किताबी धार्मिकों का समाज सदैव अधर्मियों के पक्ष में रहा है

क्या कभी जानने का प्रयास किया आपने कि आपके धार्मिक, आध्यात्मिक, आसमानी, हवाई, ईश्वरीय ग्रंथो में देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का विरोध और बहिष्कार करने की शिक्षा क्यों नहीं दी गयी ?
क्या कभी जानने का प्रयास किया है आपने कि आपके स्कूलों, विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं सिखाया जाता देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का विरोध करना ?
यदि अभी तक नहीं जानना चाहा आपने, तो क्यों नहीं जानना चाहा ?
और जो धार्मिक ग्रंथ, स्कूल, कॉलेज आपको देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध आवाज उठाना भी नहीं सिखाते, उनपर आपको गर्व क्यों है ?
क्या केवल इसीलिए कि ये सब आपको और आपकी संतानों को एक अच्छे नस्ल का गुलाम बनाते हैं ?
बिना विचार जो करे, सो पाछे पछताए

धार्मिक ग्रंथो का ढेर लादा हुआ गधा विद्वान नहीं हो जाता, गधा ही रहता है।
इसी प्रकार शूद्र चाहे चलती फिरती लाइब्रेरी बन जाए, डिक्शनरी बन जाये, चाहे दुनिया की सारी डिप्लोमा और डिग्रियाँ बटोर ले, शूद्र ही रहता है।
ध्यान रहे यहाँ शूद्र का तात्पर्य दलित, शोषित या गरीब नहीं है। यहाँ शूद्र का तात्पर्य वही है जो वास्तव में है। अर्थात शूद्र जिसके पास अपनी बुद्धि-विवेक को प्रयोग करने की योग्यता नहीं है, जिसे अधिकार ही नहीं है कि वह अपनी बुद्धि विवेक का प्रयोग करे।
एक लोककथा कहीं पढ़ी थी बचपन में। आपने भी पढ़ी या सुनी होगी कि किसी गुरुकुल से शिक्षा पूरी कर प्रकांड विद्वान बनकर चार मित्र घर वापस लौट रहे थे।
चारों जब घने जंगल के बीच पहुँच तो उन्हें किसी पशु का कंकाल नजर आया। चारों खड़े होकर उस कंकाल का विश्लेषण करने लगे। लेकिन यह नहीं पता कर पा रहे थे कि वह कंकाल किस पशु का है।
एक ने कहा कि मैं इन अस्थियों को जोड़कर देखता हूँ, तब पता चल जाएगा कि ये किस पशु की है। यह कहकर उसने बिखरी हुई अस्थियों को जोड़ना शुरू कर दिया। जब अस्थियाँ जुड़ गईं, तो दूसरे ने कहा कि मैं इस पर माँस और चमड़ा लगा देता हूँ अपनी दिव्य शक्तियों से।
उसने जब माँस और चमड़ा लगा दिया, तो पता चला वह शेर था, जो भूख से तड़पकर मर चुका था।
दोनों बड़े खुश थे कि जो कुछ भी गुरुकुल से सीखा वह व्यर्थ नहीं गया। तभी तीसरे ने कहा कि ठीक है तुम लोगों ने अपने-अपने ज्ञान का प्रदर्शन तो कर लिया, अब मेरी बारी है। मैं इस मरे हुए शेर में प्राण डाल सकता हूँ।
यह सुनते ही चौथा मित्र बोला, “अरे नहीं-नहीं !!! ऐसा मत करना, अन्यथा ये शेर हमें मारकर खा जाएगा।
बाकी तीनों चौथे मित्र की बात सुनकर हंसने लगे और बोले, “तू व्यर्थ ही भयभीत हो रहा है। अरे हमने जिसकी जान बचाई, जिसे जीवन दान दिया, वह भला हमें क्यों मारेगा ?”
चौथा मित्र मना करता रहा, लेकिन तीनों नहीं माने और तीसरे मित्र ने शेर में प्राण प्रतिष्ठा कर दी। शेर को जैसे ही होश आया, उसने उठते ही तीसरे मित्र पर पंजा मारा और वहीं ढेर कर दिया। यह देख बाकी दो मित्र भागे और चौथा मित्र पेड़ पर चढ़ गया। शेर चूंकि कमजोर था, भूखा था, इसलिए पेड़ पर चढ़ने में मेहनत नहीं किया, लेकिन बाकी दो का पीछा कर उन्हें भी मार डाला और तीनों को खा गया।
अब आप क्या कहेंगे कि चौथा मित्र मूर्ख था या बाकी तीन ?
मेरी नजर में मूर्ख कोई नहीं था, सभी दक्ष विद्वान ही थे अपने-अपने विषयों के। लेकिन बुद्धि विवेक का प्रयोग केवल चौथे ने किया था। बुद्धि विवेक का प्रयोग करने का अर्थ होता है परिणाम पर विचार करना। हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, और उसे करने से लाभ क्या होगा, हानि क्या हो सकती है, इसका पूर्वानुमान लगाने की योग्यता तभी आती है, जब हम अपना विवेक-बुद्धि का प्रयोग करना अच्छी तरह जानते हों।
धार्मिक ग्रंथो को कंठस्थ किए आधुनिक विद्वानों और डिग्रीधारी विद्वानों की स्थिति भी बिलकुल उन्हीं तीन मित्रों की तरह होती है, जो शेर का शिकार बन गए। लेकिन अंतर केवल यह है कि ये शिकार नहीं, गुलाम बन जाते है माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के।
आधुनिक विद्वान अपनी-अपनी विद्वता डिग्रियों पर इतराये घूम रहे हैं। इनमें से कई को समाज में बहुत मान-सम्मान भी मिलता है। कई महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर आसीन हैं, उन्हें दुनिया भर की सुख-सुविधाएं व सुरक्षा भी मिली हुई है। लेकिन वे आज भी सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, धर्म और अधर्म का अंतर कर पाने में अक्षम हैं। ऐसे विद्वानों को बड़े मान-सम्मान के साथ माफिया और देश व जनता को लूटने व लुटवाने वाले अपना गुलाम बना लेते हैं। इन्हें समझाया जाता है कि चाकरी, चाटुकारिता और गुलामी करना ही जीवन का उद्देश्य है और चाकरी करने में सबसे बड़ा लाभ यह कि बुद्धि-विवेक गिरवी रखकर शान से जी सकते हो।
आधुनिक किताबी, डिग्रीधारी विद्वानों को केवल आदेशों का अनुसरण करना सिखाया जाता है, प्रश्न करना नहीं। जैसे कि सेना, पुलिस, सीबीआई, ईडी से संबन्धित अधिकारी और कर्मचारी। इन्हें नैतिक और अनैतिक नहीं सोचना होता, इन्हें धर्म और अधर्म का चिंतन नहीं करना होता, केवल आदेशों का पालन करना होता है। एक प्रकार से ये सभी किसी साहूकार के लठैतों, सुपारी किलर और वसूलीभाई सा जीवन जीते हैं। और इस गुलामी के एवज में उन्हें मान-सम्मान, ऐश्वर्य सभी कुछ प्राप्त होता है।
लेकिन चौथे मित्र की तरह कोई व्यक्ति यदि विवेक बुद्धि का प्रयोग करने के लिए कहे, अधर्म व अनैतिक क्या है समझाये, तो सभी विद्वान गुलाम नाराज हो जाते हैं। क्योंकि जब सरकार से लेकर सारा समाज और उनका अपना परिवार उनपर गर्व करता है, उनकी जय जय करता है, तो भला वे गलत कैसे हो सकते हैं ?
समाज और सरकारें स्वयं अधर्म व अधर्मियों के पक्ष में होते हैं, कभी भी धर्म और नैतिक लोगों के साथ खड़ा नहीं होता। इसीलिए ऐसे समाज और सरकार से मिले मान-सम्मान का भी कोई मूल्य नहीं होता धार्मिकों के लिए, चैतन्य व्यक्तियों के लिए। चैतन्य व्यक्ति केवल सत्य, न्याय और धर्म के पक्ष में रहता है, परिणाम चाहे विपरीत ही क्यों ना आए। चाहे सरकार और समाज उसके विरुद्ध ही क्यों न हो जाये।
कोई व्यक्ति शास्त्रों का ज्ञाता है, संस्कृत का ज्ञाता है, विदेशी भाषाओं का प्रकाण्ड पंडित है, दुनिया भर की डिग्रियाँ बटोर रखी हैं, दुनिया भर में बड़ा मान-सम्मान हो रहा है, तो निश्चित मानिए वह उन लोगों का अधीनस्थ है जो देश व जनता को लूटने और लुटवाने के अभियान में व्यस्त हैं। या फिर वे ऐसा कोई कार्य कर रहे हैं, जिससे लुटेरों, माफियाओं के षडयंत्रों से जनता का ध्यान भटकाये रखने में सहयोग मिल रहा है। जैसे कि इस्कॉन, आनन्दमार्गी, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध पंथ, जैसे कि साधु-समाज आदि सब मिलकर जनता को देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों से ध्यान भटकाने में व्यस्त हैं।
किताबी धार्मिक का ये समाज ईशनिन्दा, बेअदबी के नाम पर लाखों की संख्या में सड़क पर उतर आयेंगे कि हमारी धार्मिक आस्था और भावनाएं आहत हुईं। लेकिन जब देश लुट रहा हो, प्रायोजित महामारी के नाम पर बंधक बनाकर पूरे विश्व की जनता का सामूहिक बलात्कार किया जा रहा हो, तो इनकी आवाज नहीं निकलती। क्यों ?
क्योंकि तब इन्हें अपना स्वार्थ सर्वोपरि नजर आता है। जो नौकरी कर रहा है, उसे अपनी नौकरी याद आ जाती है, जो व्यापार कर रहा होता है, उसे अपना व्यापार नजर आ जाता है, किसी को अपने बीवी बच्चे याद आ जाते हैं, किसी को विदेशों में जमा अपना धन याद आ जाता है….तो विरोध में आवाज निकल नहीं पाती। क्योंकि विरोध में आवाज निकाली, तो नौकरी चली जाएगी, व्यापार पर लगाम लग सकता है, बैंकों में जमा धन स्वाहा हो सकता है, सीबीआई, ईडी घरों में ताकझाँक करने लग सकती है और हो सकता है कि माफियाओं, लुटेरों के विरुद्ध मुँह खोलने के अपराध में जेल या मृत्यु मिल सकती है।
और इन सबको मिलाकर समाज बनता है, सरकारें और राजनैतिक पार्टियां बनती हैं।
समाज को शूद्र माना गया, प्रजा को शूद्र माना गया, सेना को शूद्र माना गया, पुलिस को शूद्र माना गया और समस्त वेतनभोगियों, कमीशनखोरों को शूद्र माना गया। इन्हें शूद्र इसलिए माना गया क्योंकि ये अधर्म, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकते, इन्हें अधिकार ही नहीं है आवाज उठाने का। क्योंकि ये सभी गुलाम हैं, आश्रित हैं, निर्भर हैं माफियाओं और लुटेरों पर। और जो माफियाओं, लुटेरों से मिले धन से अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा हो, उनका परिवार भला नैतिक, सात्विक और धार्मिक कैसे हो सकता है ?
कहते हैं न जैसा होगा अन्न वैसा बनेगा मन। अर्थात यदि दूसरों से छीना हुआ धन भोगने वाला व्यक्ति और परिवार की मानसिकता भी क्रूर हो जाएगी। उनमें मानवीय समवेदनाएं लुप्त होने लगेंगी। फिर चाहे वे धार्मिक, सात्विक होने का किताब ही ढोंग क्यों न कर लें। फिर चाहे वे प्याज लहसुन खाना छोड़ दें या आहार ही लेना बंद कर सूर्य की रोशनी से अपनी भूख मिटाने लगें। रहेंगे शूद्र के शूद्र ही।
ब्राह्मणों को श्रेष्ठ इसलिए कहा गया, क्योंकि वे दान-दक्षिणा पर आश्रित होते हैं, किसी की चाकरी नहीं कर रहे होते। वे समाज को सही दिशा व शिक्षा देने के अभियान में व्यस्त रहते हैं, इसीलिए वे सम्मानित हैं। वे सम्मानित हैं क्योंकि वे अधर्म और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध होते हैं। वे शोषण और अत्याचार के विरुद्ध खुलकर आवाज उठाते हैं। वे किसी निर्दोष का अहित नहीं करते, वे किसी के साथ भेदभाव नहीं करते। लेकिन दुर्भाग्य से अब ब्राह्मण भी लुप्त होने के कगार पर पहुँच चुके हैं। बहुतों को पहले ही मार दिया गया, बहुतों को जेलों में ठूंस दिया गया, और जो थोड़े बहुत बाहर बचे हैं, वे भी बिलकुल अकेले पड़ते चले जा रहे हैं। क्योंकि समाज उनके साथ नहीं खड़ा, कोई उन्हें आर्थिक सहयोग करने को तैयार नहीं हो रहा।
इसी प्रकार क्षत्रिय भी लुप्त होने के कागार पहुँच गए क्योंकि वैश्यों और शूद्रों का वर्चस्व है समस्त विश्व में। क्षत्रिय बाहुबल को महत्व देता है, और ब्राह्मणों, चैतन्य व जागृत आत्माओं से मार्गदर्शन लेता है। आज आपको क्षत्रिय कहीं नजर नहीं आएंगे। और जो स्वयं को क्षत्रिय कह कर अकड़ रहे हैं, उन्हें देख लीजिये ?
वे साल भर फिल्में देखते रहते हैं कि किस फिल्म का विरोध करना है, कहाँ-कहाँ तोड़फोड़ करना है, किसके किचन में गाय का माँस पक रहा है, किसके किचन में चिकन पक रहा है…..बस यही सब देखने में इनका जीवन बीत जाता है। यदि वास्तविक क्षत्रिय होते तो इन सब में अपनी योग्यताओं को नष्ट करने की बजाए, गौ-माँस निर्यातकों की कंपनियाँ बंद करवाते, देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों की ईंट से ईंट बजा देते, प्रायोजित महामारी का आतंक फैलाकर पूरे विश्व को बंधक बनाकर जनता का सामूहिक बलात्कार करने वालों की ज़िंदगी नर्क बना देते…..लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा। क्योंकि वास्तविक क्षत्रिय अब लुप्त होने के कागार पर पहुँच चुके हैं। जो थोड़े बहुत वास्तविक क्षत्रिय और ब्राह्मण विरोध कर भी रहे हैं, तो समाज उनके साथ नहीं। क्योंकि समाज तो सदैव अधर्मियों के पक्ष में रहा है और सदैव अधर्मियों के पक्ष में ही रहेगा, जब तक उनका अपना स्वार्थपूर्ति हो रही है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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