Ubuntu: मैं हूँ क्योंकि हम हैं !

सुसंस्कृत, सभ्य, धार्मिक व पढ़े-लिखे समाज को जब मैं देखता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि ये लोग मेरे लिए अजनबी हैं। ये लोग मुझे कभी भी अपने जैसे नहीं लगते, बहुत गैर लगते हैं। शायद यही कारण रहा कि मैं इनसे दूर एकांत में रहना पसंद करता हूँ। मिलना जुलना भी रास नहीं आता मुझे इस लोगों से।
नौ दस वर्ष की उम्र में जब मैं शहर यानी दिल्ली आया तो सबकुछ बहुत ही अजीब सा लगा। हालांकि कुछ ही दिनों में हम सामान्य हो गये, लेकिन भीतर से सामान्य कभी नहीं हो पाया। जैसे जैसे मैंने दिल्ली के समाज को गहराई से जाना, उतना ही दिल्ली बेगानी होती चली गयी। फिर मैं हरिद्वार चला गया, लेकिन वहां और दिल्ली के व्यव्हार में कोई विशेष अंतर नहीं मिला मुझे और फिर मैंने हरिद्वार भी छोड़ दिया।
कारण समझ में नहीं आया था पहले कभी कि मैं असामान्य हूँ या दुनिया असामान्य है। भीतर था कोई जो कहता था कि ये लोग गलत राह पर हैं, लेकिन तुम सही राह पर हो..बेशक तुम आज अकेले हो इसलिए दुनिया तुम्हें गलत मान रही है क्योंकि बहुमत गलत लोगों के साथ है। मुझे आश्रम में भी विरोध सहना पड़ा क्योंकि आश्रम के ट्रस्टियो से लेकर ग्रामीणों तक का मानना था कि मैं गलत हूँ और वे लोग सही हैं। तो गलत है मेरा वह सिद्धांत जिसके अंतर्गत मैं मानता हूँ कि ‘जग सुखी तो मैं सुखी’।
सभी विद्वान मानते हैं कि ‘मैं सुखी तो जग सुखी’ का सिद्धान्त ही ईश्वरीय सिद्धान्त हैं। इसी सिद्धांत पर चलते हुए देखता हूँ सभी साधू-संतों को, व्यापारी नेताओं को, धार्मिक और पढ़े-लिखों को। और इस प्रकार से जब तुलना करता हूँ तो में स्वयं को अकेला पाता हूँ, जबकि सारी दुनिया मुझे अपने विरोध में ही दिखाई देती है।
पास्ट लाइफ रिग्रेशन की एक दो क्लास में यह अनुभव हुआ मुझे कि मैं गलत जगह पर हूँ। मुझे शहर और शहरी रास नहीं आते, मुझे ये पूजा-पाठ, धार्मिकता का ढोंग करने वाले धार्मिक रास नहीं आते… मुझे रास आते हैं निश्छल आदिवासी और ग्रामीण। तो इसका सीधा सा अर्थ है कि मैं पूर्वजन्म में या तो ऋषि-मुनि रहा होऊंगा या फिर आदिवासी। इन दोनों में बहुत बहुत समानता है।
ऋषि-मुनि और आदिवासी बिलकुल प्राकृतिक जीवन जीते हैं और सनातन धर्मानुसार आचरण करते हैं। इसलिए ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं ईश्वर की नजर में और दुनिया इनके विरोध में। ऋषियों को तो मिटा दिया, और अब आदिवासियों को मिटाने की तैयारी में है समाज। क्योंक आदिवासी इनकी अप्राकृतिक जीवन शैली में ढल नहीं पायेंगे और विद्रोह करेंगे। इसलिए सुनियोजित तरीके से उनको मिटाया जा रहा है कोई न कोई आरोप लगाकर।
मैं मानता हूँ कि आदिवासी ही वास्तविक सनातन सिद्धांत का पालन करते हैं, बाकी सभी पाखण्डी हैं।
निम्नलिखित प्रसंग पर ध्यान दें…
उबुन्टु (UBUNTU)एक सुंदर कथा :
कुछ आफ्रिकन आदीवासी बच्चों को एक मनोविज्ञानी ने एक खेल खेलने को कहा।
उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ और कैंडीज एक वृक्ष के पास रख दिए।
बच्चों को वृक्ष से 100 मीटर दूर खड़े कर दिया।
फिर उसने कहा कि, जो बच्चा सबसे पहले पहुँचेगा उसे टोकरी के सारे स्वीट्स मिलेंगे।
जैसे ही उसने, _रेड़ी स्टेडी गो_ कहा…..
तो जानते हैं उन छोटे बच्चों ने क्या किया ?
सभी ने एक दुसरे का हाँथ पकड़ा और एक साथ वृक्ष की ओर दौड़ गए.
पास जाकर उन्होंने सारी मिठाइयाँ और कैंडीज आपस में बराबर बाँट लिए और मजे ले लेकर खाने लगे।
जब मनोविज्ञानी ने पूछा कि, उन लोगों ने ऐंसा क्यों किया ?
तो उन्होंने कहा— “उबुन्टु ( Ubuntu ) “
जिसका मतलब है;
उबुन्टु ( Ubuntu ) का उनकी भाषा में मतलब है,
” मैं हूँ क्योंकि, हम हैं ! “
सभी पीढ़ियों के लिए एक सुन्दर सन्देश,
आइए इस के साथ सब ओर जहाँ भी जाएँ, खुशियाँ बिखेरें,
आइए _उबुन्टु ( Ubuntu ) वाली जिंदगी जिएँ…..
” मैं हूँ, क्योंकि, हम हैं….!”
~ विशुद्ध चैतन्य
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