दूसरों का दीपक बनने के चक्कर में मत पड़ो

किसी ने ओशो से कहा कि मैं बहुत दुखी हूँ, देश कि दुर्दशा देखकर। देश की जनता परेशान हैं महँगाई, शोषण, अत्याचार, जातिगतभेदभाव, गरीबी, भ्रष्टाचार से। समझ में नहीं आ रहा कि अपने देश को कैसे बचाऊँ ?
ओशो ने कहा उससे; “ये जो पागलपन का दौरा पड़ा है न, इससे जितनी जल्दी मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है। देश की जनता ने जिन्हें अपना कल्याण करने के लिए नियुक्त किया है, उन्हें चिंता करने दो। तुम केवल अपनी चिंता करो।
पूरे देश की चिंता करने के लिए सरकारें हैं, बड़े बड़े उद्योगपति हैं, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक, जातिवादी संस्थाएं, संगठन और पार्टियाँ हैं। उनके सामने तुम्हारी बिसात ही क्या है ?
तुम अपने परिवार का ही भला कर लो, वही बहुत बड़ी बात है।”
बहुत ही सारगर्भित सत्य कहा था ओशो ने। गौतम बुद्ध ने भी कहा था कि अपना दीपक आप बनो, दूसरों का दीपक बनने के चक्कर में मत पड़ो हर किसी के पास अपना-अपना दीपक है।
मैंने भी अपने अनुभवों से जाना कि जब भी हम किसी को कुछ समझाना चाहते हैं, वह तुरंत ही कोई किताब आपके सामने रख देता है और कहता है कि ये किताब पढ़ो हमारे गुरुजी ने लिखी है, या हमारे पंथ की धार्मिक ग्रंथ है।
इसका सीधा सा अर्थ होता है कि अपना ज्ञान अपने पास रखो, हमारी खोपड़ी पहले ही ज्ञान से ओवरफ़्लो हो रहा है।
और आज स्थ्ति यह है कि हर किसी के पास अपना-अपना गुरु है और अपना-अपना धार्मिक ग्रंथ। इसलिए दूसरों को ज्ञान देने के चक्कर में जो पड़ते हैं, उनसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं। और शायद यही कारण है कि सभी चैतन्य आत्माओं ने कहा कि दूसरों की चिंता मत करो, अपनी चिंता करो, अपना भला करो।
जो समझदार थे, उन्होने दूसरों की चिंता नहीं की अपनी चिंता की। बैंको को चूना लगाया, विधायकों, सरकारों, अदालतों को खरीदा, मीडिया को खरीदा, विदेशों में अपनी सम्पत्तियाँ खड़ी की और आराम से जाकर सेटल हो गए।
अंबानी, अदानी, माल्या, नीरव, चौकसी ने देश के बैंको से ही कर्जा लेकर अपना एम्पायर खड़ा किया, लेकिन आज तक बैंक का कर्जा नहीं चुकाया, जिसके कारण भारत के बैंक कंगाल होने की कगार पर पहुँच गए, जबकि विदेशी बैंक दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं।

देश की सरकारें, देश के नेता और राजनैतिक पार्टियां भी अपना दीपक आप बनो के सिद्धान्त पर चलती हैं। देश की जनता मर रही है तो मरती रहे, अपना भला होना चाहिए।
देश के सभी धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, जातिवादी पार्टियां, संस्थाएं, संगठन आदि भी मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर ही चलती हैं। ये अपने ही सम्प्रदाय, संगठन के सदस्यों का कल्याण नहीं कर पातीं, लेकिन दूसरों के दड़बों के सामने खड़े होकर प्राइवेट बसों के कंडक्टर की तरह आवाजें लगाते रहते हैं कि पूरी बस खाली जा रही है, जो पहले आएगा उसे सीट मिलेगी।
मुझसे भी बारम्बार यह गलती होती है कि समझाने निकल पड़ता हूँ उन्हें, जो शास्त्रों के प्रकांड विद्वान हैं, जिनके दिमाग में ज्ञान की बाढ़ आयी हुई है। भूल जाता हूँ कि सबके पास अपना-अपना दीपक यानि गुरु है, प्रकाश है, एलईडी टॉर्च है, उन्हें दूसरों से कुछ भी समझने की आवश्यकता नहीं है।
किसी ने सही ही कहा था कि मौन हो जाने और साक्षी भाव से दुनिया को बर्बाद होते देखते रहने से श्रेष्ठ और कुछ नहीं। बर्बरीक बन जाओ और आराम से देखों ज्ञानियों को आपस में लड़ते मरते। बिना प्रभावित हुए देखो, कैसे देश की जनता स्वयं अपने ही देश को बर्बाद करने के लिए दीमक की तरह दिन रात एक किए हुए है।
लेकिन क्या करूँ, आदत ही बुरी है मेरी। जब अपना ही देश बर्बाद होते हुए देखता हूँ तो बेचैन हो उठता हूँ। फिर मेरी आत्मा कहती है कि न ये देश तुम्हारा है, ना ये सरकारें तुम्हारी है, न यह पृथ्वी तुम्हारी है। तुम यहाँ केवल मेहमान हो कुछ समय के लिए। इसके बाद तुम्हें यहाँ से चले जाना है। और वैसे भी तुम कुछ कर नहीं सकते। तमाशा देखो और निकल जाओ इस दुनिया से बाहर।
अब कोई कहता है मुझे कि समाज सेवा करनी है, देश सेवा करनी है, जनता के हितों के लिए काम करना है….तो ऐसा लगता है खींच के उसके कनपटी के नीचे एक लगाऊँ और पूछूं कि ये सरकारें, ये राजनैतिक पार्टियां, ये गुरुओं, बाबाओं के नाम पर बनी समाज सेवी संस्थाएं, ये हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, जैन, ईसाई…..नामक दड़बे क्या मेरे भरोसे बनाई थी ?
ये सारे काम इनसे कहे नहीं करवा रहे ?
क्या मैं ही मिला हूँ पूरी दुनिया में समाज का भला करने और देश की चिंता करने के लिए ?
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
