मैं सुखी तो जग सुखी का सिद्धान्त ले डूबा प्राणी जगत को

आज के पढ़े-लिखे समाज ने एक बहुत बड़ा भ्रम पाल लिया है कि भौतिक सुख ही वास्तविक सुख है, और बाकी सब मिथ्या। इन्हें लगता है कि इंसानों द्वारा किए गए आविष्कार ही जीवन के आधार हैं, बाकी सब निरर्थक। यह विचारधारा इतनी गहराई तक समा चुकी है कि इनकी स्थिति उन धार्मिक कट्टरपंथियों जैसी हो गई है, जो मानते हैं कि ईश्वर ने उनके लिए कोई पुस्तक आसमान से उतारी है, और उसमें लिखा हर शब्द ही अंतिम सत्य है। कुछ लोग तो इतने कट्टर होते हैं कि चाय पीने से पहले भी अपनी धार्मिक किताब में इसकी अनुमति ढूँढने लगते हैं। लेकिन वही लोग यह देखने का प्रयास नहीं करते कि उनकी धार्मिक पुस्तकें अपराध, अन्याय, भ्रष्टाचार और अनैतिक कार्यों को रोकने की कितनी सख्त हिदायत देती हैं।
इसी प्रकार, कुछ तथाकथित आध्यात्मिक विद्वानों ने “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धांत को ही अध्यात्म मान लिया है। आज के कई आध्यात्मिक गुरु स्वयं में मस्त रहते हैं और समाज की पीड़ा से उनका कोई सरोकार नहीं होता। मंदिरों और मस्जिदों के सामने भीख माँगते लोगों को देखकर यही प्रश्न उठता है कि जो धार्मिक स्थल अपने द्वार पर बैठे जरूरतमंदों की सहायता नहीं कर सकते, वे दूर से आने वालों की इच्छाएँ कैसे पूरी करेंगे?
वास्तविक अध्यात्म क्या है?
मेरी दृष्टि में, आध्यात्मिक ज्ञान का अर्थ है – अधि + आत्मा, अर्थात वह सर्वशक्तिमान जिससे हम जुड़े हैं और वह आत्मा जो इस शरीर को संचालित कर रही है। अध्यात्म प्राप्त करने के लिए न तो जीवनभर तपस्या की आवश्यकता होती है, न किसी विशेष ग्रंथ, मंत्र, श्लोक, या आयत को रटने की। कर्मकांडों में उलझना भी अनिवार्य नहीं है। परंतु ध्यान आवश्यक है, क्योंकि यह मन-मस्तिष्क को रीफ्रेश करता है। ध्यान कोई चमत्कार नहीं, बल्कि स्वयं को न्यूट्रल मोड में डालने की एक विधि है। ध्यान की अवस्था में हमारा मस्तिष्क और शरीर पूर्ण रूप से विश्रांति में आ जाते हैं, जिससे हमें मात्र 20 मिनट के ध्यान से उतनी ऊर्जा प्राप्त होती है जितनी 8 घंटे की नींद से मिलती है। यह हमारी सोचने-समझने की शक्ति, एकाग्रता, और आंतरिक शांति को बढ़ाता है।
ध्यान के माध्यम से जब आध्यात्मिक उत्थान होता है, तब व्यक्ति किसी संकीर्ण मानसिकता या दड़बे में कैद नहीं रह सकता। उसे समाज की बनाई सीमाएँ जकड़न लगने लगती हैं। वह समझ जाता है कि यह संसार उतना छोटा नहीं, जितना मानव समाज ने बना रखा है। और तब उसे यह भी बोध होता है कि पढ़े-लिखे समाज ने कितनी गंभीर गलतियाँ कर डाली हैं – जैसे प्लास्टिक का अनियंत्रित उपयोग।
आधुनिकता या विनाश का मार्ग?
आज जल और शीतल पेय बेचने वाली कंपनियाँ प्लास्टिक की बोतलों में उत्पाद बेचती हैं। उपभोक्ता पानी पीकर बोतल फेंक देते हैं। इन कंपनियों को इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि यह प्लास्टिक कितने जीवों, वनस्पतियों और जलीय जीवन को नष्ट कर देगा। उपभोक्ता को भी केवल अपनी सुविधा से मतलब होता है। लेकिन क्या कभी सोचा है कि इस स्वार्थ ने पृथ्वी को नरक बना दिया है? हम अपने सुखों के लिए न जाने कितने जीवों की बलि चढ़ा चुके हैं, कितनी प्रजातियों को विलुप्त होने पर मजबूर कर चुके हैं।
जो लोग स्वयं को शाकाहारी कहकर अहिंसा का संदेश देते हैं, वे भी इस विनाश में सहभागी हैं। वे भले ही प्रत्यक्ष रूप से किसी प्राणी को नहीं मारते, लेकिन उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले संसाधनों से न जाने कितने जीव हर दिन मारे जाते हैं। तो फिर यह कैसी अहिंसा?
प्रकृति का संतुलन
प्रकृति स्वचालित और सुनियोजित है। उसका कोई भी तत्व व्यर्थ नहीं जाता। जब कोई मानव-निर्मित यंत्र खराब होता है, तो वह कबाड़ बन जाता है। लेकिन प्रकृति ने जो जीव-यंत्र बनाए हैं, वे नष्ट नहीं होते। मृत शरीर से कीटाणु उत्पन्न होते हैं, पशु-पक्षी उसका भक्षण करते हैं, और अंततः मिट्टी में मिलकर वह खाद बन जाता है, जिससे वनस्पति पनपती है।
मानव, जो स्वयं जल का निर्माण नहीं कर सकता, वह प्राकृतिक जल स्रोतों को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। जल, जो सभी जीवों के लिए ईश्वर की देन है, वह भी अब व्यापारियों और सरकारों की वस्तु बन चुका है। कोका-कोला जैसी कंपनियाँ जल संसाधनों को खरीदकर पानी बेच रही हैं, जबकि सरकारें अपने ही नागरिकों के अधिकारों का हनन कर रही हैं। और हम? हम स्वयं अपने ही हाथों अपने प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने के लिए ऐसी सरकारों को चुनते हैं।
समाधान क्या है?
इसका उत्तर केवल आध्यात्मिक जागरूकता में निहित है। भौतिक ज्ञान को सर्वोपरि मानने वाले बुद्धिजीवियों ने पृथ्वी ही नहीं, संपूर्ण वायुमंडल और अंतरिक्ष तक को प्रदूषित कर दिया है। लेकिन वे अब भी इस भ्रम में हैं कि भौतिकता ही सबसे बड़ा ज्ञान है।
अब भी समय है, यदि लोग जागरूक हो जाएँ तो स्थिति बदली जा सकती है। आध्यात्मिकता का अर्थ केवल ध्यान करना नहीं, बल्कि अपने जीवन में संतुलन स्थापित करना है। अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना, प्रकृति के साथ तालमेल बैठाना, और अपने स्वार्थ को त्यागकर सामूहिक कल्याण की ओर बढ़ना ही वास्तविक आध्यात्मिकता है। तभी “मैं सुखी तो जग सुखी” का सही अर्थ स्पष्ट होगा। अन्यथा यह मात्र एक स्वार्थी सोच बनी रहेगी, जो अंततः मानवता के पतन का कारण बनेगी।
~ विशुद्ध चैतन्य
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