पंथ, समाज या धार्मिक ग्रन्थ किसी को अच्छा या बुरा नहीं बनाता

आपने सुना या देखा होगा कि जब भी कोई हिंसक घटना घटती है, फिर चाहे वह इस्लामिक या हिन्दू आतंकवादियों द्वारा घटित हो या दंगाइयों द्वारा या गौरक्षकों, संघी-बजरंगियों द्वारा । सभी धार्मिक अपने अपने सम्प्रदाय का बचाव करते हुए कहते मिलेंगे कि उनसे हमारे धर्म के कोई लेना देना नहीं, हमारी ईश्वरीय किताबें (कुरान, वेद, गीता, बाइबल…आदि) कभी भी ऐसे कामों का समर्थन नहीं करतीं । ये लोग भटके हुए हैं या फिर ईश्वर के आदेश को समझ नहीं पाए ।
आप यह भी पाएंगे कि ऐसे कुकृत्य करने वाले लगभग सभी लोग खुद को पक्का धार्मिक बताते हैं और बाकियों को सेक्युलर, काफिर कहकर मजाक उड़ाते हैं । कोई पाँच वक्त की नमाज पढ़ता है, क़ुरान पढ़ता है तो कोई रोज हनुमान जी के मंदिर में मत्था टेकता है, भगवा चुनरी सर पर लपेटता है, हनुमान चालीसा पढ़ता है । कोई हवन यज्ञ करवाता है नियमित और गीता रामायण पढ़ता है तो कोई प्रवचन करता है भागवत कथा बाँचता है । यदि ध्यान से देखे जाएँ तो ये लोग जितना पूजा-पाठ, नमाज आदि करते हैं, जितने धार्मिक ग्रन्थ पढ़ते हैं, उतना कोई आम धार्मिक नहीं करता होगा ।
आप यह भी पाएंगे कि धार्मिक लोग कहते हैं कि क़ुरान पढो, गीता पढो, वेद पढ़ो, बाइबल पढ़ो तो मन शुद्ध होता है, खुदा/ईश्वर की कृपा बनी रहती है, बुरे विचार मन में नहीं आते…..आदि इत्यादि । जब भी कोई अच्छा काम कोई करता है तो हिन्दू बिरादरी का हुआ तो हिन्दू खुश होते हैं और मुस्लिम बिरादरी का हुआ तो मुस्लिम खुश होते हैं । तब हर कोई उसे अपना बताने लगता है.. फिर चाहे उसने जीवन में कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ को हाथ लगाया हो या न लगाया हो, कोई अंतर नहीं पड़ता ।
तो यह सिद्ध हो जाता है कि कोई भी धार्मिक ग्रन्थ ऐसा नहीं है दुनिया में जो किसी को अच्छा या बुरा बनाता है । जो जैसे संस्कारों में पला-बढ़ा, समाज से उसे जो भी अच्छा बुरा ज्ञान या अनुभव मिला, व उसका विवेक जैसी भावनाओं का रहा, वैसा ही वह बना । कोई अच्छा बन गया तो कोई बुरा बन गया । समाज हमेशा अच्छाई के पक्ष में प्रत्यक्ष और बुराई के पक्ष में अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा रहता है । बुराई को मिटाने के लिए समाज की ओर से कोई प्रयत्न नहीं किये जाते और न ही समाज द्वारा चुने गये नेता, सरकार को ही इसमें कोई रूचि होती है ।
समाज बुराई के पक्ष में प्रत्यक्ष रूप से तब खड़ा मिलता है, जब चुनाव होते हैं । हर कोई जानता है कि सामने खड़ा नेता अपराधी है, कई गलत काम किये हुए हैं… लेकिन फिर भी उसे सर आँखों पर बैठाकर रखते हैं । राजनैतिक पार्टियाँ उनको अपना प्रत्याशी नियुक्त करतीं हैं और कोर्ट व चनाव आयोग बैठकर तमाशा देखता है ।
फिर ढोंग करते हैं कि हमारा धर्म ग्रन्थ बुराई के विरुद्ध खड़ा होना सिखाता है । अत्याचारियों और अत्याचार को सहन करना पाप है… वगैरह वगैरह । और आप यह भी देखेंगे कि धर्मगुरु ही उन पार्टियों के साथ खड़े मिलेंगे, जिनमें जानबूझकर अपराधियों को नेता चुना गया । ताकि धार्मिक भावनाओं वालों को यह विश्वास हो जाये कि अपराधियों का साथ देना कोई पाप नहीं है…और फिर यही धार्मिक गुरु दुनिया भर में प्रवचन देते फिरते हैं कि कभी गलत का साथ मत दो, हमारी धार्मिक किताबें पढों, फ़लाने की कुर्बानी पढो, कि कैसे उन्होंने अन्याय व अत्याचार के विरोध के लिए अपनी जान तक कि परवाह नहीं की । कैसे अपने बच्चों के भी गर्दन कटने पर वे नहीं झुके, कैसे उन्होंने दुनियाभर के कष्ट सहे….आदि इत्यादि ।
क्या सिद्ध होता है इससे ?
यही न…. कि न तो समाज गलत के विरोध में है और न ही धर्मगुरु । तो फिर ये धार्मिक ग्रंथों का औचित्य ही क्या है ? क्यों तमाशा बना रखा है कि धर्मग्रंथो को पढो तो सद्बुद्धि आएगी ?
मेरा मानना है कि व्यक्ति अच्छा या बुरा केवल संस्कारों से होता है फिर वह पूर्वजन्मों के संस्कार हों या वर्तमान जन्म के । कोई किताब केवल बहाना बन जाती है किसी के अच्छे होने के लिए । वही किताब बुरे संस्कारों वाले व्यक्ति को बुरे राह पर ले जाती है जैसे कि धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले धर्मों के ठेकेदार, हिंसा से इस्लाम फैलाने वाले आइसिस अलकायदा ।
अपने विवेक का प्रयोग करें..ईश्वर ने यह बहुत ही कीमती चीज दी है आपको, इसे पंडित, पुरोहित, मौलवी, पादरी, नेता, बाबाओं के पास गिरवी मत रखिये ।
~विशुद्ध चैतन्य
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