केवल बाह्य हलचल देखकर सागर की शांति का अनुमान लगाना ठीक नहीं है
कुछ दिन पहले किसी ने मेरे पोस्ट में मुझे दोगला कहा था। क्योंकि वह यह सोच कर मुझसे जुड़ा था कि मैं सन्यासी हूँ तो राम-राम भजुन्गा या देवी देवताओं के पोस्ट शेयर करूँगा या भगवत या रामायण सुनाऊंगा। कई बार मैं ध्यान और अध्यात्म के विषय में भी लिखता हूँ तो वह रुचिकर था उसके लिए लेकिन अचानक से उसने मेरा दूसरा रूप देखा तो सदमे में आ गया। तुरंत मुझे अनफ्रेंड कर दिया, लेकिन पोस्ट आज भी पढ़ता है और बीच-बीच में अपनी दार्शनिक अभिव्यक्ति भी देता रहता है।
जब तक मैं स्वयं से अपरिचित था, तब तक मैं भी इसी प्रकार की मानसिकता से पीड़ित था। मैं भी यही मानता था कि संत-महंतों को राजनीति और जनहित के कार्यों से दूर रहना चाहिए, लंगोट, कमंडल लेकर सड़कों में भीख माँगना चाहिए ताकि ये मुर्ख पढ़े-लिखे लोग दस-पांच रूपये कटोरे में डाल कर पुण्य खरीद सकें और खुद को इनसे श्रेष्ठ समझ सकें। इन्हें यह भ्रम हो कि ये साधू-संतों को पाल रहें हैं या दान देकर कोई एहसान कर रहें हैं।
लेकिन आज जानता हूँ कि यदि स्वयं को महत्व दें तो ईश्वर भी खुश होता है क्योंकि ईश्वर ने जब आपको आपका शरीर दिया तो उसे अपेक्षा रहती है, कि आप उसकी कलाकृति कौशल की प्रशंसा करें। ठीक उसी प्रकार जैसे, एक दरजी आपके कपड़े सीने के बाद अपेक्षा करता है कि आपको उसका काम पसंद आया हो।
ईश्वर जब आपको दुनिया में भेजता है तो आपके ऊपर कई जिम्मेदारियां देकर भेजता है और अपेक्षा करता है कि आप मौलिकता का प्रदर्शन करोगे। यह बात हमारे विद्वान् शिक्षाविद समझ चुके थे, इसलिए उन्होंने बच्चों का बचपन ही छीन लिया। अब केजी, प्रेप… अब तो गर्भ में ही ट्रेनिंग देने का प्लान बन रहा है। ताकि बच्चा बिलकुल ब्रांडेड हो और एक भेड़ या बत्तख से अधिक मानसिक रूप से विकसित ही न हो पाए। हम ने तय कर लिया है कि वह जिस काम के लिए आया है वह हमें जानना ही नहीं है। हम तो उससे वही करवाएंगे जो हम चाहते हैं। वह क्या चाहता है क्या नहीं उससे हमें कोई लेना देना नहीं।
तो जब आप एक बार यह समझ जाते हैं कि मैं भेड़ या बतख नहीं हूँ, तो ईश्वर आपको ऐसे व्यक्ति से भेंट करवाता है, जो आपका गुरु कहलाता है सामाजिक रूप में। लेकिन भीतर वह सहयोगी होता है आपके उत्थान के लिए। जैसे मेरे गुरुजी; आकस्मिक मिले और दोनों ने नहीं सोचा था कि गुरु-शिष्य होंगे कुछ दिनों बाद लेकिन हो गए। वे मस्त हैं अपनी दुनिया में और मैं मस्त अपनी दुनिया में। हम दोनों की बुराई होती है क्योंकि मैं आश्रम से बाहर नहीं निकलता और वे आश्रम में नहीं ठहरते। मैं लोगों से मिलता जुलता ही नहीं और वे डिग्रीधारियों और अंग्रेजी बोलने वालों से कम से बात करना पसंद नहीं करते। मेरी बुराई करने कोई उनके पास जाता है तो वे कहते हैं कि तुम लोग अभी इस लायक नहीं हो कि उसे समझ पाओ, इसीलिए बुराई कर रहे हो। वह मेरा शिष्य है इसीलिए उसे मैं जानता हूँ और उसकी बुराई मेरे सामने नहीं होनी चाहिए।
अब सारी कहानी का सार यह कि मैं आपकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो सकता क्योंकि मैं ईश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप हो रहा हूँ। क्योंकि दुनिया से जाने के बाद मुझे उसे बताना होगा कि मैंने मानव का जीवन जीया या भेड़ों का। मैं आप लोगों की तरह धर्म और शास्त्रों का ज्ञाता तो हूँ नहीं कि ईश्वर शॉर्टकट से पास कर देगा। मुझसे तो बहुत से प्रश्न करेगा वह। और यदि मैं भी आप लोगों की तरह भेड़चाल में चल पड़ा तो वह नाराज हो जायेगा और कहेगा, “क्या इसलिए तुझे अनपढ़ और निकम्मा बनाया था, कि तू भी पढ़े-लिखों और विद्वानों जैसी हरकतें करने लगे ? क्या इसलिए तुझे लावारिस रखा था कि तू भी नेता अभिनेता का दुमछल्ला बन जाए ? क्या इसलिए तुझे सड़कों-फुटपाथों की ठोकरें खिलाई कि अपने जमीर को बेचकर जिंदगी जिए ?
सच कहता हूँ कि यदि मैं भी ब्रम्हज्ञानियों और आधुनिक लेपटोप, गोल्डन, मोबाइल बाबाओं की तरह हो गया तो ईश्वर शक्ल भी नहीं देखेगा मेरी। क्योंकि उसे यदि इन्हीं की तरह बनाना होता मुझे तो वह मुझे भी विद्वान् बनाता या पढ़ा-लिखा डिग्रीधारी बनाता। यदि आज मैं कई विषयों और दिशाओं में भटकता हुआ आपको दिख रहा हूँ और आप मुझे दोगला मान रहें हैं, तो वह आपकी समस्या है मेरी नहीं। क्योंकि मैं तो अपने केंद्र में हूँ और मेरा केंद्र मेरा है उसपर आप नहीं पहुँच सकेंगे। क्योंकि वहां पहुँचने के लिए, उसे समझने के लिए अनपढ़ होना पहली शर्त है। मैं अपने केंद्र में निश्चिन्त हूँ और सुखी हूँ, केवल बाह्य हलचल देखकर सागर की शांति का अनुमान लगाना ठीक नहीं है। ~विशुद्ध चैतन्य
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