प्रकृति स्वयं अनपढ़ है उसने कोई डिग्री नहीं ली कहीं से

कभी मैं प्रकृति के नियमों और मानव निर्मित नियमों में तुलना करता हूँ, तो मुझे प्रकृति के नियम मानवनिर्मित नियमों से हमेशा श्रेष्ठ व परिपक्व लगे। प्रकृति से गलती बहुत ही कम होती है और नियम उसने एक बार जो तय कर दिया तो सभी स्वतः बिना किसी तनाव व दबाव के न केवल स्वीकारते हैं, अपितु व्यवहार में भी लाते हैं।
कोई नियम भंग नहीं करता और कभी कोई करता भी है तो स्वतः ही नष्ट भी हो जाता है। लेकिन कोई नारे बाजी नहीं होती और कोई शोरशराबा नहीं होता। क्योंकि प्रकृति किसी के भी व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप न करते हुए सहयोगिता का भाव रखती है। वह एक ऐसी व्यवस्था बनाये हुए है कि जब तक कोई नियम का पालन कर रहा है वह सुरक्षित है। जैसे कोई नियमों को तोड़े और चिड़ियों की तरह उड़ने के लिए पहाड़ से छलांग लगा दे तो मृत्यु निश्चित है।
उदाहरण के लिए प्रकृति का एक नियम है कि जिसकी आयु जितनी अधिक होगी वह उतना ही विशाल व लाभप्रद होगा। जैसे वृक्ष समय के साथ कई आँधियों और तूफानों को सहते हुए अधिक सक्षम, व सहयोगी हो जाता है। वह यात्रियों को छाया देता है, ईंधन के लिए लकड़ी देता है, फल देने योग्य हुआ तो फल देता है…..लेकिन आतंकित नहीं करता किसी को। वह पहचान बन जाता है और लोगों के लिए मार्गदर्शक भी होता है।
इसी प्रकार हाथियों में भी जो अधिक आयु का होता है वह नेतृत्व करता है क्योंकि वह अनुभवी होता है। मानवों में भी पहले वृद्धों को सम्मान मिलता था क्योंकि वे अनुभव होते थे और बड़े से बड़े संयुक्त परिवार को भी एक जुट रखने की क्षमता रखते थे। प्रत्येक परिवार के प्रत्येक सदस्य की मनोदशा, व्यवहार, व मान्यता भिन्न होते हुए भी सभी वृद्ध का आदर सम्मान करते थे।
प्रकृति स्वयं अनपढ़ है, उसने कोई शास्त्र नहीं पढ़े, कोई डिग्री नहीं ली और उससे भी बड़ी बात कि उसे अंग्रेजी भी नहीं आती… फिर भी इतनी बड़ी सृष्टि को सुचारू रूप से चला रही है ! क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है ?
जबकि आधुनिक काल में जब अधिकाँश लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हो गये हैं और हर कोण से देख व समझ सकते हैं, फिर अंग्रेजी भी बोलते हैं…… तब इतनी दुर्गति क्यों हो गयी हमारे धर्म, समाज और राष्ट्र की ?
क्यों हम अपने बच्चों को भी शालीनता व सहयोगिता का भाव नहीं सिखा पा रहे ?
जबकि प्रकृति तो बिना अंग्रेजी जाने कीट पतंगों को भी अपने गुण व व्यवहार को निरंतर बनाये रखने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन हम तो अपनी मूल भारतीय संस्कृति का आधार, शालीनता व सहयोगिता को ही नहीं सम्भाल पा रहे हैं, जबकि हमारा धर्म स्वयं प्रकृति द्वारा निर्धारित धर्म पर ही आधारित है ?
और फिर हमारा धर्म तो सबसे प्राचीन व अनुभवी है, फिर क्यों हम इस योग्य नहीं हो पाए कि लोग हमारा अनुसरण करें और हमसे मार्गदर्शन लें ? क्यों आज हम इतने कमजोर और जर्जर हो गये कि हमारे धर्मगुरुओं को ही विदेशी धर्मों का अनुसरण करना पड़ गया ?
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