सात्विक्तता, धार्मिकता और सकारात्मकता के दुष्परिणाम भुगत रहा है विश्व

कौन सा पंथ या सिस्टम सही है और कौन सा गलत ?
कौन सा कर्म नैतिक है और कौन सा अनैतिक ?
यदि हम ध्यान दें, तो पाएंगे कि कुछ भी नैतिक नहीं और कुछ भी अनैतिक नहीं। कोई भी सिस्टम सही नहीं और कोई भी गलत नहीं।
जो जिस परिवेश में पला बढ़ा, जैसी परवरिश मिली वही उसके लिए सही है। और स्वाभाविक है कि यदि एक को सही कहना हो, तो दूसरे को गलत घोषित करना ही पड़ेगा। अन्यथा सही का कोई मूल्य रह नहीं जाएगा।
उदाहरण के पाश्चात्य संस्कृति को जीने वालों के लिए, अन्य संस्कृतियाँ ढोंग, पाखंड, ढकोसला, अंधविश्वास हो जाता है।
इनके लिए धोती-कुर्ता पहना व्यक्ति असभ्य, अशिक्षित हो जाता है, लेकिन कोट-पेंट और टाई पहना व्यक्ति शिक्षित और सम्मानित हो जाता है। और यदि पाश्चात्य संस्कृति को जीने वाला समाज निर्वस्त्र भी घूमने लगे, तो उसे आधुनिक माना जाने लगता है।
शहरों में जीने वालों के लिए ग्रामीणों का जीवन ढोंग, पाखंड और अंधविश्वास हो जाता है। भले ये खुद डॉक्टर, अस्पताल, साइंटिस्ट्स, सरकारों, माफियाओं पर किसी ग्रामीण से अधिक अंधविश्वास करते हों।
पाश्चात्य संस्कृति को अपना आदर्श मानने वाले अंबेडकरवादी, पेरियारवादी, वामपंथी और नास्तिक सम्प्रदाय के लोगों के गुरु, आदर्श हमेशा विदेशी ही रहते हैं। ये लोग भारत को विदेशी संस्कृति में ढालने के लिए दिन रात एक किए रहते हैं। असल में ये लोग पाश्चात्य संस्कृति के ध्वजधावक होते हैं। ये लोग पाश्चात्य संस्कृति का अनुयायी होते हैं और पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार प्रसार करने के लिए दृढ़ संकल्पित रहते हैं।
क्या आप जानते हैं कि शिष्य, अनुयायी और भक्तों में बहुत अंतर होता है, लेकिन लोग समझते हैं कि केवल सम्बोधन का अंतर है ?
शिष्य वे कहलाते हैं जो पुत्र समान होते हैं। अर्थात जो गुरु से जो कुछ सीखते हैं, उन्हें अपने आचरण में उतारते हैं। और शिष्यों में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो गुरु से सीखी विद्याओं या शिक्षाओं को और अधिक परिष्कृत करके आगे बढ़ाते हैं या फिर अपने अनुभवों के आधार पर कुछ नया रूप दे देते हैं।
शिष्यों को पुत्रों से बढ़कर माना गया है, क्योंकि पुत्र फिर भी अपने पिता को भूल सकता है, लेकिन शिष्य नहीं भूलता और यथा संभव गुरु की सेवा और सहायता करता रहता है।
अनुयायी उन्हें कहा जाता है जिन्हें शिक्षाओं से मतलब नहीं रहता, लेकिन नकल करने और जयकारा लगाकार गुरु के नाम पर धंधा करने में विशेष रुचि रहती है। इनमें गुरु से प्राप्त शिक्षा का कोई असर दिखाई नहीं देता, केवल गुरु की तस्वीरें इनके घरों, दुकानों और गले में पड़ी माला में दिखाई देती है।
अनुयायी गुरु के नाम पर नाम पर नया दड़बा बना लेते हैं और फिर अपने नियम कानून बनाकर दड़बों के सदस्यों को हांकना शुरू कर देते हैं। गुरु के नाम पर कमाई के नए-नए तरीके खोजे जाने लगते हैं और फिर एक बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया जाता है। भले इनके गुरुओं ने धर्म, सत्य, न्याय के लिए अपने प्राणो की आहुती दी हो, अनुयायी धन के लिए अपने प्राणों की आहुती देने लगते हैं। केवल प्राणो की ही नहीं, ईमान, ज़मीर, जिस्म सबकी आहुती दे देते हैं धन के लोभ में।
यही कारण है कि सात्विक, धार्मिक, सभ्य कहलाने वाले अनुयाइयों का समाज कभी भी अधर्म के विरुद्ध मुँह नहीं खोलता। देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध मुँह नहीं खोलता। बल्कि आप देखेंगे कि ये लोग लुटेरों, माफियाओं के सामने नतमस्तक होते हैं। फार्मा माफियाओं के दलाल बने घूमते हैं, राजनैतिक पार्टियों के दलाल बने घूमते हैं।
और अंत में आते हैं भक्त, जिनका शिक्षाओं से कोई संबंध नहीं होता। इन्हें तो बस जय-जय करके मुनाफा कमाना होता है। जिसकी भी भक्ति करने से इन्हें आर्थिक लाभ होने लगे, वहीं जय-जय करने लगते हैं।
तो जितने भी राजनैतिक, साम्प्रदायिक, जातिवादी पंथ, सम्प्रदाय, पार्टियाँ हैं, उनमें मूल रूप से कोई अंतर नहीं होता। सभी भौतिक सुखों के लिए, धन और ऐश्वर्य भोगने के लिए संगठित होते हैं। केवल इनकी किताबों में बड़ी बड़ी महान नैतिकता, त्याग, बलिदान की बातें लिखी मिलेंगी, लेकिन इनके कर्म बिलकुल विपरीत मिलेंगे।
ये सात्विक लोग बताएँगे कि इनके गुरुओं ने अधर्म, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं, लेकिन स्वयं अधर्मियों के साथ खड़े हो जाएँगे। और दुनिया को सिखाएँगे कि “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीना ही आध्यात्म है। जब देश लुट रहा हो, बर्बाद हो रहा हो, तो तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तुम तो केवल ध्यान करो, भजन करो, कीर्तन करो, कॉमेडी शो देखो, क्रिकेट देखो और अपनी कमाई के नए नए रास्ते खोजो। देश की चिंता ईश्वर स्वयं कर लेगा।
केवल दो सौ वर्षो में आध्यात्मिक, धार्मिक, सात्विक, सकारात्मक और संतुष्ट लोगों ने समस्त विश्व को जितनी क्षति पहुँचाई, उतनी क्षति समस्त विश्व के अन्य प्राणी मिलकर भी लाखों वर्षो में नहीं पहुँचा पाये थे।
नीचे कुछ तस्वीरें दे रहा हूँ जिसमें सरिता प्रकाश जी अपने स्वयं के बगीचे में उगाये फलों से जाम बना रही हैं। और ये सब कर रही हैं जर्मनी में रहकर। जबकि हमारे अपने देश में लोग खेत बेच-बेचकर डिग्रियाँ खरीद रहे हैं, सरकारी नौकरी खरीद रहे हैं। क्योंकि उपनिवेशवाद को ढोते-ढोते भारतीयों के मन में यह धारणा बैठ गयी है भारत में जन्म लेने वाला हर भारतीय नौकरी और गुलामी करने के लिए जन्म लेता है। पढ़ाई भी करता है तो यह मानकर करता है कि अच्छे नस्ल का गुलाम बनना है और गुलाम बनकर अपने ही देश को लूटने और लुटवाने में विदेशियों की सहायता करना है।


सारांश यह कि आध्यात्मिकता, सात्विक्ता, धर्म और सकारात्मकता की आढ़ में देश व जनता के लुटेरों का सहयोगी बनाया जाता रहा। कहा जाता रहा कि ईश्वर सब ठीक कर देगा, तुम तो केवल भजन कीर्तन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज में मस्त रहो। सरकारों के अन्याय और अत्याचारों का विरोध करना तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हें अधर्म, अन्याय और अत्याचार का विरोध तभी करना है, जब तुमपर या तुम्हारे परिजनों पर हो रहा हो। तब तुम चीखना, चिल्लाना कि अन्याय हो रहा है, अत्याचार हो रहा है….बाकी पूरा देश बर्बाद हो जाये, तुम बस भजन कीर्तन करते रहना। ईश्वर आएंगे और अधर्मियों, अत्याचारियों को सजा देंगे।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
