अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलुका कह गए
क्या मलुकदास जी ने यह दोहा आलसियों के लिए ही कही थी ?
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काम,
दास मलूका कह गए सब के दाता राम
अर्थ- अजगर को किसी की नौकरी नहीं करनी होती और पक्षी को भी कोई काम नहीं करना होता, ईश्वर ही सबका पालनहार है, इसलिए कोई भी काम मत करो ईश्वर स्वयं देगा। श्री मलूकदास जी का ये कथन क्या आलसी लोगों पर कटाक्ष है ?
क्या अजगर और पक्षी आलसी प्राणी होते हैं ?
जिसने भी अजगर को शिकार करते देखा हो, वह अच्छी तरह से जानता है कि अजगर रत्तीभर भी आलसी नहीं होता। यदि वह आलसी होता, तो हिरण और खरगोश जैसे तेज और चुस्त प्राणियों का शिकार न कर पाता। और ऐसा पक्षी मैंने तो नहीं देखा, जो आलसी होता हो।
फिर यह भी प्रश्न उठता है कि काम या चाकरी करना यदि ईश्वरीय आदेश या सनातन धर्म होता, तो सभी प्राणी चाकरी करते। केवल मानव, गधा, घोड़ा, बैल, कुत्ता ही चाकरी यानी नौकरी करने के लिए जन्म ले रहे हैं, तो क्यों ?
क्या कभी अपने-अपने आराध्यों, ईश्वरों से प्रश्न किया आपने ?
जानता हूँ कि किसी ने भी प्रश्न नहीं किया होगा, क्योंकि कभी इस विषय में चिंतन-मनन करने का समय ही नहीं मिला होगा।
पैदा होते ही माता-पिता को नौकरी करते देखा। यदि माता-पिता नौकरी नहीं कर रहे थे किसान थे, तो जाना कि जो नौकरी या गुलामी कर रहे हैं माफियाओं और लुटेरों की, उनकी नजर में किसानों का कोई सम्मान नहीं। माता-पिता भी कहते हैं कि बेटा हम लोग अनपढ़ थे, इसलिए नौकरी नहीं कर पाये। तू दिल लगाकर पढ़ना ताकि तुझे अच्छी नौकरी मिले। तुझे अच्छी नौकरी मिलेगी तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा, हमारे भी अच्छे दिन आ जाएंगे और हमारी गरीबी भुखमरी दूर हो जाएगी।
क्यों ऐसा हुआ कि कृषिकर्म दरिद्रता, विवशता और भुखमरी का प्रतीक बन गया और दस्ता #Slavery, चाकरी और मजदूरी प्रतीक बन गए सम्मान और समृद्धि का ?
क्यों समाज ने कृषि कर्म से दूरी बनाना शुरू कर दिया और चाकरी, मजदूरी और गुलामी को जीवन के मुख्य उद्देश्य बना लिया ?
प्राचीनकाल में कहावत थी,
उत्तम खेती , मध्यम बान (व्यापार), निखद (निकृष्ट) चाकरी (नौकरी) भीख समान
खेती को सबसे उत्तम काम माना गया, व्यापार को मध्यम श्रेणी का काम और नौकरी को भीख के समान निकृष्ट काम माना गया है ।
चाकरी को भीख तुल्य क्यों माना गया ?
क्योंकि भिखारी और चाकर मालिक की कृपा और दया और कृपा पर आश्रित रहते हैं। उन्हें यह भी अधिकार नहीं होता कि वे गलत को गलत कह सकें या किसी अधर्म, अत्याचार और शोषण का विरोध कर सकें। यदि वे विरोध करेंगे, तो उन्हें परिवार समेत भूखा मरना पड़ेगा, क्योंकि नौकरी जा सकती, भीख मिलना बंद हो सकता है।
व्यवसाय चाहे कोई भी हो, किसी भी प्रकार का हो उसे मध्यम श्रेणी का माना गया। क्योंकि वैश्य किसी पर आश्रित नहीं होता, बल्कि उसपर आश्रित सभी होते हैं। वैश्य ही उत्पादक और उपभोक्ता के बीच का सेतु होता है। वैश्य के माध्यम से उत्पादक का उत्पाद उभोक्ताओं तक पहुंचता है और उत्पाद का मूल्य उत्पादकों तक पहुंचता है।
कृषि को सर्वोच्चकर्म माना गया, क्योंकि कृषक स्वामी होता है अपने खेत, अपनी भूमि का। वह यदि अनाज, फल, सब्जियाँ उपलब्ध करवाना बंद कर दे, तो भी उसे कोई अधिक हानि नहीं होगी। क्योंकि वह अपने परिवार के लिए आवश्यक अनाज, फल व सब्जियाँ उगाकर परिवार को भूखा मरने से बचा लेगा। और यही कारण है कि कृषक को किसी से दबने और डरने की आवश्यकता नहीं होती।
कृषक ही क्षत्रिय भी होते हैं, क्योंकि वे अपने खेतों की रक्षा के साथ-साथ देश की भी रक्षा करते हैं आवश्यकता पड़ने पर। कृषकों की सन्तानें ही सेना या पुलिस में शामिल होते थे, क्योंकि वे निडर और साहसी होते थे।
फिर ऐसा क्या हुआ कि कृषक अर्थात किसान सबसे निचली श्रेणी में आ गए और जो सबसे निचली श्रेणी में थे, वे सर्वोच्च श्रेणी में आ गए ?
यदि हम समझने का प्रयास करें, तो शहरीकरण के साथ ही मान्यताएँ भी बदली क्योंकि शहरों में खेती होती नहीं। और चूंकि शहरों में खेती होती नहीं, तो शहरी लोगों के पास आजीविका के लिए व्यापार या चाकरी के सिवाय और कोई विकल्प भी नहीं होता।
समय के साथ शहरों का विकास हुआ और शहरी लोग आर्थिक रूप से समृद्ध होते चले गए। जबकि किसानों ने स्वयं को अपग्रेड अर्थात उन्नत करने पर ध्यान नहीं दिया, इसलिए वे खेतों के मालिक से खेतों के मजदूर बनकर रह गए। अब वैश्यों के आदेश पर वे फसल उपजाते और जब फसल तैयार हो जाती, तब फसल की सही कीमत के लिए वैश्यों अर्थात बिचौलियों/दलालों के आगे गिड़गिड़ाते। क्योंकि यदि वे फसल नही उठाएंगे तो उनकी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और वे कर्जो में डूब जाएँगे।
इस प्रकार किसानों को मालिक से मजदूर बनाकर रख दिया और आज किसानों की स्थिति यह है कि वे अपने उत्पाद, अपने परिश्रम की कीमत भी स्वयं तय नहीं कर सकते। जबकि बिचौलिये उन्हीं उत्पादों को मनचाही कीमत पर बेचकर मालामाल हो रहे हैं।
उदाहरण के लिए नींबू और टमाटर को ही लीजिये। किसानों से जिस कीमत पर खरीदी बिचौलियों ने, क्या उसी भाव में बेच रहे हैं ?
किसान अपने बगीचे में सब्जी उगाते हैं और उससे एक कीमती चीज तैयार होती है। नीचे दी गयी तस्वीर को देखिये, शायद आप उस सब्जी का नाम बता पाएँ।
क्या पहचाना आपने ?
अब इसकी कीमत भी देख लीजिये।
आप गांव चले जाइए, कोई पूछता भी नहीं इन्हें। यूं ही बेलों पर झूलते पाये जाएँगे क्योंकि किसानों के पास इतनी अक्ल नहीं होती कि इन्हें बेचकर भी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
तो किसानों की दरिद्रता के लिए किसान स्वयं दोषी हैं। वे सरकारों और माफियाओं की कृपा और दया पर आश्रित रहने की बजाय, स्वयं अपने उत्पादों और श्रम की कीमत तय करते, तो आज किसानों के बच्चों को नौकरी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
इस विडियो को देखिये;
इस विडियो में जो लड़की है, क्या कहीं से भी वह दरिद्र, विवश, लाचार नजर आ रही है ?
अपना खेत है, अपनी मर्जी की मालकिन है, अपने अंदाज़ में जी रही है। क्या आप भी ऐसे नहीं जी सकते अपने ही खेतों पर काम करते हुए ?
तो चलिये वापस लौटता हूँ अपने विषय पर कि काम यानि माफियाओं की गुलामी किए बिना क्या हम जी नहीं सकते ?
शेर जब तक अनपढ़ था स्वतन्त्र था और जंगल का राजा था
क्या आप जानते हैं शेर जब तक अनपढ़ था स्वतन्त्र था और जंगल का ही नहीं, अपने मन का भी राजा यानि मालिक था। लेकिन फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जंगल पहुंचे, शेर को पढ़ा-लिखा और डिग्रीधारी होने का महत्व समझाया। शेर को उनकी बातें समझ में आयी और अपने बच्चों को शहर भेज दिया पढ़ा-लिखा डिग्रीधारी बनने के लिए।
स्कूल पढ़ने पहुँचे शेर के बच्चे तो पाया कि सभी नौकरी करने के लिए पढ़ाई कर रहे हैं। ज्ञान अर्जित करने के लिए कोई पढ़ाई कर ही नहीं रहा। सभी को अच्छे नंबर लाने हैं ताकि अच्छी नौकरी मिले।
शेर के बच्चों ने भी पढ़ाई की, अच्छे नंबर लाये और फिर शहरी चिड़ियाघरों और सर्कसों की शान बन गए। अब उनमें और देश के पढ़े-लिखे नेताओं, अभिनेताओं और क्रिकेटर्स में कोई अंतर नहीं रहा था। शेर के पढ़े-लिखे बच्चे भी नेताओं, अभिनेताओं, यूपीएससी टॉपर्स और पढ़े-लिखे डिग्रीधारियों की तरह मालिकों के इशारे पर तमाशा दिखाने लगे। दुनिया में उनका बड़ा नाम होने लगा, सम्मान होने लगा, लोग ऑटोग्राफ लेने के लिए लाइन लगाने लगे।
उस घटना के बाद से ऐसी धारणा बन गयी, ऐसी परम्परा चल पड़ी पढ़ा-लिखा डिग्रीधारी होने की, यदि किसी पढ़े-लिखे को सरकारी नौकरी मिल गयी या किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गयी, विदेश में नौकरी मिल गयी, तो माता-पिता ही नहीं, पूरा कुनबा इकट्ठा हो जाता है, पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता है बधाइयाँ देने। माता-पिता को ऐसा लगता है कि उनसे अधिक भाग्यवान इस दुनिया में और कोई नहीं।
क्या मानव का जन्म काम करने के लिए ही हुआ है ?
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने कहा था, “हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए,जो काम-धाम छोड़कर धर्म का महिमा मंडन करें और मनुष्य को निकम्मा बनाए”।
हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए….ये वाक्य किसी तानाशाह के हो सकते हैं, किसी हिटलर के हो सकते हैं, लेकिन किसी इंसान के तो बिलकुल भी नहीं। इंसान तो छोड़िये पशु-पक्षी भी ऐसा नहीं सोच सकते। इसीलिए एक जंगल में सभी प्रकार के जीव जन्तु रह सकते हैं। लेकिन शहर में आपको वैसे ही रहना होगा, जैसा शहर का मालिक चाहेगा।
समाज में आपको वैसे ही रहना होगा, जैसा समाज का मालिक और ठेकेदार चाहेगा। सभी को काम करना चाहिए और काम कौन सा ?
वह काम जो शहर या समाज के मालिक या ठेकेदार को लाभ पहुंचाते हों। और जो लाभ देने वाला काम नहीं कर रहा, वह निकम्मा कहलाएगा, हरामखोर कहलाएगा।
“निकम्मा” अर्थात जिसके पास कोई काम न हो, जो कुछ कमा ना रहा हो।
और कमाना क्या है ?
वे कागज के नोट, वे डिजिटल करेंसी जो आपका कभी होता ही नहीं। आजीवन कमाते रहिए, लेकिन आप स्वयं उसका सुख नहीं भोग सकते। उस धन का सुख हमेशा दूसरे भोगेंगे, जैसे कोल्हू का बैल दिन भर काम करता है तेल निकालने का। लेकिन वह तेल उसके किसी काम नहीं आता।
आप जितना अधिक कमाओगे, उतना अधिक स्वयं को दुखों और कष्टों से घिरा पाओगे। क्योंकि अप्राकृतिक वस्तु कमाने पर अप्राकृतिक समस्याएँ भी घेरती हैं, जैसे की ईडी, सीबीआई, सरकार, माफिया।
क्या जानते हैं आप कि ज़ाकिर हुसैन साहब कोई काम नहीं करते, केवल तबला बजाते हैं ?
क्या जानते हैं आप कि सचिन तेंदुलकर कोई काम नहीं करता केवल क्रिकेट खेलता है ?
क्या जानते हैं आप कि एमएफ हुसैन कोई काम नहीं करते थे केवल चित्र बनाते थे ?
क्या जानते हैं आप कि लतामंगेशकर कोई काम नहीं करती थी, केवल गाना गाती थी ?
ऐसे ही दुनिया में बहुत से लोग हैं जो कोई काम नहीं करते। कोई प्रवचन करना है, कोई कथा सुनाता है, कोई भजन, गजल गाता है, कोई संगीत बजाता है, कोई चित्रकारी करता है, कोई समाचार पढ़ता है…..
और इनमें से बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जो केवल अपने रुचि और मानसिक संतुष्टि के लिए यह सब करते हों। उन्हें कमाने की आवश्यकता ही न हो। तो क्या इन्हें सब को देश से निकाल दिया जाए और दाभोलकर जैसे लोगों के पसंद के लोगों को ही देश में रहने दिया जाये ?
क्या कभी सोचा है कि जो आप कमा रहे हैं, वह जा कहाँ रहा है और उस कमाई से भलाई किन लोगों की हो रही है ?
हिसाब लगाइए कि कोल्हू का बैल बनकर दिन रात जो आप कमा रहे हैं, वह जा कहाँ रहा है ?
कितना प्रतिशत आप टैक्स के रूप में सरकार को दे रहे हैं, कितना प्रतिशत माफियाओं और लुटेरों को दे रहे हैं अनावश्यक वस्तुएं खरीदकर ?
कौन कौन सी वस्तुएं ऐसी हैं, जिन्हें आप कई बरस प्रयोग कर सकते थे, लेकिन समाज, सरकार के दबाव या भेड़चाल के कारण आपको वह बेचकर नया खरीदना पड़ता है ?
जैसे कि वाहन की देखरेख सही प्रकार से कर रहे हैं, तो आप पंद्रह बरस से अधिक चला सकते हैं। लेकिन सरकारी दबाव के कारण पंद्रह बरस बाद उसे फेंकनी होगी।
ऐसे ही कई अनावश्यक खर्चे हैं, जो आपकी कमाई उड़ा लेती है।
तो आप आजीवन कमाते रहते हैं और माफियाओं की गिरोह यानि सरकारें और उनके पूंजीपति सहयोगी आपकी कमाई लूटकर स्विस बैंक में जमा करवाते रहते हैं।
क्या कभी आपके दिमाग में यह विचार नहीं आया कि आपकी मेहनत की कमाई अपने देश में खर्च ना होकर स्विस बैंक की तिजोरी में क्यों पड़ी हुई है ?
जानता हूँ कि नहीं आया होगा, क्योंकि कोल्हू के बैलों को कर्म करने से मतलब है, परिणाम की चिंता थोड़े ही करनी होती है।
कर्म का विरोधी नहीं हूँ और ना ही कमाने का विरोधी हूँ। लेकिन ऐसे कर्म और कमाई का विरोधी हूँ, जिससे देश के लुटेरों और माफियाओं के विरुद्ध मुँह खोलने साहस ही मर जाये, इंसान से भेड़ और बत्तख बनकर रह जाए।
इतना बड़ा लेख लिखने का उद्देश्य यही है कि आपकी समझ में यह आ सके कि मानव का जन्म गुलामी करने के लिए नहीं हुआ है और ना ही कोल्हू का बैल बनकर माफियाओं और देश के लुटेरों के लिए मजदूरी करने के लिए हुआ है। ईश्वर ने सभी पूरी स्वतन्त्रता के साथ पृथ्वी पर भेजा है और सभी की आजीविका की पूरी व्यवस्था की है। फिर चाहे वह कीड़े मकोड़े हों, पशु-पक्षी हों, या इंसान। ईश्वर ने किसी को किसी से कम या अधिक नहीं समझा।