विवाह की वेदी पर प्रेम की हत्या हो जाती है

ओशो ने कहा था, “प्रेम जब विवाह में परिवर्तित हो जाता है, तब प्रेम की हत्या हो जाती है। ना प्रेम बचता है, न प्रेमी और न ही प्रेमिका।”
प्रेम एक ऐसी ऊर्जा है, जो इंसान को भौतिक ऊँचाई से आध्यात्मिक ऊंचाई कुछ भी प्राप्त करवा सकती है। प्रेम इंसान को भीतर से जागृत कर देता है, उसकी सोयी हुई शक्तियों को जागृत कर देता है।
लेकिन फिर एक दिन विवाह हो जाता है और फिर सारी शक्तियाँ वापस सोने चले जाती हैं। और पति-पत्नी को एक दूसरे में खोट दिखाई देने लगता है। स्थिति कई बार इतनी गंभीर हो जाती है, कि दोनों एक दूसरे के जान के दुश्मन तक बन जाते हैं। क्योंकि प्रेम का अभाव होते ही घृणा अपना स्थान ले लेता है। बिलकुल वैसे ही जैसे प्रकाश का अभाव ही अंधकार है।
शायद इसीलिए शीरी-फरहाद, हीर-राँझा, मीरा-श्री कृष्ण का प्रेम अमर हो गया, क्योंकि उनका विवाह नहीं हो पाया था।
मैंने भी अब तक यही देखा है, जितने भी प्रेमी-प्रेमिकाओं का विवाह हुआ, उनमें से अधिकांश टूट गए। विवाह के सात फेरों के साथ ही प्रेम भी उसी विवाह वेदी में स्वाहा हो जाती है।
प्राचीनकाल में विवाह का अवश्य महत्व था लेकिन आधुनिक काल में नहीं। क्योंकि प्राचीन काल में स्त्रियों और पुरुषों की परवरिश अलग-अलग होती थी। पुरुषों को बाहरी कार्यों, युद्ध, कृषि, व्यापार आदि के लिए ट्रेंड किया जाता था, जबकि स्त्रियों को गृहकार्यों के लिए।
इसलिए प्राचीन काल की स्त्रियाँ घरों को बहुत अच्छी प्रकार संभाल लेती थी, जबकि आधुनिक काल की महिलाएं घर और बाहर दोनों का बोझ उठाकर चलती हैं। पुरुष भी आज घर और बाहर के दोनों कार्य कर लेते हैं, उन्हें किसी स्त्री पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
और मेरी समझ से प्राचीन काल अपनी जगह सही था और आधुनिक काल अपनी जगह। जल्दी ही विवाह जैसी प्रथा भी लुप्त हो जाएगी, क्योंकि विवाह के बाद अधिकांश अपनी किस्मत को कोसते ही मिलते हैं। ऊपर से पढ़े-लिखे जाहिलों द्वारा निर्मित कानून, पति-पत्नियों की ज़िंदगी को और नर्क बना देते हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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