मैं मूर्ती पूजक नहीं हूँ
मैं शायद ऐसा व्यक्ति हूँ जो कभी किसी की समझ में नहीं सकता क्योंकि मैं अंधों की उस दुनिया में रहता हूँ जिसके लिए हाथी को समग्रता से देख व समझ पाना लगभग असंभव होता है । कोई हाथी को उसके पैर से जानता है और कोई उसकी पूँछ से तो कोई उसकी सूंड या कान से । पूरा हाथी उनकी समझ में कभी नहीं आ सकता ।
इसी प्रकार मैं भी शायद कभी नहीं समझ में आऊंगा किसी के । मेरे आश्रम के लोगों का मानना है कि मैं मूर्ती-पूजक नहीं हूँ और आश्रम के बाहर के लोगों का माना है कि मैं मूर्तीपूजक हूँ । कुछ लोग मुझे नास्तिक मानते हैं तो कुछ लोग मुझे वामपन्थी । कुछ लोग मुझे मुसलमान मानते हैं तो कुछ लोग मुझे पाखण्डी । कुछ को मैं मोदी विरोधी दीखता हूँ तो कुछ को सरकार विरोधी । तो सभी ने मेरे प्रति अपनी अपनी मान्यताएं बना रखीं हैं ।
चलिए मैं अपने विषय में आप लोगों की कुछ गलतफहमियाँ दूर करने का प्रयास करता हूँ, हालांकि जानता हूँ यह एक मूर्खतापूर्ण प्रयास ही होगा
क्योंकि आप लोग भौतिकतावादी, उपभोक्तावादी मानसिकता से ऊपर उठ पाने में असमर्थ हैं, इसलिए आप को मेरी बातें वैसी ही लगेंगी जैसे कि चाईनीज़ बोल रहा हूँ और आप लोगों ने कभी चाइनीज़ न देखी न सुनी ।
फिर भी मैं प्रयास कर रहा हूँ ।
मेरी कुछ तस्वीरें ऐसी हैं जिनमें मैं प्रतिमा (मूर्ती) के समक्ष करबद्ध प्रार्थना की मुद्रा में खड़ा हूँ । तो कई लोगों को यह बड़ी विचित्र सी बात लगी कि मैं ढोंग और पाखंड का विरोध करता हूँ फिर मैं खुद मूर्ती पूजा क्यों कर रहा हूँ । विद्वानों का मत है कि मूर्ती पूजा मूर्खता है क्योंकि ईश्वर निराकार है और जब ईश्वर निराकार है तो कोई उसकी प्रतिमा व तस्वीर कैसे बना सकता है ? अपने मन से कोई भी कुछ भी तस्वीर या प्रतिमा बना ले और उसे ईश्वर मानकर पूजा करने लगे, इससे बड़ी मूर्खता भला क्या हो सकती है ?
मेरी नजर में साकार की उपासना हो या निराकार की उपासना, दोनों ही पाखंड हैं । मेरी भी समझ में नहीं आता कि जो ईश्वर निराकार है, जिसका यही नहीं पता कि वह रहता कहाँ है, खाता क्या है, पहनता क्या है, हवा में उड़ता है या जमीन पर चलता है या पानी में रहता है…. कुछ भी नहीं पता क्योंकि किसी ने आज तक उसे देखा ही नहीं है, तो फिर उसकी उपासना करना मूर्खता नहीं है ?
नास्तिक अपनी जगह सही है क्योंकि उन्होंने स्वीकार लिया कि उनमें भौतिक जगत से अधिक देखने व जानने समझने की क्षमता नहीं है, इसलिए उन्होंने ईश्वर को ही नकार दिया । वे साकार, निराकार के झगड़े से ही स्वयं को अलग कर लिए और अब दूसरों की टांग खींचने में लगे हैं कि जो दिखाई न दे, जो पाँचों इन्द्रियों से अनुभव न की जा सके उसके पीछे अपने समय बर्बाद मत करो, आओ हमारी तरह तुम लोग भी पूंजीपतियों, मल्टीनेशनल कंपनियों की गुलामी करो ।
कुछ लोग हैं जो नास्तिकों जितना भी दिमाग नहीं लगाना चाहते, बस कह देते हैं कि मैं किसी की कोई पूजा नहीं करता, मेरे लिए कर्म ही पूजा है लेकिन मैं नास्तिक नहीं आस्तिक हूँ । क्योंकि कोई तो शक्ति है जो सबको चला रही है यह मैं मानता हूँ ।
अब जो लोग साकार या निराकार उपासक हैं, अपने अपने दड़बे के इकलौते ईश्वर, अल्लाह, जीसस आदि को एक ही ईश्वर मानते हैं वे बाकी लोगों को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं । कोई निराकार अल्लाह/गॉड/ईश्वर की जय कर रहा है तो कोई साकार की । सभी यही धारणा बनाकर बैठे हैं कि एक दिन वह आएगा और अपनी अदालत लगाएगा, सबकी समस्याएँ सुनेगा और दोषियों को सजा देगा । जिसकी इज्जत लुट गयी उसको इज्जत लौटाएगा, जिसकी धन सम्पत्ति लुट गयी उसे वह सब लौटाएगा, जिसकी जिन्दगी ही लुट गयी, उसे जिन्दगी लौटाएगा । हर कोई तोतों की तरह गाता फिर रहा है कि ईश्वर बड़ा दयालु है, वह गरीबों का मसीहा है, उद्धारक है…. वगैरह वगैरह… लेकिन गरीब दिन प्रतिदिन और गरीब हो रहे हैं और अमीर, प्रजा शोषक, अत्याचारी लोग दिन प्रतिदिन धनवान हो रहे हैं । धार्मिकों के साकार और निराकार दोनों ही ईश्वर इन अमीर लोगों से मोटी रिश्वत लेकर आराम से कहीं स्वीटजरलैंड आदि में छुट्टी मना रहे हैं मोबाइल का स्विच ऑफ करके ।
तो मैं जब मूर्ती के सामने होता हूँ, तो किसी ईश्वर के सामने नहीं केवल एक आदर्श के सामने होता हूँ । ईश्वर तो मेरे ही भीतर है उसके सामने भला मैं स्वयं कैसे खड़ा हो सकता हूँ ?
क्या आप अपनी ही आँखों के सामने खड़े हो सकते हैं ?
यदि खड़ा होना भी चाहें तो आपको अपनी तस्वीर या प्रतिमा या आइना जैसा माध्यम तो चाहिए ही होगा…है न ?
तो बिलकुल वैसे ही मेरे सामने रखी प्रतिमा मेरे ही भीतर बैठे ईश्वर का प्रतिबिम्ब है होता है । मैं अपने भीतर बैठे उसी ईश्वर को नमन करता हूँ । मैं उस ईश्वर को नमन करता हूँ जो मेरे इस शरीर को जीवित रखे हुए हैं, गतिमान किये हुए हैं । मैं उस ईश्वर को नमन करता हूँ जो विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे अधर्म के मार्ग पर नहीं जाने देता । मैं उस आदर्श को नमन करता हूँ जो मेरे ही भीतर है …वस्तुतः मैं स्वयं को नमन करता हूँ पूरी समग्रता से । और यह है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का वह भाव जो श्रीकृष्ण ने समझाया था अपने विराट स्वरुप को दिखाकर । आप चाहें तो काल्पनि कथा मान लें विश्वरूप को, लेकिन मैं सत्य मानता हूँ क्योंकि मैं अपने अनुभव जानता हूँ कि यह सत्य है । हम सभी के भीतर कौरव भी है और पांडव भी, हम सभी के भीतर, कृष्ण भी है और अर्जुन भी, राम भी है और रावण भी, शोषक भी है और शोषित भी…बस जिसका प्रभाव बढ़ जाये वही हम दूसरों को दिखाई देने लगते हैं या वैसा ही कर्म करने लगते हैं ।
तो जब मैं ठाकुर दयानन्द देव जी को नमन करता हूँ तो केवल गुरु के रूप में मार्गदर्शक के रूप में क्योंकि वह मेरे ही भीतर हैं । जिस सिद्धांत पर गुरु जी चल रहे थे, मैं भी उसी सिद्धांत पर हूँ, लेकिन ठाकुर दयानन्द को जानने पहचानने से पहले से । इसलिए मैं यह मानता हूँ कि उनका अधूरा कार्य मुझे ही पूरा करना है इसलिए वे मेरे साथ उस समय से जुड़ गये, जब आश्रम के लोग मेरा नाम तक नहीं जानते थे । लेकिन मैं जानता हूँ कि यह सब बातें आप लोगों के समझ के परे हैं..फिर भी मैं यह सब कह रहा हूँ इस आशा में कि शायद कोई एक तो होगा जिसे मेरी बात समझ में आएगी ।
आइये दूसरा उदाहरण देकर समझाता हूँ ।
आप में से कई ऐसे सौभाग्य शाली रहे होंगे जिनको ब्लैकबोर्ड से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला हो । तो जब शिक्षक कुछ समझा रहे होते थे और आपका ध्यान भटक जाता था, तब शिक्षक चॉक फेंककर मारते थे और कहते थे कि ब्लैकबोर्ड पर ध्यान दो । और आप तुरंत ब्लैकबोर्ड को ध्यान से देखने लगते थे । तो वास्तव में आप ब्लैक बोर्ड को देखते थे या उस बोर्ड पर क्या समझाया जा रहा है उसे देखते ?
अगर आप ब्लैक बोर्ड पर जो समझाया जा रहा है उसे समझ पाने में असमर्थ हैं तो स्वाभाविक ही है कि ब्लैकबोर्ड ही आपके लिए भगवान् हो जायेगा, चाहे उसमें कुछ लिखा हो या न लिखा हो । इसी प्रकार मूर्ती पूजक और विरोधी हैं, जो बचपन में बलैक बोर्ड को देखते रहे और आज भी ब्लैक बोर्ड रूपी मूर्ती से ही प्रभावित हैं ।
तीसरा उदाहरण देता हूँ आपको ।
जब आप किसी नई जगह की यात्रा पर निकलते हैं तब आप जगह जगह साइनबोर्ड देखते चलते हैं । बचपन में शिक्षक ने बोर्ड देखने की जो लत लगवा दी थी, वह आज भी आपके काम आ रही है ? कभी सोचा है आपने कि आप साइन बोर्ड ही क्यों देखते हैं सड़क पर ?
अक्सर राष्ट्रभक्त लोग होते हैं जो झंडा उठाकर भारत माता की जय करके राष्ट्रभक्त बन जाते हैं । इनके विरोधी भी तरह के कुतर्क करते रहते हैं कि ‘भारत’ नाम मेल है या फिमेल है ? ‘भारत’ माता है या पिता है ? कुछ कहते हैं कि हमारी माता कोई जमीन नहीं इंसान है । क्योंकि हम इंसान माँ की कोख से जन्म लिए हैं… तो इनको भारत माता कहने में शर्म आती है । क्योंकि भारत माता जमीन है कोई इंसान नहीं । तो इसमें इनका दोष नहीं है, यह दोष है शिक्षा व मानसिक् स्तर के निरंतर गिरते जाना । आज शिक्षा का स्तर इतना नीचे गिर चुका है कि सिवाय कॉर्पोरेट स्लेव्स, नास्तिक और धार्मिक कूपमंडूकों के कुछ बन ही नहीं पा रहे बच्चे ।
अभी मैं इससे अधिक अच्छी तरह नहीं समझा सकता । जिनकी समझ में आया तो ठीक नहीं आया तो परेशान न हों, अपनी अपने टोली में वापस चले जाएँ और विशुद्ध को ढोंगी पाखण्डी कहकर गरियाएं । ~विशुद्ध चैतन्य
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