मैं सुखी तो जग सुखी का सिद्धान्त ले डूबा प्राणी जगत को
एक बहुत ही बड़ा भ्रम पाल लिया है पढ़े-लिखों ने कि भौतिक सुख ही वास्तविक सुख है और बाकी सभी कुछ भ्रम है मिथ्या है । इनको लगता है कि इंसानों ने जो आविष्कार किये वे ही जीवन दायिनी हैं, बाकि सभी कुछ व्यर्थ । और यह भ्रम इतनी गहराई तक लोगों के मन-मस्तिष्क में बैठा दिया गया है कि इनकी स्थिति उन धार्मिक कूपमंडूकों सी हो गयी है, जो यह मानते हैं कि ईश्वर ने उनके लिए कोई पुस्तक आसमान से उतारी थी और उसमें जो कुछ भी लिखा है वही सत्य है, बाकी सब झूठ । कुछ तो ऐसे धार्मिक कूपमंडूक हैं जो चाय भी पीने जायेंगे तो देखेंगे कि उनकी किताब में इसकी परमिशन है कि नहीं । लेकिन वही धार्मिक लोग यह नहीं देखेंगे कि बलात्कार, लूटपाट, निर्दोषों की हत्या, अपराधी प्रवृति के नेताओं को वोट देना…. आदि इत्यादि उनकी ईश्वरीय किताबों, वेद-पुराणों में वर्जित है या नहीं ।
इसी प्रकार कुछ अध्यात्मिक कहे जाने वाले वाले विद्वानों का मानना है कि “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धांत पर चलना ही आध्यात्म है । और हम देखते ही हैं कि अध्यात्मिक गुरु लोग केवल अपने में मस्त रहते हैं । उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके पड़ोस में कोई दुखी है या नहीं । मंदिर-मस्जिदों के सामने भीख माँगते लोगों को देखकर मुझे बहुत ही आश्चर्य होता है कि जो मंदिर-मस्जिद उन भिखारियों की दरिद्रता दूर नहीं कर पाता, वह भला दूर से आने वालों की मनोकामना कैसे पूरी कर सकता है ?
लेकिन मेरी नजर में आध्यात्मिक ज्ञान यानि अधि + आत्मा यानि वह सर्वशक्तिमान जिसके हम अंश हैं और वह आत्मा जो इस शरीर को चला रही है, उसका ज्ञान । अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आजीवन न तो तपस्या करनी पड़ती है और न ही आजीवन कोई एक किताब, मन्त्र, आयत या श्लोक रटते रहना पड़ता है । न ही कोई कर्मकाण्ड आजीवन करते रहना पड़ता है । हाँ ध्यान आवश्यक है क्योंकि ध्यान से आप अपने मस्तिष्क व शरीर को रिफ्रेश कर पाते हैं । ध्यान कोई चमत्कार नहीं है, केवल अपने आपको न्यूट्रल मोड में डाल देना मात्र है । जब आप ध्यान की अवस्था में होते हैं, तब आपके मस्तिष्क के सेल्स रिलेक्स मोड में आ जाते हैं और साथ ही आपके शरीर की सभी कोशिकाएं भी । आपके बीस मिनट के ध्यान से आपको इतनी उर्जा मिलती है, जितनी कि आठ घंटे की नींद से मिलती है । आपके शरीर की चमक बढ़ जाती है, सोचने समझने की शक्ति बढ़ जाती है, एकाग्रता बढ़ जाती है….व अन्य कई भौतिक व अध्यात्मिक लाभ मिलते हैं ।
तो ध्यान करना आध्यात्मिक उत्थान का सरल मार्ग है । अध्यात्मिक उत्थान होने के बाद फिर आप किसी दड़बे में कैद नहीं रह पायेंगे, आपको बेचैनी होने लगेगी । क्योंकि तब आप मानव निर्मित सभी सीमाओं से स्वयं को मुक्त पायेंगे । आपको समझ में आ जायेगा कि दुनिया इतनी छोटी नहीं है, जितनी कि मानव समाज ने बना रखा है । दुनिया तो इतनी विशाल है कि उसका छोर ही ज्ञात नहीं हो पा रहा । फिर आपको यह भी समझ में आ जाएगा कि पढ़े-लिखे लोगों ने कितनी बड़ी बड़ी गलतियाँ कर रखी हैं.. जैसे कि प्लास्टिक का अविष्कार व उसका अनियंत्रित दुरुपयोग ।
पानी या कोल्ड-ड्रिंक बेचने वाली कम्पनियाँ प्लास्टिक की बोतल में पानी या कोल्डड्रिंक आप तक पहुँचाती है । आप पानी की बोतल खरीदते हैं, पानी पीते हैं और बोतल फेंक देते हैं । न तो कम्पनी को इस बात की कोई फ़िक्र है कि वे प्लास्टिक की बोतलें कितने अन्य जीवों की जान लेंगी, कितने वनस्पति व जलचरों की जान लेंगीं…बस कंपनी को कुछ कागज के नोट चाहिए और आपको अपनी सुविधा । फिर आप लोग तो दुनिया से उठ जाओगे एक दिन, आने वालों के लिए नरक बनाकर । जैसे कि किसी टूरिस्ट प्लेस जाकर आप लोग करते हैं । साफ़ सुथरी झील देखी और प्लास्टिक की बोतलें उसमे फेंकनी शुरू कर दी, समुद्र देखा और प्लास्टिक की बोतलें फेंक दी… क्योंकि आप लोग पढ़े-लिखे हैं खुद को बुद्धिमान समझते हैं और ऐसा करना आधुनिकता मानते हैं ।
लेकिन क्या कभी सोचा है आपने कि ऐसा करके आप लोगों ने दुनिया को नरक बना दिया ? केवल अपनी भौतिक सुखो के लिए न जाने कितने उन जीवों की जिन्दगी खतरे में डाल दी और कितने जीवों को लुप्त होने पर विवश कर दिया, जिनको न तो आपने देखा है और न ही उन्होंने आपको ? आप में से कई होंगे शाकाहारी… जो जीव हत्या पाप है का नारा लगाते घूम रहे हैं । लेकिन आपके द्वारा प्रयोग किये जा रहे भौतिक संसाधनों से न जाने कितने जीव हर रोज काल का ग्रास बन रहे हैं ।
तो यह है आप लोगों का विकास और आधुनिकता । मजाक उड़ाते हैं आप लोग हम जैसे लोगों का क्योंकि हम आपको कुछ करते दिखाई नहीं देते । आप लोग जिसे कुछ करना कहते हैं, जरा सोचिये उस करने में आपको लाभ कम हानि अधिक हो रही है । आप केवल स्लेव बनकर रह गये हैं कुछ व्यापारियों, कुछ पूंजीपतियों और मुर्ख सरकारों के ।
प्रकृति तो स्वयं इतनी व्यवस्थित व सुनियोजित है कि कुछ भी व्यर्थ नहीं है । मनुष्य कोई यंत्र बनाता है तो वह बेकार होने के बाद केवल कबाड़ सिद्ध होता है । जबकि प्रकृति ने जो भी स्वचालित यंत्र जिसमें मानव शरीर भी शामिल है, वह व्यर्थ नहीं होता । जमीन में छोड़ तो शरीर के भीतर से स्वयं ही उस शरीर को नष्ट करने के लिए कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं । साथ ही साथ कई पशु-पक्षी के भोजन के काम में आ जाता है । और यह भी न हुआ तो, मिटटी में मिलकर खाद बन जाता है जो कि वनस्पतियों के भोजन के काम आता है ।
आप स्वयं कल्पना करके देखिये कि मानव तो आज तक जल नहीं बना पाया.. आपको मिनरल वाटर भी बेच रहा है कोई तो जमीन से निकालकर ही बेच रहा है, न कि सागर से जल लेकर । सरकार को भी केवल कागज के नोटों से मतलब है, इसलिए कोकाकोला जैसे कंपनियों को जल बेच देती है.. जबकि सरकार स्वयं जल का निर्माण नहीं कर सकती । वह जल जो सभी जीव जंतुओं के लिए सामान रूप से ईश्वर द्वारा उपलब्ध करवाया गया है वह भी निःशुल्क, उसे वे लोग अपने अधिकार में ले रहे हैं, जिनकी इतनी भी हैसियत नहीं कि सागर का जल ही साफ़ करके पीने योग्य बना लें । और हम लोग खुद अपने हाथों से अपने ही देश के प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने के लिए ऐसी सरकारों को चुनते हैं जो मानसिक रूप से रुग्ण व मुर्ख होती है ।
तो यह सब इसलिए क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है । भौतिक ज्ञान को सर्वोच्च मानने वाले मूर्ख पढ़े-लिखे विद्वानों ने पृथ्वी ही नहीं, सम्पूर्ण वायुमंडल व अंतरिक्ष तक को दूषित कर दिया…लेकिन भ्रम पाले बैठे हैं कि भौतिकता जीव सबसे बुद्धि मान हैं । बिगड़ा तो अब भी कुछ नहीं है यदि समय रहते लोग होश में आ जाएँ ।
~विशुद्ध चैतन्य
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