शिष्य और अनुयायी ना तो देशभक्त बन पाये और ना ही धार्मिक बन पाये
अपने जीवन में यदि किसी गुरु से सर्वाधिक प्रभावित हुआ हूँ, तो वे हैं ओशो। ओशो इसलिए, क्योंकि उनहोंने परम्पराओं को ढोना नहीं, तोड़ना सिखाया था। उनहोंने कहा था; “यह आवश्यक नहीं कि बहुसंख्यक जो कर रहे हैं, वही सही हो। हो सकता है वे बिलकुल गलत हों और केवल अपनी मूर्छा के कारण ही ऐसा कर रहे हों ?”
ओशो जैसे आधुनिक गुरु के शिष्य भी भेड़चाल में अटककर रह गए, तो क्यों ?
क्यों सदियों से ऐसा होता आ रहा है कि गुरु कुछ समझाता है, कोई नवीन मार्ग दिखाता है और अनुयायी घूमफिर कर वहीं अटक जाते हैं, जहां से चले थे ?
प्रभात रंजन सरकार ने भी बिलकुल ही नयी बात समझाने का प्रयास किया था। अंतर्राष्ट्रीय संस्था बनाया था। जातिवाद और ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाने के लिए अपनी जाति से बाहर विवाह करने का नियम बनाया था अनुयाइयों के लिए। सिखाया था कि जैविक कृषि को महत्व दो, अपनी संस्था और अपने लिए अनाज स्वयं उगाओ, बाजार पर निर्भर मत रहो। वे जानते थे कि हरितक्रांति योजना कृषि को बर्बाद कर देगी, इन्सानों को बीमार बना देगी। इसीलिए बार-बार वे अपने अनुयाइयों को समझाते रहे कि अपनी भूमि की रक्षा करो, अपने खेतों, जलस्त्रोतों की रक्षा करो।
लेकिन क्या उनके अनुयायी यानि आनंदमार्गी उनकी शिक्षाओं को आत्मसात कर पाये ?
लगभग सभी गुरुओं के शिष्य आज इस्कॉन की नकल मात्र बनकर रह गए। केवल ध्यान भजन की विभिन्न विधियों द्वारा स्वयम को अलग दिखाने में लगे हैं, लेकिन कर वही रहे हैं जो इस्कॉन वाले कर रहे हैं।
यानि हरे कृष्णा, हरे रामा का जाप करते हुए नाचते-गाते हुए दुनिया भर की सैर करना। ये कीर्तन मंडली न कभी अधर्म व अधर्मियों के विरुद्ध कुछ बोलने का साहस करती है, न ही देश को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध मुँह खोलने का साहस करती है। केवल “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीते हुए, ज़िंदगी बिता देती है।
अब आप लोग मुझे बताइये कि जब यही करना है, तो फिर शहीदों को पूजने की नौटंकी क्यों की जाती है ?
शहीद, स्वतन्त्रता सेनानी तो नहीं चले थे इन गुरुओं के सिद्धान्त पर, ना ही चले थे आपके धार्मिक, आसमानी, हवाई ग्रंथो के सिद्धान्त पर और ना ही चले थे समाज व सरकार के सिद्धान्त पर। फिर उन्हें क्यों पूजा जा रहा है ?
इन्हें तो चाहिए कि ऐसे लोगों को पूजें, जो अच्छा भजन कीर्तन करते हों, जो अच्छा नृत्य करते हों, जो शाकाहारी हों, जो अहिंसावादी हों और किसी का खून देखते ही थर-थर कांपने लगते हों।
क्या आज ऐसी कोई धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक संगठन या संस्था है जो देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध हो ?
ऐसा कोई गुरु है, जो यह कहता हो कि भले पूजा पाठ करो या न करो, लेकिन देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का विरोध ही नहीं, बहिष्कार भी आवश्यक करो ?
यदि हम ध्यान से सभी गुरुओं द्वारा स्थापित पंथों, सम्प्रदायों, संगठनों को देखें, तो पाएंगे कि ये सभी मूल समस्याओं से ध्यान भटकाकर माफियाओं, लुटेरों के गिरोहों के लिए बाधा रहित मार्ग बनाते हैं।
आज गुंडे, बदमाश और देशद्रोही संगठन अपने अनुयायियों को लड़ना सीखा रहे हैं, उन्हें हथियार रखने की ही नहीं, खुले आम सड़कों पर प्रदर्शन करने तक की छूट है। लेकिन कोई धार्मिक व्यक्ति, सभ्य व्यक्ति हथियार नहीं रख सकता। सड़कों पर तलवार और कट्टा लहराने वालों के लिए लाइसेन्स आवश्यक नहीं है, लेकिन आत्मरक्षा के लिए कोई हथियार रखे तो लाइसेन्स अनिवार्य है।
क्यों बना समाज ऐसा ?
क्या कारण है कि साधु-संत और उनके अनुयायी ना तो देशभक्त बन पाये और ना ही धार्मिक बन पाये ?
क्यों ओशो, प्रभातरंजन सरकार, बुद्ध, मोहम्म्द, नानक जैसे महान गुरुओं के अनुयायी आज तक ना तो धार्मिक बन पाये न ही देशभक्त ?
क्या आप समझा सकते हैं मुझे कि ऐसा क्यों हुआ कि देश से देशभक्त और धार्मिक लोग लुप्त हो रहे हैं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों और धर्म व जातियों के ठेकेदारों के चाटुकार और भक्तों का वर्चस्व बढ़ता चला जा रहा है ?
चुप रहकर बहुत कुछ सीखते हैं । किताबें पढ़कर भी बहुत कुछ सीखते हैं। लेकिन इन सीखों से लाभ क्या, जब व्यवहारिक जीवन में कोई उपयोग ही ना हो पाए ?
भले आपने दुनिया भर के धर्मग्रंथों को रट्टामार कंठस्थ कर लिया हो, भले आपने दुनियाभर की डिग्रियाँ बटोर ली हो। लेकिन आप गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह गूंगा, बहरा और अंधा बनकर जी रहे हों, तो लाभ क्या इतना ज्ञानी होने का ?
अधर्म, अन्याय, शोषण करने वाली देशद्रोही सरकारों और माफियाओं के विरुद्ध आवाज ही ना निकलती हो, तो लाभ क्या दुनियाभर के ज्ञान बटोर लेने का ?