साधू संत और कलयुग
अक्सर देखता हूँ कि आध्यात्म और धर्म के नाम पर समाज दोहरी मानसिकता रखता है । जब भी आध्यात्म या धार्मिकता की बात आती है, तब समाज का व्यव्हार बिलकुल अलग होता है और जब विज्ञान व्यवहार की बात आती है तो बिलकुल अलग ।
तो इस पोस्ट का मूल विषय है; “साधू संत और कलयुग” । जो कुछ भी मैं कहना या समझाना चाहता हूँ इस पोस्ट के माध्यम से, वह सीधे ही शुरू कर दूं तो समझ में नहीं आयेगा आप लोगों के । इसलिए आरम्भ करता हूँ दर्पण से यानि आइना दिखाने से और उसके बाद अपने मूल विषय पर आता हूँ । इस बीच कई बार आपको ऐसा भी लग सकता है कि मैं विषय से भटक रहा हूँ, लेकिन वह केवल आपका भ्रम होगा । क्योंकि यह लेख घुमावदार ही रखूँगा ताकि आपको भूल भुलैया का आनंद भी प्राप्त हो ।
धार्मिकों का दोगलापन
हर धार्मिक व्यक्ति खुद तो सारे सुख भोगना चाहता है और साधू-संतों को त्याग का पाठ पढाता है । धार्मिकता के नाम पर आसमानी या दैवीय किताबों पर चलने की बात करता है, लेकिन साथ हमेशा झूठे, मक्कार, बेईमान नेताओं का देता है । टोपी, तिलक जनेऊ को धर्म मानता है और रिश्वतखोरी, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार का समर्थन करता है । धार्मिक व्यक्ति समर्थन करता है धार्मिक उन्मादों का, धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों का, जातीय दंगे भड़काने वालों का, धर्म व जाति के नाम पर ज़हर उगलने वाले नेताओं और धर्मों के ठेकेदारों का । फिर यह भी कहता है कि हमारा मजहब या धर्म यह सब नहीं सिखाता, हमारा मजहब या धर्म तो केवल शांति और भाईचारे का पाठ पढ़ाता है । फिर कहता है;
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
लेकिन दूसरों की टांग खींचने में, दूसरों को धक्का देकर आगे निकलने गर्व का अनुभव करता है । धर्म के नाम पर इतना दोगलापन देखने को मिलता है कि इंसान को धार्मिकता से ही चिढ़ हो जाती है और वह नास्तिक हो जाने में ही भलाई समझता है । क्योंकि नास्तिकता में कर्मकांडों और ढोंग आडम्बरों में समय बर्बाद नहीं करना होता । आप जैसे हैं वैसे ही सही हैं और मैं जैसा हूँ वैसा ही सही है वाला सिद्धांत चलता है नास्तिकता में । लेकिन क्या धार्मिकता और आध्यात्म इतना जटिल है कि इंसान को दोगला होकर जीना पड़े ?
यदि कोई किसी मजहब या धर्म का व्यक्ति भला काम करे तो उस मजहब, जाति या धर्म का समाज कहने लगता है कि यही हमारे मजहब या धर्म की शिक्षा है । लेकिन वहीँ जब कोई हत्या, बलात्कार या आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जाता है तो उसे अपने सम्प्रदाय का ही मानने से इनकार कर देते हैं । चोरी बेईमानी लगभग हर व्यापारी करता है, हर नागरिक करता है । कोई कम तो कोई अधिक…लेकिन हर कोई खुद को धार्मिक भी मानता है और बहुत ही अधिक धार्मिक कर्मकांड भी निभाता है ।
धर्म और विज्ञान
धर्म को नास्तिक व वैज्ञानिक सोच के लोग विज्ञान मानने को तैयार नहीं हैं । स्वाभाविक ही है कि धार्मिकता के नाम पर इतना पाखंड, ढोंग और दोगलापन फैला हुआ है, कि धर्म में कहीं विज्ञान दिखाई ही नहीं देता । धर्म के नाम पर ठग, लूट, यौनाचार ही दिखाई देता है । हर साधू संन्यासी लम्पट दिखाई देता है, हर पंडित-पुरोहित ठग दिखाई देता है । हर धार्मिक स्त्रियों का जिस्म नोचने के लिए बेताब दिखाई देता है….
लेकिन यदि मैं निष्पक्षता से देखूं, तो वैज्ञानिक सोच व नास्तिकों के समाज में भी यही सब है…कुछ भी अलग नहीं । वहां नारी स्वतंत्रता के नाम पर स्त्रियों को नंगा किया जाता है, उन्हें सिखाया जाता है कि तुम स्वतंत्र हो इसलिए तुम्हारा अधिकार है कि कम से कम कपडे पहनो, हो सके तो नंगी घुमा करो । विज्ञापन, फिल्म में नारी स्वतंत्रता के नाम पर स्त्रियों का जिस्म ही प्रदर्शित क्या जाता है न कि उनकी विद्वता या कौशल । लेकिन अजंता एलोरा, खजुराहो की प्रतिमाओं से आपत्ति है, ओशो का प्रवचन ‘सम्भोग से समाधि’ पर आपत्ति है ।
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अभी हाल ही में खबर आई कि एक गर्ल्स होस्टल में बालिकाओं से देह व्यापार करवाया जाता था । स्वाभाविक है कि वह होस्टल पढ़े लिखे वैज्ञानिक सोच वालों का ही रहा होगा ।
देखा जाए तो ऐसा कौन सा क्षेत्र बचा है जहाँ ठगी न होती हो, धोखाधड़ी न होती हो, स्त्रियों का शोषण न होता हो, बलात्कार न होते हों….क्या आपकी नजर में है ऐसा कोई क्षेत्र ?
डॉक्टर और अस्पताल तक नहीं बचे ठगी और लूट के धंधे में उतरने से । नेता हों या बाबा, सभी लूट-खसोट में अपना हाथ आजमा रहे हैं । यानि केवल क्षेत्र का ही अंतर है, बाकि मूलभूत आवश्यकताएं, शोषण, कामुकता, धनलोलुपता में कोई अंतर नहीं है । लेकिन हमेशा निशाने पर आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र ही रहते हैं कि वहां शोषण हैं, ठगी है, लूट है, ढोंगी हैं, पाखंडी हैं…मानो बाकी सारा समाज, सारे क्षेत्र निष्कलंक हैं, पावन हैं, पवित्र हैं ।
धार्मिकता या आध्यात्मिकता का अर्थ यह बना दिया गया कि जिन आदर्शों को हम नहीं निभा सकते, जिन्हें हम अपने व्यवहार में नहीं ला सकते, वह वे लोग निभायेंगे जो खुद को आध्यत्मिक या धार्मिक कहेगा । आध्यात्मिक या धार्मिक होना आज प्रोफेशन हो गया है और जो आध्यात्मिक है धार्मिक है वह अपनी मौलिक आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर सकता झूठे ब्रह्मचर्य के नाम पर । फिर कहते हैं कि आध्यात्म या धर्म ने समाज को दिया क्या है ? जो कुछ भी दिया है विज्ञानं ने ।
वास्तव में आध्यात्म या धर्म कभी भी विज्ञान से अलग रहा ही नहीं, इनका आधार ही विज्ञान है और उस विज्ञान का नाम है मनोविज्ञान ।
और नास्तिक लोग हैं कि मानने को तैयार ही नहीं कि धर्म में भी विज्ञान है ।
धर्म है मनोविज्ञान
मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य के दिमाग मे 24 घण्टे हलचल रहती है। दिमाग किसी न किसी काम मे, सोच मे या किसी सपने को बुनने मे लगा रहता है । इन सब चीजों के बीच हमारे दिमाग मे अशांति पैदा होती है। ओर यह अशांति झगड़े की वजह बनती है। और आध्यात्म, धर्म मनुष्य के मन को शांत करने, उन्हें नई उर्जा प्रदान करने का काम करता है । ये ब्रह्मचर्य, कर्मकाण्ड, पूजा पाठ, ध्यान तप आदि सब मनोविज्ञान के ही अंग हैं । यही कारण है कि भारत में मनोवैज्ञानिकों के पास कम ही लोग जाते हैं, जबकि विदेशों में मनोवैज्ञानिकों के पास मरीजों की लाइन लगी रहती है । भारत में मनोवैज्ञानिक यानि पागलों का डॉक्टर और कोई पागलों के डॉक्टर के पास तभी जाता है, जब वास्तव में वह पागल हो जाता है या उसका कोई रिश्तेदार पागल हो जाता है । वरना तो लोगों को पता ही नहीं होता कि वह किसी मनोरोग से पीड़ित है ।
तो धर्म मानव की उस सबसे बड़ी आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिसे हम मनोविज्ञान कहते हैं । लेकिन जैसा कि हर क्षेत्र में धूर्त होते हैं, ठग होते हैं, ठीक वैसे ही इस क्षेत्र में भी होते हैं और बाकी सभी क्षेत्रों से अधिक होते हैं । धर्म ने मानव को जो दिया है, वह भौतिक विज्ञान नहीं दे सकता । आज विदेशों में भी आध्यात्मिक प्रयोग बहुत हो रहे हैं, ध्यान किये जा रहे हैं, त्राटक किये जा रहे हैं ।
तो समाज भौतिक विज्ञानं और मनोविज्ञान को एक करने पर तुला हुआ है । कंप्यूटर, रोकेट, हवाई जहाज, फेसबुक, ट्विटर आदि सब भौतिक विज्ञान के आविष्कार हैं और मनोविज्ञान से आप यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह भी वही करे जो भौतिक विज्ञान करता है । एक मनोवैज्ञानिक को आप मोटर डिजाइन करने का चेलेंज देंगे तो गलत वह मनोवैज्ञनिक नहीं आप हो जायेंगे ।
साधू-संत और कलयुग
सतयुग के साधू-संत बहुत सरल हुआ करते थे, क्योंकि तब का समाज सरल था । कलयुग के साधू-संत जटिल होते हैं क्योंकि समाज जटिल हो गया है । तब साधू-संत का अर्थ होता था केवल स्वयं पर केन्द्रित हो जाना, अपने ही भीतर समा जाना और दुनिया से कोई सम्बन्ध न रखना । लेकिन आधुनिक युग में साधू-संत होना पाखंड माना जाता है, ढोंग माना जाता है यदि वह स्वयं में केन्द्रित हो जाये और समाज से कोई समबन्ध न रखे । समाज उसे बोझ समझने लगता है और उसकी स्थिति बिलकुल ऐसी हो जाती है कि उसे पानी तक कोई पिलाने को तैयार नहीं होता ।
समाज किसी साधू संत का सम्मान तभी करेगा, जब उससे उससे कोई भौतिक लाभ प्राप्त होगा । यानी समाज एक गिलास पानी भी किसी साधू संत को पिलाएगा तो उसकी कीमत वसूलने से नहीं चूकेगा । तब किसी साधू-संत को कुछ संग्रह करने की आवश्यकता नहीं होती थी । उसे तो बस ध्यान करना और भूख लगे तो गाँव में किसी भी घर से मांग कर भूख शांत कर लेना होता था । कोई उसे दुतकारता नहीं था बल्कि सम्मान से भोजन करवाता था । कोई उससे नहीं कहता था कि भाई हट्टे कटते हो खुद कमा कर क्यों नहीं खा लेते । कोई उसे भिखारी, मुफ्तखोर नहीं कहता था । कोई उसे ताने नहीं मारता था कि कहीं काम धंधा नहीं मिला तो साधू बनकर घुमने लगे । क्योंकि तब पाखंड नहीं था ढोंग नहीं था और लोग इतने बुद्धिमान भी नहीं थे कि ढोंग कर सकें पाखण्ड कर सकें । आज तो हर क्षेत्र में ढोंगी पाखंडी घुसे पड़े हैं…यहाँ तक कि समाज व देश सेवा के नाम पर धूर्त पाखंडी नेता और मंत्री बने बैठे हैं ।
तो कलयुगी साधू-सन्यासियों का व्यावहारिक होना अनिवार्य हो गया । अब साधू संत अधिक समय तक दूसरों पर निर्भर नहीं सकता अपने भोजन पानी के लिए । अब साधू -संत को आत्मनिर्भर होना अनिवार्य है, अब साधू संतों का केवल ब्राह्मण होना ही काफी नहीं है, उसे प्राचीन कालीन ऋषियों की तरह क्षत्रिय भी होना पड़ेगा और वैश्य भी । यदि आज कोई आध्यात्मिक व्यक्ति या साधू-संन्यासी दो वक्त की रोटी खुद नहीं कमा पायेगा, तो उसे कोई आध्यात्मिक भी नहीं मानेगा । वैसे भी आध्यात्म व्यक्ति को परजीवी नहीं, आत्मनिर्भर बनाता है ।
ओशो भी पहले जब निकले थे लोगों को जगाने तब उन्हें भी ताने मारे गये कि खुद तो कुछ बन नहीं पाए, अच्छी खासी नौकरी कर रहे थे प्रोफेसर की वह भी छोड़ दी । खुद कुछ कमा नही सकते हमें अमीर होने के नुस्खा बताने आ गये ?? जाओ पहले खुद तो अपने लिए दो वक्त की रोटी कमा लो फिर आना हमें कुछ ज्ञान देने । और अंत में ओशो को यह समझ में आ गया कि भूखों को आध्यात्म नहीं सिखाया जा सकता क्योंकि भूखों का आध्यात्म रोटी है और कुछ नहीं । इसीलिए उन्होंने तय कर लिया कि अब भूखे नंगों पर अपना समय व्यर्थ नहीं करना है । और उसके बाद उन्होंने जो उड़ान भरी तो दुनिया के सबसे लक्ज़री बाबा कहलाने लगे ।
लोग रामदेव को गाली देते हैं कि वह साधू नहीं बनिया है….लेकिन रामदेव भी गलत नहीं है । उसे बनिया बनाया इसी समाज ने । उसे इसी समाज ने सिखाया कि आपका योग हम तभी सीखेंगे जब आप करोड़पति साधू बनोगे । वरना तो कितने गरीब योग टीचर भटक रहे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से मिलती है । तो लोग योग भी सीखेंगे तो बाबा करोपति होना चाहिए ।
अब करोड़पति बनने के लिए इमानदारी के रास्ते से तो जाया नहीं जा सकता । क्योंकि इस राह में सामना बेईमान, धूर्त, मक्कार नेताओं से ही नहीं, उन नेताओं को वोट देकर जिताने वाली मक्कार जनता से भी होगा । और धूर्तों मक्कारों से आप इमानदारी के हथियार से नहीं जीत सकते, उनसे जीतने के लिए बेईमान, मक्कार होना अनिवार्य है ।
तो हम सतयुग या द्वापर युग में नहीं, कलयुग में हैं और यहाँ नियम कानून और नैतिकता कलयुगी ही चलेगी । आज सतयुग या द्वापर युग के सिक्के नहीं, बल्कि वर्तमान सरकार द्वारा प्रमाणित करेंसी ही चलेगी ।
मेरा अनुभव
विभिन्न प्रयोगों व अनुभवों से गुजरता हुआ मैं निरंतर बढ़ता चला जा रहा हूँ । मैंने आज तक स्वयं को समाज के सामने रहस्यमय बनाकर रखा । आज तक लोग यह नहीं समझ पाए कि मैं वास्तव में किस प्रकार का संन्यासी हूँ । अधिकांश को मैं ढोंगी पाखंडी दिखाई देता हूँ, बहुत से लोगों को मैं धूर्त, ठग, मुफ्तखोर दिखाई देता हूँ । लेकिन मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ वह मेरे प्रयोग के साथ साथ समाज को उसके वास्तविक उस रूप में समझने की चेष्टा होती है, जिसे समाज अपने मास्क के भीतर छुपाकर रखता है । मैं समाज के उस वास्तविक रूप को देखना चाहता हूँ, जिसे समाज धार्मिकता, पूजा-पाठ, व्रत उपवास की नौटंकी व शराफत के मुखौटे के पीछे छुपाकर रखता है । और अब तक के अनुभवों से यही निष्कर्ष निकला है कि ओशो भी ठीक थे और रामदेव भी ठीक, गलत हैं वे लोग जो भोजन-भजन शयन को आध्यात्म मानकर जी रहे हैं । जो अपने अपने आश्रमों में केवल अपने लिए जी रहे हैं ।
और मैं अपने लिए नहीं जी रहा । मैं जी रहा हूँ समाज को जागृत करने के लिए । कमाने के बहुत से रास्ते हैं मेरे, लेकिन मैंने खुद बंद किये वे रास्ते, ताकि मैं नया कोई मार्ग खोज सकूं । मैं दुनिया में पैसा कमाने नहीं आया था और न ही आया था मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धांत पर जीने । लेकिन मैं जिन मार्गों से गुजरा हूँ, उन मार्गों पर अकेला ही चलना पड़ा । कुछ लोग साथ चले दो कदम और फिर ठहर गये…क्योंकि मैं जिस राह पर चल रहा हूँ उसका कोई मंजिल नहीं पता । नहीं पता कि अंत में कुछ मिलेगा भी या नहीं…क्योंकि मैं कुछ पाने के लिए चल ही नहीं रहा हूँ । हाँ समय के अनुसार अपने आपको तकनीकी रूप से अपडेट अवश्य करता चलूँगा लेकिन धन मेरी कमजोरी नहीं है । मैं धन के पीछे नहीं भागूँगा ।
यदि धनाभाव में मेरे कार्य में बाधा पड़ती है, उसके लिए भी मैं न तो किसी और दोषी ठहरा सकता हूँ और नहीं स्वयं को । क्योंकि मार्ग ही ऐसा है, कुछ पता ही नहीं कि आगे क्या होना है…तो चिंता किस बात की ? चिंता तो तब होनी चाहिए जब हम कुछ पाने के लिए दौड़ रहे हों या किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में हों ।
मैं किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में भी नहीं हूँ क्योंकि प्रतिस्पर्धा भी एक ही पथ पर चलने वाले, एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लायालित प्रतिस्पर्धियों से ही होता है…मेरा तो मार्ग ही यूनिक है और अकेला ही हूँ । कुछ लोग साथ जुड़ते हैं दो कदम चलते हैं और फिर पीछे हट जाते हैं क्योंकि उनको कोई और गुरु मिल जाता है । बस यूँ ही लोग मिलते हैं बिछड़ते हैं और मैं आगे बढ़ता चला जाता हूँ…..
मेरी गरीबी, मेरी बेरोजगारी…से आप लोग परेशां न हुआ करें, ये सब मेरी खुद की चुनी हुईं हैं…मैं अपनी कमजोरियां जानता हूँ लेकिन अभी मैं पैसे कमाने की होड़ में नहीं हूँ क्योंकि अभी मेरा प्रयोग पूरा नही हुआ है । हाँ कभी उतरा पैसे कमाने की रेस में, तब शायद रोकना मुश्किल हो जाए ।
~विशुद्ध चैतन्य