इंसान को हैवान बना देने वाले धार्मिक ग्रंथो से दूरी बना लीजिये

प्राचीन काल में कुछ लोग कपड़े से पहचान लेते थे। फिर नाम से पहचानने लगे। लेकिन अब तो न कपड़े से पहचान में आते हैं और ना ही नाम से।
मैं तो अब नाम और कपड़ों के चक्कर में पड़ता ही नहीं। प्रोफ़ाइल चेक करता हूँ। जिसके प्रोफ़ाइल में अल्लाह-हू-अकबर या जय श्री राम के नारे लग रहे हों, उन्हें भूलकर भी फ्रेंडलिस्ट में शामिल नहीं करता।
उनसे भी दूरी भली जो अंबेडकर, पेरियार के भक्त हैं। क्योंकि ये भी उतने ही दिमाग से पैदल होते हैं, जितने कि राम और पैगंबर का भक्त।
राजनैतिक पार्टियों और नेताओं के भक्तों से भी दूरी भली, क्योंकि इन्हें न तो देश से कोई लेना देना, ना आम नागरिकों की समस्याओं से। इन्हें तो केवल अपने नेता और पार्टी की जय-जय करनी और करवानी होती है।
जो कुरान की आयतें, या गीता के श्लोक पोस्ट करते रहते हैं, समझ जाता हूँ कि ये लोग खतरनाक हो सकते हैं और कभी भी इनकी छुई-मुई धार्मिक भावना आहत हो जाएगी और निकल पड़ेंगे खंजर लेकर….

“कर दूँगा सर तन से जुदा
क्योंकि मैं ही ख़ुदा, मैं ही ख़ुदा”
का नारा लगाकर।
तो ऐसे ख़ुदा और उनके बंदों से जितनी दूरी बनी रहे, उतना ही अच्छा है।
धार्मिक ग्रंथो के दीवानों और फिल्मों के दीवानों में बड़ी समानता होती है
न तो धार्मिक ग्रंथो के दीवाने धार्मिक ग्रंथो की शिक्षाओं को आत्मसात कर पाते हैं और न ही फिल्मों के दीवाने फिल्मों की शिक्षाओं को आत्मसात कर पाते हैं।
लेकिन दोनों ही दीवाने तोड़फोड़ से लेकर हत्याएँ करने तक से परहेज नहीं करते धार्मिक और फिल्मी भावनाओं के आहत होने पर।
किसी भी धर्म, पंथ, रिलीजन, मजहब को समझने के लिए धार्मिक ग्रंथो को मत पढ़िये। बल्कि धार्मिक ग्रंथो के अपमान पर आहत होने वाले समाज के आचरण को देखिये। यदि समाज अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का मौन समर्थक है, या दो चार प्रतिशत ही विरोध करने निकलते हैं…तो समझ जाइए कि उन धार्मिक ग्रंथो को पढ़कर समय बर्बाद करने का कोई लाभ नहीं।
किसी भी गुरु, पैगंबर या अवतार के अनुयाइयों के पंथो की शिक्षा को समझना है, तो उनकी किताबें मत पढ़िये। केवल उस सम्प्रदाय, या पंथ के अनुयायियों का आचरण देखिये। यदि वे जो कहते हैं कि उनकी किताबों में लिखा है, वैसा अचारण उनके समाज, पंथ या संगठन का नहीं है, तो कोई लाभ नहीं उन किताबों को पढ़ने का।
सदैव ऐसी ही किताबें पढ़िये, जिनकी शिक्षा व्यावहारिक हों फिल्मी नहीं।
और हाँ खबरदार !!! मुझे फिल्मी डायलॉग मत सुनाइएगा कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना….या फिर हमारे धार्मिक ग्रंथ तो इंसानियत का पैगाम देते हैं, अमन का पैगाम देता है…..वगैरह वगैरह !
अपने समाज, अपने संप्रदायों को इंसानियत सीखा लीजिये, फिर दुनिया को कहने की अवशयकता नहीं पड़ेगी कि हमारा धर्म “सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे संतु निरामयः”, और विश्वबंधुत्व के सिद्धान्त पर चलता है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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