निराकार का भी होता है साकार स्वरूप

साकार की उपासना तो समझ में आती है मुझे। क्योंकि जो प्रत्यक्ष आपकी सहायता करता है उसकी उपासना या सम्मान स्वाभाविक है। जैसे कि सूर्य की उपासना, चन्द्र की उपासना, नदी, वृक्ष, पहाड़, खेतों की उपासना। ये सभी जीवन दायी हैं। कुछ लोग नेताओं, अभिनेताओं, क्रिकेटरों की उपासना करते हैं वह भी समझ में आता है क्योंकि वे उनकी तरह होना चाहते हैं न कि अपनी तरह। कुछ लोगों की दाल रोटी ही उनकी चापलूसी से चलती है इसलिए वे उनकी उपासना करते है, वह भी समझ में आता है लेकिन….
लेकिन निराकार की उपासना मेरी समझ में नहीं आती। विद्वान लोग कहते हैं कि निराकार ने ही सबको बनाया, इसलिए वह पूजनीय है। यदि यही आधार है पूजने का, तो फिर निराकार की उपासना करने की बजाय उसकी उपासना करनी चाहिए जिसने उस निराकार को बनाया।
विद्वानों का मानना है कि निराकार को किसी ने नहीं बनाया, वह खुद बना है। यदि ऐसा है तो यह मान्यता स्वतः ही खंडित हो जाती है कि ब्रह्माण्ड को इस सृष्टि को किसीने बनाया है। और जिसने बनाया है वह पूजनीय है।
जिसने बनाया है वह पूजनीय कैसे ?
एडिसन ने बल्ब बनाया लेकिन कोई उसे नहीं पूजता, जबकि हर घर को रौशनी उसी के अविष्कार से मिलती है। किसी ने साबुन बनाया तो उसका नाम भी नहीं पता होगा आज किसी को। किसी को नाम नहीं पता होगा, वाशिंग मशीन बनाने वाले का, सिलाई मशीन बनाने वाले का, ईयरबड्स बनाने वाले का….और न ही कोई पूजना जरुरी समझता है उनको। जिन्होंने आपके जीवन को सहज बनाया, जिन्होंने आपको अनाज उपलब्ध करवाया, उन लोगों को, किसानों को कोई नहीं पूजता। जिन मजदूरों ने आपके रहने के लिए मकान बनाया कभी उनको नहीं पूजा होगा आपने। लेकिन किसी काल्पनिक निराकार को पूजने निकल पड़े…क्यों ?
क्या पूजा करने का आधार केवल निर्माण करने वाला मात्र है ?
पूजा का वास्तविक अर्थ है कृतज्ञता व्यक्त करना, सम्मान प्रदर्शित करना, जहाँ भी जब भी सहयोग या सेवा की आवश्यकता हो, वहां बिना किसी शर्त के सेवा या सहयोग करना। यदि हम वृक्षों की उपासना करते हैं, तो जानकर करते हैं न कि मानकर। हम खेतों की उपासना करते हैं, हम नदियों की उपासना करते हैं, हम सूर्य की उपासना करते हैं तो जानकर करते हैं न कि मानकर।
हम जानते हैं कि वृक्षों से हमें बहुत से लाभ हैं यहाँ तक कि वर्षा व भूमिगत जल संरक्षण का एक प्रमुख कारक भी वृक्ष हैं।इसीलिए हम उसे पूजते हैं और चूँकि पूजते हैं, इसीलिए हम उसका संरक्षण भी करते हैं। जैसे कि आदिवासी वृक्षों को पूजते हैं तो वे अनावश्यक रूप से वृक्षों को नष्ट नहीं करते। आदिवासी जहाँ भी होते हैं, वहाँ वृक्ष व वन संरक्षित रहते हैं। लेकिन जैसे ही आदिवासियों को वहां से हटाया जाता है विकास के नाम पर। वृक्ष तो छोड़िये पूरा का पूरा जंगल ही गायब हो जाता है और खड़ा हो जाता है कंक्रीट का जंगल, जहर उगलते और भूमिगत जल तक दूषित करने वाले कारखाने और कारोबार।
हम जानते हैं कि नदियाँ हमारे लिए जीवन हैं, नदियों के कारण ही खेत लहलहाते हैं, शहर को पीने का पानी मिलता है। लेकिन जो नदियों को नहीं पूजते, वे नदियों में मूर्तियाँ व दुनिया भर की पूजन सामग्री डालकर नदियों को दूषित करते हैं। नदियों में शहर का सारा गंद उड़ेलते हैं….और आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि भारत में गंगा यमुना को पूजने वाले लोग सबसे अधिक रहते हैं। फिर भी हज़ारों वर्षों में आज तक धार्मिक लोग यह नहीं खोज पाए कि नदियों को दूषित होने से कैसे बचाया जाए। बस सरकार और भगवान् भरोसे बैठे रहते हैं अपनी बुद्धि नहीं लगाते। खुद कूड़ा करकट फेंक आयेंगे नदियों में और फिर सरकार को कोसेंगे।
हम जानते हैं कि सूर्य से हमे जीवन मिलता है, उर्जा मिलती है, त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ दूर होतीं हैं व अन्य कई लाभ मिलते हैं। इसीलिए हम सूर्य को पूजते हैं। लेकिन सूर्य को पूजने की विधि अलग है। सूर्य को पूजने के लिए सूर्योदय के समय सूर्य के सामने होना आवश्यक है ताकि सूर्य की शीतल किरणें शरीर को प्राप्त हों। लेकिन लोग सोकर उठते हैं दस ग्यारह बजे और मंदिर में जाकर पूजा निपटा आते हैं। मैं इसे पूजा नहीं ढोंग मानता हूँ। प्रकृति की पूजा केवल उसके सानिंध्य में ही संभव है और वही सही रूप है पूजा का। सूर्य की उपासना हमेशा सूर्य के स्वागत से होती है और शाम को विदाई से समाप्त होती है। यानि सुबह और शाम कम से कम आधा घंटा सूर्य के सामने शांत चित्त से बैठकर उसके किरणों से स्नान करना होता है।
क्या निराकार का आकार नहीं हो सकता ?
विद्वान लोग कहते हैं कि वेदों में कहा है, क़ुरान में कहा है, दुनिया के सभी आसमानी और हवाई किताबों में कहा गया है कि साकार को पूजना मूर्खता है, अन्धविश्वास है। लोगों का कहना है कि निराकार का कोई साकार रूप हो ही नहीं सकता कोई चित्र नहीं हो सकता, कोई प्रतिमा नहीं हो सकती, लेकिन मैं सहमत नहीं हूँ।
निराकार शक्ति को यदि समझाना हो, तो हमें चित्रों, प्रतिमाओं की आवश्यकता पड़ती है।निराकार ही नहीं, हमें उन सभी पदार्थो, शक्तियों व तत्वों को समझाने के लिए चित्रों, प्रतिमाओं की आवश्यकता पडती हैं जिन्हें सामान्य भाषा में समझाना कठिन होता है। जैसे गुरुत्वाकर्षण बल को समझाने के लिए हमें डायग्राम की आवश्यकता होती। ध्वनि को समझाने के लिए भी रेखाचित्रों की आवश्यकता पड़ती है यहाँ तक कि टीवी रेडियों व वाईफाई के सिग्नल से सम्बंधित सूचना देने या समझाने के लिए चित्रों व रेखाचित्रों की आवश्यकता होती है।
वाईफाई का सिग्नल कहाँ मिलेगा उसे जानना हो तो आपको उसका सांकेतिक चित्र देखना होता है। अपने मोबाइल में अपने देखा ही होगा वाईफाई का संकेत चिन्ह ?
होटल, स्टेशन व शहरों में भी कई शोरूम में आपको वाईफाई का सांकेतिक चिन्ह मिलेगा जहाँ आपको फ्री वाईफाई की सुविधा मिलती हो।
क्या वाईफाई सिग्नल साकार है ? क्या आप यह कहेंगे कि जो साकार नहीं उसका चित्र भी नहीं बन सकता ?
जब तक कंप्यूटर नहीं आया था, तब तक हम एनालॉग टेप काटकर एडिटिंग किया करते थे। तब तक साउंड देखने की नहीं, केवल सुनने की चीज हुआ करती थी। लेकिन जब डिजिटल एडिटिंग सिस्टम आ गया, तब हमने जाना कि साउंड को देखा भी जा सकता है। लेकिन तब तक क्या साउंड का कोई रेखा चित्र नहीं था ?
था… क्योंकि तब भी साउंड की पढ़ाई होती थी लोग साउंड इंजीनियर बनते थे तो यूँ ही हवा में नहीं पढ़ाई जाती थी साउंड की थेओरी। रेखचित्र होता था उस रेखा चित्र से समझाया जाता थी कि साउंड कैसे ट्रेवेल करता है, कैसे एको होता है, कैसे रिवरब काम करता है….आदि इत्यादि।
अब हवा किस क्षेत्र में कैसे बह रही है वह भी समझाना हो तो रेखाचित्र चाहिए होता है।अब क्या आप यह कहेंगे की न तो साउंड साकार है और न ही हवा साकार है, इसलिए उसका रेखाचित्र भी नहीं बन सकता ??
निराकार शक्ति को समझाने का माध्यम है देवी-देवताओं की प्रतिमा
तो देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी इसी प्रकार उस निराकार शक्ति को समझाने का एक माध्यम है। इन प्रतिमाओं का उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग अदृश्य शक्तियों को समझें, उन्हें आत्मसात करें और अध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में उन्नत हों। उनका उद्देश्य नहीं था कि लोग ऊपर उठने की बजाये उन मूर्तियों को ही गले से लटकाकर घुमने लगें। प्रतिमा बनाने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा कि लोग समझने में मेहनत नहीं करेंगे, बल्कि उन प्रतिमाओं से ही चिपक कर बैठ जायेंगे। यह बिलकुल वैसी ही बात हो गयी, जैसे कोई वाईफाई का साइन किसी दुकान पर देख वाईफाई सिग्नल का सदुपयोग करने की बजाय उसकी आरती उतारना शुरू कर दे या फिर उसे भोग लगाने बैठ जाये।
सारांश यह कि न साकार उपासक सही हैं और न ही निराकार उपासक। क्योंकि दोनों काम एक ही कर रहे हैं और ऊपर नहीं उठ पा रहे। दोनों ही पूजा पाठ का मतलब यह समझ बैठे कि नमाज पढो, क़ुरान गीता पढो, मंदिर मस्जिद जाओ, देवी देवताओं को भोग लगाओ, रिश्वत चढाओ और फिर जो मन चाहे वह कुकर्म करो। कई लोग हैं जो भूमाफिया का काम करते हैं और कई लोग हैं जो बड़े बड़े घोटालेबाजों का साथ देते हैं। उन्हें देखिये वे बड़े ही धार्मिक दिखाई देंगे। रोजा रखेंगे, नवरात्रे का व्रत रखेंगे, हर तरह के पूजा पाठ में शामिल होंगे, लेकिन दूसरों का धन, जमीन हडपने का अपना धंधा जारी रखेंगे। तो ऐसे ही साकार निराकार उपासकों से भरा पड़ा है विश्व और यही कारण है कि धूर्त मक्कार नेता राज करते हैं ढोंग पाखंड से भरे हुए साकार निराकार उपासकों पर।
~विशुद्ध चैतन्य
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