समाज ने जिसे सही बताया था, क्या वास्तव में वह सही ही था ?

सही और गलत में उलझा दिया जाता है बचपन से ही बच्चों को। और अधिकांश तो इतने उलझ जाते हैं कि जीवन के अंतिम क्षणों तक नहीं जान पाते कि समाज ने जिसे सही बताया था, क्या वास्तव में वह सही ही था ?
यदि कोई भी एक सिद्धान्त सही होता तो निश्चित था कि बाकी सभी सिद्धान्त गलत हो जाते ?
यदि बुरका या परदा प्रथा गलत था, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था, व्यक्ति के स्वतन्त्रता का हनन था, तो निश्चित ही प्रायोजित महामारी के आतंकियों द्वारा थोपा गया मास्क प्रथा भी गलत होता ?
यदि मूर्ति या व्यक्ति पूजा गलत होता, तो बुद्ध की प्रतिमाएँ नहीं पूजी जाती, अल्लाह का प्रतीक कुरान की आलोचना पर ईशनिन्दा नहीं मानी जाती।
यदि झूठ बोलना गलत होता, विश्वासघात करना गलत होता, जनता और देश को लूटना गलत होता, तो राजनेता, राजनैतिक पार्टियों और सरकारों का अस्तित्व ना होता ! क्योंकि इन सभी का आस्तित्व झूठ पर ही टिका होता है।
तो प्रश्न फिर से यही उठता है कि सही क्या है और गलत क्या ?
क्या आप जानते हैं कि हरामखोर और मुफ्तखोर दोनों का अर्थ बिलकुल अलग-अलग है ?
हराम कर अर्थ है वर्जित और मुफ्त कर अर्थ होता है बिना किसी शर्त लिया या दिया गया। वर्जित कुछ भी हो सकता है स्थानीय और सामाजिक मान्यताओं के आधार पर। सरकार भी वर्जनायें घोषित करती हैं और जो उन वर्जनाओं का उल्लंघन करता है, उसे सरकार अपराध मानती हैं।
तो हरामखोर अर्थात जो वर्जित है उसे अपनी आय का माध्यम बनाना या वर्जित कार्य करके अपनी व अपने परिवार की भूख मिटाना। जैसे कि रिश्वतख़ोरी, घोटालेबाजी, ठगी, बेईमानी की कमाई हरामखोरी में आती है। तो हरामखोर होना गलत हुआ क्योंकि यह नैतिक नहीं है, धार्मिक कर्म नहीं है। लेकिन मुफ्तखोरी गलत कैसे हो गया ?
मुफ्तखोरी यदि देखा जाये, तो केवल वैश्य और शूद्र समाज की अवधारणा है। वरना तो समस्त सृष्टि के समस्त प्राणी ही मुफ्तखोर हैं। क्योंकि किसान, खनन-माफिया, जल माफिया जो कुछ भी पृथ्वी से ले रहे हैं, उसके बदले पृथ्वी को कुछ भी नहीं लौटाते। लौटाना तो दूर की बात है, जब इनके मतलब का कुछ नहीं रह जाता, तब भूमि को बंजर बनाकर छोड़ जाते हैं और कहीं और खुदाई शुरू कर देते हैं। लेकिन समाज में इन मुफ्तखोरों का बड़ा सम्मान है। दुनिया इन मुफ्तखोरों की कंपनी में काम करके स्वयं को सौभाग्यशाली समझती है।
राजनेता और राजनैतिक पार्टियां भी मुफ्तखोर होती हैं। क्योंकि ये भी जनता से जो कुछ लेती हैं, बदले में सिवाय खोखले वादों और विश्वासघातों के और कुछ नहीं देती।
इस प्रकार यदि देखें, हम पाते हैं कि न मुफ्तखोरी गलत है समाज की नजर में और ना ही हरामखोरी।
तो फिर गलत क्या है ?
क्या भिखारी होना गलत है ?
क्यों ? भिखारी होना गलत कैसे हो गया ?
भिखारी तो जबर्दस्ती किसी से कुछ नहीं ले रहा, किसी से कुछ छीन नहीं रहा, कोई झूठे वादे नहीं कर रहा, तो गलत कैसे हुआ ?
क्या भिखारी बोझ हैं किसी समाज या देश के लिए ?
कैसे ? भिखारी बोझ कैसे हुए ?
क्या वे कोई टैक्स थोपते हैं ?
या वे कोई कानून थोपते हैं ?
क्या वे खनन-माफियाओं की तरह भूमि को बंजर बनाते हैं ?
बोझ कैसे हुए ?
आपकी हैसियत है उन्हें कुछ देने की तो दे दीजिये, नहीं है तो नमस्ते कर लीजिये। उन्हें भीख नहीं मिलेगा तो वे कहीं और चले जाएँगे, आपकी कनपटी पर बंदूक लगाकर छिनेंगे तो नहीं कुछ ?
क्या दान लेना गलत है ?
यदि दान लेना गलत है तो दान देना भी गलत हुआ ?
फिर आपके धार्मिक ग्रंथो में दान, जकात आदि की महिमा क्यों गायी गयी है ?
आपकी हैसियत है दान देने की दीजिये, नहीं तो नमस्ते कर लीजिये। इसमें गलत क्या है ?
क्यों जरूरी है कि हर कोई व्यापार ही करे, हर कोई मजदूरी ही करे, हर कोई देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का सहयोगी ही बने ?
कोई व्यक्ति चौराहे में बैठकर संगीत बजा रहा है। उस संगीत से किसी की शांति भंग नहीं होती, किसी को सुख मिलता है और वह कुछ राशि उसके दानपात्र पर डालकर चला जाता है। तो गलत क्या है ?
कोई व्यक्ति लिखता है उसके लेखन से प्रभावित होकर कुछ लोग उसे सहयोग राशि दे देते हैं, तो गलत क्या है ?
कम से कम झूठ बोलकर किसी को ठग तो नहीं रहा, किसी को झूठे आश्वासन तो नहीं दे रहा ?
फिर वह मुफ़्तखोर या भिखारी कैसे हो गया ?
साधु-संन्यासी दान लेते हैं, क्योंकि यदि वे नौकरी करेंगे, तो शूद्रों की तरह वे भी अधर्म व अन्याय के विरुद्ध आवाज नहीं उठा पाएंगे। यदि वे आवाज उठाएंगे तो नौकरी खोनी पड़ेगी, बीवी बच्चे फुटपाथ पर आ जाएँगे।
इसीलिए साधु-संन्यासी विवाह नहीं करते। क्योंकि विवाह उन्हें ऐसे बंधन में बांध देगा कि सर झुकाकर देश व जनता को लूटने वालों कि चाकरी करने के और कोई विकल्प बचेगा नहीं। एक अविवाहित संन्यासी को ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता परिवार की कनपटी में बंदूक रखकर। यह और बात है कि आधुनिक साधु-समाज में पाये जाने वाले साधु-संन्यासियों और ग्रहस्थों में कोई अंतर नहीं है। ना तो साधु-समाज विरोध करने का साहस करता है माफियाओं, ठगों और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का, न ही गृहस्थ, वैश्य और सरकारी समाज।
ऐसे में मेरे जैसे कुछ लोग विरोध करते हैं देश व जनता को लूटने वालों का, तो क्या समाज का दायित्व नहीं बनता हमारा सहयोग करने का ?
विशेषकर तब, जब समाज स्वयं देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों से आतंकित होकर नतमस्त्क पड़ा हुआ हो माफियाओं के चरणों पर ?
यदि हरामखोरों को अपना आदर्श मानने वाला समाज गरीबों को मुफ्तखोर कहकर गरियाता है, तो अप्रत्यक्ष रूप से यही कहना चाहता है कि हमारी तरह तुम भी गुलामी कर लो, रिश्वतख़ोरी करो, देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का सहयोगी बनो, फिर हम तुम्हारा भी वैसा ही सम्मान करेंगे, जैसे रिश्वतखोर सरकार, सरकारी आधिकारियों और राजनेताओं का करते हैं।
क्यों जरूरी है कि हर कोई बिकाऊ ही हो, हर किसी को बिकना ही चाहिए कर्मवाद के अंतर्गत ?
क्यों जरूरी है कि हर कोई मजदूर ही बने, गुलाम ही बने और आजीवन कोल्हू का बैल बना जीए ?
अंत में उन सभी शुभचिंतकों का आभार, जो स्वयं आर्थिक समस्याओं से ग्रस्त हैं, फिर भी अपनी क्षमतानुसार आर्थिक सहयोग भेज रहे हैं।
और वह भी तब, जब ना तो मैं भभूत देता हूँ, ना लॉटरी का नंबर बताता हूँ, ना भविष्य बताता हूं, ना अमीर बनने के नुस्खे बताता हूँ, ना सीडी, ईडी, सीबीआई, कोर्ट, पुलिस से बचाने वाले यज्ञ/हवन करवाता हूँ।
पिछले वर्ष नवम्बर से अचानक ही लोगों ने पैसे भेजने बन्द कर दिए थे, जिससे मुझे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। लेकिन इस वर्ष पिछले महीने से कुछ शुभचिंतकों ने पैसे भेजने शुरू किए, ताकि मैं अपना ध्यान लिखने में लगा सकूँ, समाज और सरकारों को आईना दिखा सकूँ।
इससे यह भी पता चलता है कि मेरे लिखने से किसी ना किसी को तो लाभ मिल ही रहा है, भले अधिकांश को मेरे लेख बकवास लगते हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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