समाज में सर्वाधिक सम्मान उनका होता है जो ऐश्वर्यवान हो
“गुरु जी आखिर हम इन्सानों की जिंदगी का मक़सद किया है ?
हर धर्म की अपनी ही ढपली है । तमाम धर्म की बुनयाद डर और लालच पर रखी गई है। जो समझ से परे है।
डर “” नर्क,दोज़ख़, लालच “”” अप्सरा, हूर, वह भी वर्जिन,श़राब,कबाब…”
मेर एक मित्र इरफान ने यह प्रश्न पूछा था मुझसे ।
यदि हम ध्यान से समाज को देखें, प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्याओं पर नजर डालें तो सभी के जीवन का एक ही मकसद होता है और वह है सुख पाना । सुख और ऐश्वर्य का बहुत गहरा रिश्ता है । ऐश्वर्य यानि वह स्थिति जहाँ वह जो चाहे कर सके, जो चाहे पा सके । जहाँ वह किसी का गुलाम नहीं रह जाता, जहाँ उसे कोई अभाव नहीं रह जाता । ऐश्वर्य का अंग्रेजी में अर्थ होता है, “prosperity, wealth” । ऐश्वर्य से ही सम्पूर्ण सृष्टि के रचियेता, संचालक, व विनाशक को ईश्वर कहने लगे लोग क्योंकि सभी की यही धारणा है की वह इतना शक्तिशाली है तो अवश्य ही वह ऐश्वर्य भी भोग रहा होगा । भारतीयों ने तीन शक्तियों यानि ब्रह्मा (रचयिता) विष्णु (संरक्षक) महेश (विनाशक) को त्रिदेव कहा और तीनो को एक नाम दिया ईश्वर । अंग्रेजी में इन्हीं तीन शक्तियों को नाम मिला G =Generator + O = Operator + D = Destroyer =GOD.
तो लोग ऐश्वर्य की खोज में हूँ न कहकर ईश्वर की खोज में हूँ कहने लगे क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा कहने से वे धार्मिक कहलायेंगे लोग सम्मान की नजर से देखेंगे ।
तो समाज में उनका सम्मान सर्वाधिक होता है जो ऐश्वर्यवान हो । आप अपने आसपास नजर डालिए, हर कोई ऐश्वर्यवान की न केवल प्रशंसा करता है, बल्कि उसके कई गुनाहों को माफ़ भी कर देता है ।
ईश्वर ने हम सभी को ऐश्वर्यवान ही बनाकर भेजा था लेकिन कुछ लोगों ने भूमि, जल वायु, खनिजों और यहाँ तक कि वनों पर भी अधिकार कर लिया, तो ऐश्वर्य से बाकी लोग वंचित होने लगे । जो आर्थिक, सामरिक व बाहुबल से समृद्ध थे वे स्वयं को सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी समझने लगे और बाकियों को दास । इनसे खेत छीन लिए गये और नौकरियाँ पकड़ा दी गयीं । पहले वे अपनी मर्जी से खेतों में जाते थे, काम करते थे, अब मालिकों ने समय तय कर दी… वे तय करते हैं की कितने बजे उठना है और काम पर जाना है और कितनी देर तक काम करना है ।
ऐसे में हर किसी के मन में होता है कि काश हम भी अपने मालिकों की तरह ऐश्वर्यवान होते ! बस इसी से उपजा डर और लालच पर टिका धार्मिक ढाँचा । इसकी अच्छाइयाँ यह है की यह आपको एक विश्वास दिलाता है जीते जी जो नहीं मिला वह मरने के बाद मिल जाएगा.. बस कुछ कर्मकांड करने होंगे, रोज मंदिर या मस्जिद जाने होंगे, कुछ भला काम करना होगा… आदि इत्यादि । तो धर्म समाज को न केवल आपस में जोड़ता है, बल्कि आपसी सहयोगिता भी बढाता है । लेकिन इसमें भी कुछ ठेकेदार खड़े हो गये क्योंकि जहाँ भी ऐश्वर्य होगा, धन होगा, सुख होगा, वहाँ परजीवी पनप ही जाते हैं । तो इन परजीवियों धर्म के नाम पर दड़बा बना लिया अपना अपना । यदि आप माँसाहारी हैं तो आप धर्मपरिवर्तन कर के दूसरे दड़बे में चले जाइए…वहां का भगवान् माँसाहारियों को नरक पर नहीं भेजता न ही कोई पाप लगाता है । अगर आपको मारकाट करने का शौक है तो उसके लिए अलग धार्मिक दड़बा है और आप यदि शांति प्रिय हैं तो अलग धार्मिक दड़बा मिल जाएगा । न तो इन दडबों के ठेकेदार आपका कोई भला करेंगे और न ही इन दडबों का ईश्वर.. क्योंकि सभी दड़बे बैठे होते हैं सरकार और भगवान् भरोसे । लेकिन यह भ्रम फैलाते रहते हैं की हमारे दडबों में आ जाओ तो ऐश्वर्यवान बन जाओगे ।
और इसी ऐश्वर्यवान होने की प्रबल महत्वाकांक्षाओं ने स्वर्ग, नरक, जन्नत दोजख, अप्सरा, हूरें…आदि इजाद कर दीं । और इसी लिए सभी की अपनी अपनी ढपली है और अपना अपना राग है । आप अपना विवेक का प्रयोग करें और देखें कि हर दड़बे में शोषित और पीड़ित लोग मिल जायेंगे.. न तो उस दड़बे का ईश्वर उनका भला कर पाता है और न ही उस दड़बे का मालिक या ठेकेदार । फिर भी लोग दडबों में दुबके रहना पसंद करते हैं ।
जिस दिन भी मानव समाज आपस में सहयोगी होने की भावना से उठ खड़ा होगा, जिस दिन भी मानव समाज पाने के लिए नहीं कुछ देने के लिए अपने हाथ बढ़ाना सीख लेगा, उस दिन मानव स्वतः ही समझ जायेगा की दुनिया में आने का उसका मकसद क्या था । जब तक वह हाथ फैलाए बैठा है, जब तक वह अल्लाह ईश्वर, सरकार से माँगता फिर रहा है, तबतक न तो उसे धर्म समझ में आएगा, न ही खुदा समझ में आएगा और न ही खुद को समझ पायेगा ।
~विशुद्ध चैतन्य