है या वह सही है जो व्याहारिक रूप से देखने मिल रहा है ?
धीरे धीरे समाज से ही कटने लगा और ऐसा काम मुझे मिल गया, जहाँ मैं अपने में खोया रह सकता था। उन दिनों जब मेरे हम उम्र अपने लिए जीवन साथी खोज रहे थे, मैं स्टूडियो से कई कई दिन बाहर निकलना तक पसंद नहीं करता था। मेरे लिए मशीनें ही सबकुछ थीं, इंसानों से दूरियाँ बढ़ती गयीं। बहुत कोशिश की लोगों से घुलने मिलने की लेकिन नहीं घुलमिल पाया। दोस्त बनते कुछ दिनों में वे भी दूरी बना लेते थे। रिश्तेदारों से कभी पटी ही नहीं और दूरियाँ बढ़ती चली गयीं। मेरे पिताजी अक्सर कहा करते थे कि जैसा तुम्हारा स्वभाव है, उसके हिसाब से तो आजीवन ही तुम्हें अकेले रहना पड़ेगा और शायद मरते समय कोई पानी भी पूछने नहीं आएगा।
समय बढ़ता गया और पिताजी की बातें सही होती गयीं और एक दिन मैं बिलकुल अकेला हो गया। जब अकेला हो गया तो मेरी दोस्त बनी शराब। बस नौकरी करना और शराब पीना यही मेरी दिनचर्या थी। धीरे धीरे नौकरी में भी मन लगना बंद हो गया क्योंकि उसमें कोई आनंद नहीं मिल रहा था। फिर नौकरी छूटी और मैं फुटपाथ पर आ गया। अब कोई दोस्त नहीं था, कोई रिश्तेदार नहीं था, कोई चाहने वाला नहीं था, कोई हमदर्द नहीं था और कोई बात करने तक को तैयार नहीं था।
समाज की नजर में यह मेरी दुर्गति थी, लेकिन मेरी अपनी नजर में यह मेरी नई अनजानी राह पर यात्रा का शुभअवसर था। मैं फुटपाथों पर भटकता रहता, कहीं भंडारा होता मिल जाता राह पर, तो भूख मिटा लेता और कई बार कई कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था। लेकिन मैं खुश था क्योंकि अब समाज के पाखंड और ढोंग से अलग जी रहा था, अपने अनुसार जी रहा था।
इस यात्रा में कई बार लोगों ने मुझे दुत्कारा, चोर कहा, मारने दौड़े क्योंकि मेरे कपड़े मैले कुचैले थे, कई कई दिनों तक नहीं नहा पाने की वजह से बिलकुल भिखारी सा दिखने लगा था। कभी मेरे आने भर से बड़े बड़े लोग खड़े हो जाया करते थे और अब स्थिति यह हो गयी थी कि लोग अपने मोहल्ले में घूमता देखकर दुत्कार देते थे। लेकिन ये सब मेरी आध्यात्मिक यात्रा के लिए अनिवार्य था। ईश्वर मुझे समझा रहा था कुछ, दिखा रहा था कुछ और वह जो भी सिखाता या दिखाता है व्यावहारिक होता है। ईश्वर मुझे जो समझाना चाहता था वह समझ कर भी मैं अनजान बना भटकता रहा।
हरिद्वार पहुँचा तो वहां भी मैं सहजता से नहीं रह पाया क्योंकि पाखंड और ढोंग वहां भी देखने मिला। साधू-संतों को पैसों के पीछे भागते देखा। लेकिन अब तक मैं बहुत कुछ समझ चुका था और बहुत कुछ अनुभव कर चुका था। अब मैंने तय कर लिया था कि बिलकुल नए रूप में ही जियूँगा मैं। इन कुछ वर्षों में इतना अपमानित और तिरस्कृत हो चुका था कि पहले मिले सभी आदर सत्कार, मान-सम्मान ध्वस्त हो गये थे। यह एक अच्छी घटना घटी और मैं समझ पाया कि मान-सम्मान कभी भी आपका अपना नहीं होता, वह लीज़ पर मिलता है शर्तों के साथ मिलता है और मालिक वही रहता है जो मान-सम्मान दे रहा है। वह जब चाहे आपसे मान-सम्मान छीन सकता है। इसलिए मान-सम्मान कमाने की दौड़ मुर्खता है। ऐसी चीज कमाने का कोई लाभ नहीं जो आपका अपना न हो, जो दूसरों के इशारों पर चलने के लिए विवश करता हो और आपकी अपनी मौलिकता छीनता हो।
अब जिस आश्रम में आया वहां भी वही स्थिति, हर कोई पैसों की चिंता में पड़ा हुआ है, हर कोई पैसों के पीछे भागता दिखाई दे रहा है। और मैं ऐसे आश्रम में निकम्मा बैठा हूँ, जो फूटी कौड़ी कमा कर नहीं दे रहा। इसीलिए यहाँ हर कोई मुझसे उखड़ा बैठा है। राजस्थान हरियाणा यात्रा के समय मुझे जो कुछ भी रूपये मुझे भेंट स्वरुप मिले, वह अब मेरे अपने ही खर्च उठाने के काम आ रहे हैं। क्योंकि मैंने अब आश्रम से भोजन लेना भी बंद कर दिया, सारा सामान खुद खरीदकर, खुद ही खाना पकाकर खा-पी रहा हूँ। क्योंकि मैं जिस रहस्य को समझने निकला हूँ वह तभी समझ में आएगा जब समाज अपने असली रूप में मुझसे व्यव्हार करेगा। और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे हमेशा ऐसा वातावरण मिलता रहा, जहाँ लोग बहुत ही जल्दी अपने वास्तविक रूप में आते चले गये। जो लोग शुरू में मुझे सम्मान देते, वही कुछ दिनों बात मुझे कोसने लगते या मुझसे हमेशा के लिए दूरी बना लेते। जो लोग मुझे हर समय सहयोग करने का दावा करते वही अकाउंट नम्बर लेकर गायब हो जाते। लेकिन ये सब मेरी आध्यात्मिक यात्रा के लिए सहयोगी हैं, इन्होने ऐसा करके मुझे कई महत्वपूर्ण व्यावहारिक ज्ञान दिए। मैं तो जेबकतरों को भी गुरु मानता हूँ क्योंकि वे आपको सजगता से रहना सिखाते हैं।
अब तक की कहानी पढ़कर आपको ऐसा ही लगा होगा कि मैं दुनिया का सबसे असफल व्यक्ति हूँ….लेकिन वास्तव में ऐसा बिलकुल नहीं है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने वह सब जाना, समझा व अनुभव किया जो मेरी आध्यात्मिक ज्ञान के लिए अनिवार्य थी।
निरंतर मिलती असफलताएं
मैंने कम्पनी शुरू की वह फ्लॉप हो गयी, मैं नौकरी करने में असफल रहा, मैं रिश्ते निभाने में असफल रहा, मैं दोस्ती निभाने में असफल रहा, मैं संगठन बनाने में असफल रहा, मैं हर उस काम में असफल रहा, जो सामाजिक लोगों के लिए सहज होता है। सामाजिक व भौतिक दृष्टि से देखा जाए तो मैं असफल व्यक्ति हूँ, लेकिन आध्यत्मिक दृष्टि से देखा जाये तो मैं सफल व्यक्ति हूँ।
एक व्यवहार कुशल व्यक्ति, या पर्सनेल्टी डेवलपमेंट एक्सपर्ट मुझे असफल कह सकता है और वह मुझे बता सकता है कि मैंने क्या क्या गलतियाँ की और मैं क्यों असफल हुआ। लेकिन जो काम मैं जानबूझकर कर रहा हूँ, और उसके जो भी परिणाम सामने आ रहे हैं, उससे मैं संतुष्ट हूँ तो मुझे सफलता के गुर सीखने की आवश्यकता नहीं किसी से। क्योंकि मुझे समाज की नजर में सफल नहीं होना, शर्तों पर आधारित उनका मान-सम्मान, प्रेम, अपनापन अब मुझे आकर्षित नहीं करते। मैं लीज़ पर मिलने वाले ऐसे मान-सम्मान, अपनापन और सफलताओं से उब गया हूँ। क्योंकि ये सब मुझे पहले ही मिल चुके थे और वह सब मैं खो भी चुका। लेकिन मैं खुश हूँ अब क्योंकि मैंने वह महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो ओशो को प्राप्त हुआ, जो बुध्द को प्राप्त हुआ, जो और कई महान लोगों को प्राप्त हुआ। मैं धन के पीछे दौड़ ही नहीं रहा था, मैं बंगला, कोठी, कार, छोकरी के पीछे दौड़ ही नहीं रहा था। मुझे तो वह जानना था जो आज तक धार्मिक लोग नहीं जान पाए केवल किताबों को रटते और ढोते चले जा रहे हैं।
समाज व धार्मिक लोग दोगले क्यों होते हैं ?
अब तक के अनुभवों व समाज से प्राप्त व्यावहारिक ज्ञान के कारण यह समझ में आ गया था कि समाज व धार्मिक लोग दोगले क्यों होते हैं ? क्यों वे जिसे गलत मानते हैं वही करते हैं ? क्यों वे अधर्मियों की जयजयकार करते हैं, क्यों उन्हें अपना आदर्श नेता चुनते हैं ?
वास्तव में समाज मानवों का वह समूह होता है, जिसमें सभी तरह के लोग रहते हैं। समाज में अच्छे लोग भी होते हैं और बुरे लोग भी होते हैं। किसी अनजान की सहायता करने वाले लोग भी होते हैं और अनजान को ठगने व लूटने वाले लोग भी होते हैं। अर्थात कोई भी समाज न तो पूर्ण रूप से सात्विक होता ही और न ही तामसिक होता है। न तो समाज पूर्ण रूप से अच्छा होता है और न ही बुरा होता है। क्योंकि समाज बनता ही प्राणियों के समूह से है, उसका अपना कोई आस्तित्व नहीं होता।
सामाजिक प्राणी मानव, समाज को विभिन्न नाम देता है। जैसे बाल्मीकि समाज, अग्रवाल समाज, आर्यसमाज, साधू-समाज, मुस्लिम समाज, हिन्दू समाज, सिक्ख समाज, ईसाई समाज और अब नए आ गए मोदी समाज, अम्बेडकर समाज, मायावती समाज, लालू-समाज……आदि इत्यादि।
सभी समाज का कोई आधार होता है, कोई आराध्य होता है कोई पुस्तक होती है। हर समाज उन पुस्तकों, उन आदर्शों को आधार मानकर जीता है। जब तक कोई अच्छा काम कर रहा है, तब तक लोग उसे अपने समाज से जुड़ा हुआ बताते हैं और जैसे ही कोई गलत करता मिल जाये, तो उसे भटका हुआ घोषित कर देते हैं या फिर उसे अपने समाज का हिस्सा मानते ही नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि समाज यह दिखाना चाहता है कि उसके समाज में कोई बुरा व्यक्ति होता ही नहीं, जो भी बुरे लोग होते हैं वे सब दूसरे समाज में होते हैं। और यहीं से शुरू हो जाता है इनका दोगलापन।
किसी धूर्त, बदमाश, अपराधी प्रवृति के व्यक्ति को यही समाज अपना नेता चुनता है, लेकिन फिर कहता है कि वे राजनैतिक लोग हैं उनका हमारे मजहब से कोई लेना देना नहीं। उनका नेता झूठ बोले, घोटाले करे, दुनिया भर की मक्कारियां करें, सौ बहाने खोज लेता है समाज उन्हें बचाने के लिए, लेकिन कहता है कि उनका हमारे धर्म या मजहब से कोई लेना देना नहीं क्योंकि वे राजनैतिक लोग हैं। कोई आतंकी पकड़ा जाये, धर्म के नाम पर भगवा या टोपी लगाकर उत्पात करते फिरें…लेकिन फिर खुद ही कहेंगे कि वे लोग भटक गये थे, या उन्होंने धार्मिक ग्रंथों को नहीं पढ़ा….जैसे कि जिसने धार्मिक ग्रंथो को पढ़ लिया वह सात्विक व नैतिक हो जाता हो। यदि यह कहा जाये कि फलाना अपराधी तो शास्त्रों को कंठस्थ किया हुआ है, रोज सुबह शाम धार्मिक ग्रन्थ पढता है, सारे धार्मिक कर्मकाण्ड करता है….तो कहेंगे कि उन्होंने समझा ही नहीं धार्मिक ग्रन्थ क्या कहते हैं।
ये सब इतने बचकाने बहाने होते हैं कि हंसी आने लगती है। जरा सोचिये जब धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर भी कोई सही राह पर नहीं आ रहा, तो इसका अर्थ तो यही है कि उन धार्मिक ग्रंथों में कोई दम नहीं है। वे कोई ईश्वरीय या आसमानी किताबें नहीं हैं, बल्कि एक साधारण किताब ही है जैसे कि देश का संविधान। संविधान और धार्मिक ग्रन्थ केवल कमजोरों और बेबसों पर ही थोपे जाते हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध, व राजनेताओं के प्रिय जनों पर ये सब लागू नहीं होते।
तो समाज दोगला हो गया क्योंकि वह अपने समाज को सुधारने, उसका उत्थान करने से बेहतर समझने लगा बुरे लोगों से अपना पल्ला झाड लेना। जब कोई अपराधी पकड़ा जाता है तब कोई यह नहीं कहता कि वह उस देश का नागरिक नहीं है, लेकिन धार्मिक लोग तुरंत उसे अपने समाज से अलग बता देंगे। फिर यह भी कहेंगे कि हमारी जनसँख्या बढ़ रही है….यानी दुनिया में जितने भी मजहब हैं, उनमें सभी शरीफ लोग ही हैं और शरीफों की ही जनसँख्या बढ़ रही है, उसमें कोई गलत नहीं है। अब सोचिये कि जब सारे धर्म व मजहब में अच्छे ही लोग हैं, तो ये बुरे लोग कहाँ से टपक रहे हैं ?
जब करोड़ों की आबादी वाले धार्मिकों का समाज दान-पुण्य, जकात आदि में श्रृद्धा रखता है, तो फिर इतने लोग भूख से बेहाल क्यों हैं ? इतने लोग चोरी करने, लूटमार करने के लिए विवश क्यों हैं ? क्यों किसान बेमौत मर रहा है, क्यों आदिवासी बेमौत मर रहे हैं ? क्यों कोई गरीब है और कोई अमीर है ?
कारण एक ही है धार्मिक दोगलापन। धर्म और आध्यात्म के नाम पर धन का त्याग करो, स्त्रियों से दूरी रखो, सारे सुख-सुविधाओं का त्याग करो….और फिर ढोंग करते फिरो त्यागी होने का। कुछ नमूने खड़े कर देता है समाज कि इन्हें देखो ये त्यागी लोग हैं, ये कपडे तक नहीं पहनते….उन्हें समाज अपना आदर्श मानता है लेकिन स्वयं उनकी तरह नंगा नहीं घूमता। आदर्श वह होता है जिसका अनुसरण किया जा सके, न कि फूलमाला डालकर उसकी जय जयकार करके खुद को धन्य समझे। वे बेचारे भी जयजयकार के लालच में, झूठे मान-सम्मान के लालच में कठपुतली बनकर जीते हैं लेकिन हैं तो वे भी इंसान ही। या तो वे मुर्दों की तरह जीना सीख लेते हैं या फिर बलात्कार या धोखाधड़ी के आरोप में धरे जाते हैं।
अब समाज को बुरा लगता है कि हमने इसको अपना आदर्श समझा और ये लड़की या पैसों के मोह में पड़ गया। यानि समाज आदर्श जिसे बनाता है उसे ऐसा नमूना बना देता है जो उस तरह से जिए, जिस तरह से समाज खुद नहीं जी पाता। उनकी आसमानी या हवाई किताबों में जो लिखा है, उसके अनुरूप किसी को चुन लेते हैं और सारी नैतिकता और सात्विकता की जिम्मेदारी उसपर थोप देते हैं। खुद चाहे समाज नैतिक न हो, खुद चाहे अपराधियों के पीछे खड़ा होता हो, खुद चाहे हेरा-फेरी और घोटालेबाजी में लिप्त हो, लेकिन दूसरों को नैतिकता और सात्विकता का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते।
आध्यात्मिकता और भौतिकता
भौतिकता विहीन आध्यात्मिकता केवल छलावा है। प्रत्येक मानव निर्वस्त्र रहकर, या लंगोट कमंडल डालकर जीने के लिए दुनिया में नहीं आता। ये सब थोपा हुआ आध्यात्मिकता है, वास्तविक् आध्यात्मिकता से कोसों दूर। वास्तविक आध्यात्मिकता केवल तभी प्राप्त हो सकती है, जब आप आर्थिक रूप से समृद्ध हों लेकिन समृद्धि आपके सर न चढ़े और दौलत की भूख बिमारी न बन जाए। जैसे शराबी को शराब की लत पड़ जाये तो फिर वह पतन की राह पकड़ लेता है, लेकिन शराब यदि सहजता व सीमा में रहकर लिया जाए तो यौवन व चुस्ती फुर्ती बनाये रखता है। जैसे कि विदेशों में शराब एक आम चलन है लेकिन वे लोग नालियों में पड़े नहीं मिलते। इसी प्रकार दौलत की लत पड़ जाये तो फिर बड़े बड़े घोटाले कर लेते हैं लोग, फिर कई लोगों की ह्त्या करने से भी संकोच नहीं करते….यानी नशा किसी भी चीज का हो, वह पतन ही करता है और इंसान को हैवान बना देता है।
लेकिन यदि भौतिकता और आध्यात्मिकता का संगम हो जाए, तब व्यक्ति व्यक्ति मध्यम मार्ग पर चलता है। तब वह स्वयं के लिए ही नहीं, बल्कि समाज व राष्ट्र के लिए भी हितकारी हो जाता है। भौतिकता और आध्यात्मिकता दो विपरीत ध्रुव नहीं, बल्कि दो प्राकृतिक सहयोगी यानि स्त्री और पुरुष की तरह एक दूसरे के पूरक हैं एक दूसरे के सहयोगी हैं। लेकिन जब तक समाज दोगलेपन से बाहर नहीं निकलेगा, जब तक समाज यह नहीं स्वीकार करेगा कि अच्छे और बुरे दोनों हमारे ही समाज के अंग हैं और जो बुरे हैं वे बुरे क्यों बने, उसके कारणों को दूर करके उन्हें भी अच्छा बनाने की जिम्मेदारी सामाजिक प्राणियों की ही है, तब तक समाज का उत्थान नहीं होगा। जब तक समाज यह नहीं समझेगा कि भौतिकता आध्यात्म में बाधक नहीं, बल्कि सहयोगी है, तब तक समाज दोगला ही रहेगा।
अपने अब तक की जीवन यात्रा में यह रहस्य जाना कि किताबी धार्मिकता इंसान का उत्थान नहीं कर सकतीं। जिन किताबों में भौतिकता को आध्यात्म में बाधक माना गया, वे सभी किताबें गलत हैं। केवल वे किताबें सहीं हैं, जो भौतिकता और आध्यात्मिकता को समान भाव से देखती हैं। यह ज्ञान यदि मुझे किताबें पढ़कर मिलता तो शायद मेरे किसी काम का न होता। मैं भी किताबी धार्मिकों की तरह किताबें दिखाता फिरता कि देखो हमारी किताब में कितनी अच्छी अच्छी बातें लिखीं हैं। भले उन अच्छी अच्छी बातों का उन्हीं का समाज पालन न करता हो, लेकिन वे खुश हैं कि उनकी धार्मिक किताब में अच्छी अच्छी बातें लिखीं हैं। यह मुझे बिलकुल वैसा ही लगता है जैसे किसी के घर भोजन ढंग का न बनता हो, लेकिन उनके किचन में भोजन स्वादिष्ट व पौष्टिक भोजन कैसे बनायें की किताबों की पूरी लाइब्रेरी बनी पड़ी हो।
मैंने पाया कि जो लोग भी त्यागी साधू-संतों के पास जाते हैं वे भी अपने अहंकार की तृप्ति के लिए ही जाते हैं कि देखो हमारा आदर्श बिलकुल भी पैसों के पीछे नहीं भागता। उसे जो भी खिला दो, चुपचाप खा लेता है, जो भी पहना दो चुपचाप पहन लेता है…बिलकुल गौ के सामान सीधा सादा है। मैंने पाया कि त्यागी साधू-संतों के पास भी लोग जाते हैं तो कुछ न कुछ भौतिक कामना लेकर। यदि उस त्यागी संत के आशीर्वाद से भक्त की मनोकामना पूरी हो गयी तो वह त्यागी संत महान हो जायेगा। यदि मनोकामना पूरी नहीं हुई तो वह ढोंगी और पाखंडी कहलायेगा…..वस्तुतः आधार भौतिक ही होता है साधू-संतों के पास पहुँचने का। लेकिन साधू-संत यदि उनसे भौतिक सहयोग मांग ले, तो तुरंत माथे पर बल पड़ जाते हैं, उसे भिखमंगा कहने तक से संकोच नहीं करते। यह भूल जाते हैं कि वे खुद मंदिर से लेकर दरगाहों तक, साधू-संतों से लेकर पीर फकीरों तक भिखारी बने ही घूमते हैं, कुछ न कुछ माँगते ही रहते हैं।
अपनी भौतिक असफलताओं से मैंने वह कीमती ज्ञान प्राप्त किया, जो मेरे लिए महत्वपूर्ण था। और यही कारण है कि मैं सामाजिक सम्बन्धों को बाकी आध्यत्मिक लोगों की तरह नहीं निभा पाता। क्योंकि जानता हूँ ये सब सम्बन्ध मेरे लिए नकली हैं, ये अधिक देर टिक नहीं पायेंगे मेरे साथ। फिर भी जो मिलता है उसका स्वागत करता हूँ और जो चला जाता है उसका शोक नहीं करता। मुझे किसी की मृत्यु की खबर भी अब प्रभावित नहीं करती, बल्कि बिलकुल ऐसा लगता है जैसे कोई साधारण सी घटना घटी हो।
~विशुद्ध चैतन्य