राजनैतिक पार्टियों को भी धर्म घोषित क्यों नहीं कर देते ?

कहते हैं डिग्रियाँ बटोरने के लिए स्कूल जाना जरूरी है। फिर स्कूल सर्टिफिकेट जारी करता है कि यह बालक अब डिग्रियाँ बटोरने के योग्य हो गया है इसलिए इसे कॉलेज में दाखिला दिया जा सकता सकता है। फिर बच्चा कॉलेज जाता है और डिग्रियाँ बटोरने का हुनर सीखता है।
विक्षिप्त लोगों को विकलांग कहना पाप है, अपराध है
डिग्रियाँ बटोरने के बाद बालक शिक्षितों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। फिर वह अपनी डिग्रियों के पिटारे से ज्ञान खोजकर निकालता है और बताता है कि अब हम आधुनिक हो गए हैं और नासा के वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है कि शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम और विक्षिप्त लोगों को विकलांग कहना पाप है, अपराध है। इनके लिए सही सम्बोधन है दिव्यांग या दिव्यांगी। और चूंकि पढ़े-लिखे डिग्रीधारी ने संशोधन किया है, इसीलिए पढ़े-लिखों का समाज बिना कोई प्रश्न उठाए जयकारे और तालियों के शोर के साथ स्वीकार लेता है।
अब कोई इनसे पूछे कि फिर विकलांग किसे कहते हैं ?
लेकिन पूछेगा कौन ?
सभी तो पढ़े-लिखे हैं !!!
इसी प्रकार पढ़े-लिखों ने अपनी डिग्रियों के पिटारे से खोज निकाला कि रिलीजन का अर्थ होता है धर्म। रिलीजन अर्थात किसी मत, मान्यता, या परम्पराओं को मानने वालों का समूह या झुण्ड।
अब इनसे कोई पूछे कि फिर संप्रदाय और समाज किसे कहते हैं ?
लेकिन पूछेगा कौन ?
सभी तो पढ़े-लिखे हैं !!!
भेड़ों बकरियों का झुण्ड इन्हें शिक्षित मानता होगा, लेकिन मैं नहीं मानता। मुझे तो ये सब किसी पागलखाने से छूटे पागल नजर आते हैं। और यही पागलों का गिरोह चीखता चिल्लाता है कि अनपढ़ों को राजनीति में नहीं आना चाहिए। क्योंकि अनपढ़ लोग राजनीति करना नहीं जानते।
जबकि होता यह है कि पढे-लिखे लोग गुलामी ही करना सीख पाते हैं, नेतृत्व कभी सीख ही नहीं पाते। इसीलिए तो जब कोई विकलांग को दिव्यांग घोषित करता है, तो बिना सोचे-विचारे स्वीकार लेते हैं।
यदि आज कोई आपसे कहे कि एक दिव्यांग व्यक्ति मिला था, तो आपका मस्तिष्क क्या छवि बनाएगा उस अनदेखे दिव्यांग की ?
यही न कि कोई शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम या अपाहिज होगा ?
जबकि प्राचीन काल में दिव्यांग कहने पर किसी ऐसे व्यक्ति की छवि बनती थी, जिसका शरीर देवताओं की तरह रूपवान होगा, दिव्यता झलकती होगी, दमकता हुआ उसका अंग होगा।
तो आज सभी सम्बोधन, सर्वनामों के अर्थ ही बदल गए और यह सब किसी आध्यात्मिक या चैतन्य व्यक्ति द्वारा नहीं किए गए। यह सब उन लोगों ने किए, जो मूर्छित हैं, जो ज़ोम्बी हैं, जो गुलाम हैं माफियाओं, ठगों और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के।
और इन्हें हम सभी सरकार और सरकारी लोगों के रूप में जानते हैं। और सरकारें बनाती हैं, राजनैतिक पार्टियाँ।
अब आप स्वयं सोचिए कि जो राजनैतिक पार्टियाँ समाज की चेतना, समझ और मानसिकता पर पूर्ण रूप से प्रभाव डालती हों, जिनके अधीनस्थ होते हैं देश के बड़े-बड़े आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु। ऐसे लोग जो समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव रखते हैं, वे सब भी इन्हीं दिमाग से पैदल सरकार और सरकारी लोगों के अधीनस्थ रहते हैं। तो फिर जब राजनैतिक पार्टियाँ ही तय करती हैं कि धर्म किसे कहना है, किसे दिव्यांग कहना है, किसे पाप कहना है, किसे पुण्य कहना है…..तो फिर राजनैतिक पार्टियों को भी धर्म क्यों नहीं घोषित कर देते ?
जब भी कभी मछुआरों की नावों को देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि ये सब भी मछलियों की सेवा ही कर रहे हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे राजनैतिक पार्टियाँ, धर्म व जातियों के ठेकेदार करते हैं जनता की सेवा।
मछुआरे भी राजनेताओं, धर्म व जातियों के ठेकेदारों की तरह मछलियों की भलाई के लिए चारा लेकर जाते हैं, भंडारा करते हैं मछलियों के लिए। सभी के पास जाल होती है, जिसमें वे अपने-अपने समर्थक मछलियों को घेरकर रखते हैं, ताकि वे किसी दूसरे के बहकावे में न आ जाएँ।
जिस प्रकार मछलियाँ समझती हैं कि मछुआरे दुनिया भर का कष्ट उठाकर उनके पास आते हैं भंडारा करवाने, दान-पुण्य करने, वह सब इनकी भलाई के लिए ही आते हैं। ठीक उसी प्रकार जनता भी समझती है कि राजनैतिक पार्टियाँ, राजनेता, धर्म व जातियों के ठेकेदार उनकी भलाई के लिए ही आते हैं।
लेकिन क्या वास्तव में ये सब लोग जनता और मछलियों के भलाई के लिए दुनिया भर का कष्ट उठाते हैं ?
क्यों घोषित कर देना चाहिए राजनैतिक पार्टियों को धर्म ?
स्वाभाविक है कि प्रश्न उठेगा कि धर्म बिलकुल अलग विषय है, अलग क्षेत्र है। जबकि राजनीति बिलकुल अलग क्षेत्र है। तो फिर राजनैतिक पार्टियों को धर्म कैसे घोषित किया जा सकता है ?
हो सकता है आपकी नजर में राजनीति और धर्म बिलकुल अलग अलग क्षेत्र हो, लेकिन मेरी नजर में दोनों में कोई अंतर नहीं है।
क्योंकि जिन्हें आप धर्म कह रहे हैं, वे सब राजनैतिक संगठन और पार्टियाँ ही थीं अपने शैशव काल में। उन सभी की स्थापना राजनैतिक उद्देश्यों से ही हुई थी, न कि आध्यात्मिक और धार्मिक उद्देश्यों से।
सभी के संस्थापक राजनैतिक शोषन और अत्याचार से पीड़ित होकर होकर ही अपने अपने संगठन बनाए या बाद में बना दिये गए। फिर चाहे वह बौध्द संप्रदाय हो, या इस्लाम या सिक्ख या ईसाई…। सभी के आस्तित्व में आने की कथा यदि सुनेंगे और समझने का प्रयास करेंगे, तो सभी राजनैतिक, सामाजिक परिवर्तन के लिए उठी एक क्रान्ति ही थी। यह और बात है कि कालांतर में सभी परम्पराएँ मात्र बनकर रह गईं।
जैसे धार्मिक समाज, संगठन के पास अपने अपने संविधान हैं, जिन्हें वे धार्मिक ग्रंथ कहते हैं, ठीक उसी प्रकार सभी राजनैतिक पार्टियों और सरकारों के पास भी अपने अपने संविधान होते हैं। जैसे धार्मिक सम्प्रदाय, संगठन, अपने ही समाज का भला कर पाने में अक्षम है, अपने ही समाज को सही राह पर नहीं ला पाया, ठीक वैसे ही राजनैतिक पार्टियां और संगठन अपने ही सदस्यों को अपनी ही किताबें, संविधान नहीं समझा पाया। जैसे धार्मिक ग्रंथो को रटाने और रटने वाले आज तक धर्म नहीं जान पाये, वैसे ही सरकार और राजनैतिक पार्टियां न संविधान को समझ पाये, न ही आचरण में उतार पाये।
जिस प्रकार धार्मिक सम्प्रदाय अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने में निरंतर प्रयासरत रहते हैं, बिना यह देखे कि जो सदस्य बन चुके हैं, उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति अभी कैसी है। वैसे ही राजनैतिक संगठन और सरकारें अपने सदस्यों की चिंता नहीं करती, लेकिन नए सदस्यों के लिए चारा, जाल और काँटा डाले बैठी रहती हैं।
अभी कल ही खबर पढ़ी कि राजस्थान में कुछ इस्लामिक कट्टरपंथियों ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी, क्योंकि उसके किसी फेसबुक पोस्ट से उनकी धार्मिक भावना आहत हो गयी थी। वैसे ही राजनैतिक पार्टियों की भी राजनैतिक भावनाएं आहत होने पर वे किसी भी को जेल भिजवा देती हैं, हत्या करवा देती हैं।
रत्तीभर भी तो अंतर नहीं है आपके किताबी धर्म और राजनीति में, न ही कोई अंतर है आपके किताबी धार्मिकों के संप्रदायों और राजनैतिक पार्टियों में। खून के प्यासे दोनों हैं, दोनों ही सत्ता और शक्ति के भूखे हैं, दोनों ही परस्पर सहयोगी हैं। धार्मिक व आध्यात्मिक गुरु जनता का ध्यान मूल समस्याओं से भटकाये रखते हैं, ताकि देश व जनता के लुटेरों को लूट-पाट करने में सहजता रहे। बदले में राजनैतिक पार्टियाँ और सरकारें आध्यात्मिक गुरुओं का अभिनन्दन करती हैं, उन्हें सम्मानित करती हैं, उनकी स्तुति वंदन करती हैं।
अर्थात जिन्हें आप धर्म कहते हैं, वे धर्म नहीं राजनैतिक सम्प्रदाय हैं। क्योंकि जो इनकी किताबें बताती हैं, वह इनके समाज के व्यवहारिक आचरण में देखने नहीं मिलता। और जिन्हें आप धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु कहते, ना तो वे स्वयं धार्मिक होते हैं, और नहीं धार्मिकता का पाठ पढ़ाते हैं। वे तो अपनी अनुयाइयों को कायरता का पाठ पढ़ाते हैं। वे तो सिखाते हैं कि देश लुट रहा है तो लुटने दो विरोध मत करो। बल्कि सहयोगी हो जाओ लूट-पाट में और हमारी तरह ऐश, मान-सम्मान, धन, वैभव सब प्राप्त करो आने ही देश के लूट-पाट में सहयोगी बनकर।
ये आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु बताते हैं कि फलाना पार्टी को जिता दोगे, तो 30 रुपए लीटर पेट्रोल और 30 रुपए में डॉलर मिलेगा। लेकिन बाद में जब पेट्रोल 100 के पार चला जाता है और डॉलर 78 के पार, तो फिर मुँह में दहि जमाकर बैठ जाते हैं।
देखा होगा आप सभी ने कि धार्मिक होने या आध्यात्मिक होने का अर्थ ये लोग यही समझाते हैं कि राजनैतिक लूट-पाट पर कुछ मत बोलो। बल्कि राजनैतिक लेख लिखने वालों को तो ये लोग धार्मिक या आध्यात्मिक मानते ही नहीं। जबकि उपाधि और पुरुसकार बटोरने बेशर्मी से पहुँच जाते हैं राजनैतिक लोगों के पास।
इसलिए ही कहता हूँ कि राजनैतिक पार्टियों को भी धर्म घोषित कर दो, ताकि समाज में फैला भ्रम ही दूर हो जाये।
~ विशुद्ध चैतन्य
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