संभवतः सकारात्मक इंसान और गिद्धों में कोई अंतर नहीं होता

जब मुग़ल आए भारत को लूटने, तब सकारात्मक लोग ध्यान, भजन-कीर्तन कर रहे थे, थाली-ताली बजा रहे थे और नकारात्मक लोग लुटेरों से युद्ध कर रहे थे।
जब अंग्रेज़ आए, जब पुर्तगाली आए, जब फ्रांसीसी आए भारत पर कब्जा करने, तब भी सकारात्मक लोग थाली-ताली बजाकर नाच रहे थे और नकारात्मक लोग युद्ध कर रहे थे।
आज भी जब भारत नीलाम हो रहा है, बर्बाद हो रहा है, तब सकारात्मक लोग थाली-ताली बजकर नाच रहे हैं, क्रिकेट देख रहे हैं, नेताओं, अभिनेताओं के पीछे दौड़ रहे हैं। जबकि नकारात्मक लोग विरोध कर रहे हैं, जेल जा रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं।
सकारात्मक लोगों ने ज़िन्दा लाश बना दिया मानव समाज को
शायद सकारात्मकता इसीलिए श्रेष्ठ है, क्योंकि मरे कोई भी, बर्बाद चाहे अपना ही देश क्यों न हो जाये, अंत में सत्ता-सुख और चिताओं पर रोटी सेंककर खाने का सुख सकारात्मक लोगों को ही मिलता है। जैसे आज श्री लंका की सकारात्मक जनता राष्ट्रपति भवन के स्विमिंग पूल का आनंद ले रही है।
अगर श्री लंका की जनता सकारात्मक ना होती, तो सबकुछ लुट-पिट जाने के बाद होश में आने का इंतज़ार ना करती।
आज जब श्री लंका बर्बाद हो गया, तो श्रीलंका की सकारात्मक जनता को होश आया।
आइए नकारात्मक हो जाएं !!!
क्योंकि सकारात्मक लोगों ने देश और मानवजाति का बड़ा नुकसान किया है।
सकारात्मक लोगों के कारण ही आज भारत की यह दुर्दशा हुई, श्रीलंका बर्बाद हुआ।
जब स्वतंत्रता सेनानी अपने प्राणों की आहुतियाँ दे रहे थे, तब सकारात्मक लोग फिरंगियों के तलुए चाट रहे थे।
आज भी सकारात्मक लोग मौज मस्ती में डूबे हुए हैं। क्योंकि देश व जनता को लुटवाने वालों की जय-जय करने के एवज में 5 किलो राशन, एक बोतल दारू मिल जाता है।
ये सकारात्मक लोग ही हैं, जिनकी वजह से भारत हज़ार वर्षों से अधिक तक फिरंगियों का गुलाम रहा और आज भी है।
आदमी और गिद्ध
प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री गोपाल चतुर्वेदी की रचना “आदमी और गिद्ध” नामक पुस्तक में भी इन्सानों की तुलना गिद्धों से की गयी है। पुस्तक का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है:
एक गिद्ध ने थके-हारे बुजुर्ग को स्मरण दिलाया, “अब तो वृद्ध के प्राण भी छूट गए हैं। वह बाहर लॉन में केवल कुत्ते और चिड़ियों के साथ अकेला पड़ा है। भूख मिटाने का यह स्वर्णिम अवसर है। बस, हमें धावा बोलना है।” वृद्ध गिद्ध ने एक बार चोंच घुमाकर सबकी तरफ देखा, फिर दु:खी स्वर में बोला, “चलो, कहीं और चलें। जिसे पशु-पक्षियों से इतना स्नेह था कि वे उसकी लाश पर रो रहे हैं, उसमें चोंच गड़ाने का जी नहीं कर रहा है। मानव में भले न बची हो, पर हममें तो गिद्ध-संवेदना अभी भी शेष है।” गिद्ध शहर से कूच कर जंगल की ओर उड़ लिये। बुजुर्ग को डर लगा कि यदि वे देर तक शहर में रुके तो गिद्धों पर कहीं इनसानों का साया न पड़ जाए! वैसे भी शहरों में गिद्धों की दरकार ही क्या है, वहाँ एक-एक घर में कई-कई गिद्ध हैं।
—इसी पुस्तक से प्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी के ये व्यंग्य-लेख अत्यंत धारदार हैं और वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों-विद्रूपताओं की पोल खोलते नजर आते हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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