संघ-शक्ति, समूह और भीड़ में अंतर क्या है ?

आमतौर से आप भीड़ की आलोचना करते हैं। लेकिन भगवान बुद्ध के संघ के समर्थन में आपने गुरजिएफ का हवाला देकर समूह—शक्ति को बहुत महत्व दिया। कृपाकर संघ—शक्ति, समूह और भीड़ के भेद को समझाइए ?
ऊपर से भेद दिखायी चाहे न पड़े, भीतर बड़ा भेद होता है।
संघ का अर्थ होता है—जिस भीड़ के बीच में एक जाग्रतपुरुष खड़ा हो केंद्र पर। बुद्ध के बिना संघ नहीं होता। संघ के कारण संघ नहीं होता, बुद्ध के कारण संघ होता है। तो संघ शब्द का अर्थ समझ लेना। बहुत से बुझे दीए रखे हैं और एक दीया बीच में केंद्र पर जल रहा है, तो संघ। ये बहुत से बुझे दीए सरक रहे हैं धीरे— धीरे जले दीए के पास। ये जले दीए के पास आए ही इसलिए हैं कि जल जाएं, यही अभीप्सा इन्हें पास ले आयी है। ये बुझे दीए एक—दूसरे से नहीं जुड़े हैं, इनका कोई संबंध अपने पड़ोसी बुझे दीए से नहीं है। इनकी सबकी नजरें उस जले दीए पर लगी हैं, इन सबका संबंध उस जले दीए से है।
मेरे पास इतने संन्यासी हैं। उनका कोई संबंध एक—दूसरे से नहीं है। अगर एक—दूसरे के पास हैं, तो सिर्फ इसी कारण कि दोनों मेरे पास हैं—और कोई कारण नहीं है। तुम यहां बैठे हो, कितने देशों के लोग यहां बैठे हैं। तुम्हारे पास बैठा है कोई इंग्लैंड से है, कोई ईरान से है, कोई अफ्रीका से है, कोई जापान से है, कोई अमरीका से है, कोई स्वीडन से है, कोई स्विट्जरलैंड से है, कोई फ्रांस से, कोई इटली से। तुम्हारा पड़ोस में बैठे आदमी से कोई भी संबंध नहीं है, न पास में बैठी स्त्री से कोई संबंध है। तुम्हारा संबंध मुझसे है, उसका भी संबंध मुझसे है। तुम दोनों की नजर मुझ पर लगी है। यद्यपि तुम सब साथ बैठे हो, लेकिन तुम्हारा संबंध सीधा नहीं है।
संघ का अर्थ होता है—जहां एक जला हुआ दीया है और सब बुझे दीयों की नजर जले दीए पर लगी है; उस केंद्र की तरफ वे सरक रहे हैं, आहिस्ता—आहिस्ता, लेकिन सुनिश्चित कदमों से। एक—एक इंच, लेकिन बढ़ रहे हैं। एक—एक बूंद, लेकिन जग रहे हैं। जिस क्षण बहुत करीब आ जाएंगी दोनों की बातिया, उस दिन छलांग होगी। जले हुए दीए से ज्योति बुझे दीए में उतर जाएगी। ज्योति से ज्योति जले। जले दीए की ज्योति जरा भी कम नहीं होगी, बुझे दीए की ज्योति जग जाएगी। बुझे को मिल जाएगी, जले की कम न होगी।
यही सत्संग है। जो देता है, उसका कम नहीं होता। और जिसे मिलता है, उसके मिलने का क्या कहना, कितना मिल जाता है!
उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। सत्संग में यह रोज घटता है। ईशावास्य के इस अपूर्व वचन का निर्वचन रोज सत्संग में होता है। सत्संग का अर्थ होता है—कोई पूर्ण हो गया है, उससे तुम पूर्ण भी निकाल लो तो भी वह पूर्ण का पूर्ण ही रहता है। वहा कुछ कमी नहीं आती। तुम सूने थे, पूरे हो जाते हो; तुम खाली थे, भर जाते हो; तुम्हारा पात्र लबालब हो जाता है, छलकने लगता है। और ऐसी—वैसी छलकन नहीं, ऐसी छलकन कि अब तुमसे कोई पूरा ले ले, तो भी तुम खाली नहीं होते।
संघ का अर्थ होता है—केंद्र पर जाग्रतपुरुष हो, बुद्ध हो, जिन हो, कोई जिसने स्वयं को जीता और जो स्वयं में जागा, भगवत्ता हो केंद्र पर, तो उसके आसपास जो बुझे हुए लोग इकट्ठे हो जाते हैं, सोए—सोए लोग। माना कि सोए हैं, लेकिन उनके जीवन में भी जागने का कम से कम सपना तो पैदा हो गया। जागे नहीं हैं, सच, लेकिन जागने का सपना तो पैदा हो गया है, जागने की तरफ बढ़ने तो लगे हैं, टटोलने लगे हैं। अंधेरे में टटोल रहे हैं, अभी टटोलने में बहुत व्यवस्था भी नहीं हो सकती, लेकिन आभास मिलने लगे हैं।
कभी सुबह देखते हैं न, नींद टूटी नहीं है, जागे भी नहीं हैं, ऐसी दशा होती है कभी। हल्की—हल्की नींद भी है अभी और हल्की—हल्की जाग भी आ गयी—दूध ग्वाला दूध दे रहा है द्वार पर खड़ा, यह सुनायी पड़ता सा मालूम भी पड़ता है, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी है चौके में, आवाज बर्तनों की सुनायी भी पड़ती है; बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे हैं, उनका लड़ाई—झगड़ा, उनका कोलाहल भी सुनायी पड़ता है, यह सब सुनायी पड़ता है, और तुम जागे भी नहीं हो, और तुम सोए भी नहीं हो। यह बीच की दशा है, जिसको योग में तंद्रा कहा है—जागरण और निद्रा के जो बीच में है दशा।
संघ का अर्थ होता है—बिलकुल सोए हुए आदमी जो गहरी अंधेरी रात में पड़े हैं, वे तो बुद्धों के पास आते नहीं; जो जाग गए हैं, उन्हें आने की जरूरत नहीं है? जो जाग ही गया, जो स्वयं ही बुद्ध हो गया, वह क्यों आए! किसलिए आए! कोई प्रयोजन नहीं। जो गहरा सोया है कि उसे होश ही नहीं है, वह कैसे आए! वह बुद्ध के पास से निकल जाता है और उसे रोमांच नहीं होता। वह बुद्ध की हवा से गुजर जाता है और उसे हवा का एकर्श भी नहीं होता। वह गहरा सोया है। लेकिन इन दोनों के बीच की दशा वाले लोग भी हैं, जो जागे भी नहीं हैं कि बुद्ध हो गए हों और इतने सोए भी नहीं हैं कि बुद्ध होने की आकांक्षा प न हो। उन तंद्रा से भरे लोगों, उन जलने की आकांक्षा से भरे बुझे दीयों से संघ बनता है।
लेकिन संघ का मौलिक आधार होता है, बुद्धपुरुष। केंद्र में बुद्ध हों, तो ही संघ बनता है।
दूसरा शब्द है, संगठन। जिस दिन बुद्ध विदा हो जाते हैं, जला दीया विलीन हो जाता है, निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है, लेकिन उस जले दीए ने जो बातें कही थीं, जो व्यवस्था दी थी, जो अनुशासन दिया था, उस शास्ता ने जो कहा था, जो देशना दी थी, उसका शास्त्र रह जाता है; उस शास्त्र के आधार पर जो बनता है, वह संगठन। संघ की खूबी तो इसमें न रही। संघ के प्राण तो गए। संगठन मरा हुआ संघ है। कुछ—कुछ भनक रह गयी, कभी जाना था किसी जाग्रतपुरुष का सान्निध्य, कभी उसके पास उठे—बैठे थे, कभी उसकी सुगंध नासापुटों में भरी थी, कभी उसकी बांसुरी की मनमोहक तान हमारी तंद्रा में हमें सुनायी पड गयी थी, कभी किसी ने हमें प्रमाण दिया था अपने होने से कि ईश्वर है, कभी किसी की वाणी हमारे हृदय को गुदगुदा गयी थी, बंद कलिया खुली थीं, कभी कोई बरसा था सूरज की भांति हम पर और हम भी अंकुरित होने शुरू हुए थे, याद रह गयी, श्रुति रह गयी, स्मृति रह गयी, शास्त्र रह गया—शास्ता गया, शास्त्र रह गया। शास्ता और शास्त्र शब्द का संबंध समझ लेना, वही संबंध संघ और संगठन का है।
शास्ता जीवंत था। जो कहता था, वैसा था भी। फिर वाणी रह गयी, संग्रह रह गया, संहिता रह गयी। कहने वाला गया, अब तुम नए प्रश्न पूछोगे तो उत्तर न मिलेंगे; अब तो तुम पुराने प्रश्न, जिनके उत्तर दिए गए हैं, वे ही पूछो तो उत्तर मिल जाएंगे। अब नया संवेदन नहीं होता, अब नयी वाणी जाग्रत नहीं होती, अब नयी तरंग नहीं उठती, अब नयी बांसुरी नहीं बजती—रेकार्ड रह गया। शास्त्र यानी रेकार्ड। गायक तो जा चुका, रेकार्ड रह गया। ग्रामोफोन पर रखोगे, तो गायक जैसा ही लगता है—जैसा! लेकिन रेकार्ड रेकार्ड —मैच। और अगर जीवित व्यक्ति तुम्हें न बदल सका तो रेकार्ड तुम्हें कैसे बदलेगा?
संघ जब मर जाता अर्थात जब शास्ता विदा हो जाता, तो संगठन पैदा होता है। शास्ता के वचन रह जाते हैं। जैसे सिक्खो के दस गुरु हुए। जब तक दस गुरु थे, तब तक सिक्ख— धर्म संघ था। जिस दिन अंतिम गुरु ने तय किया कि अब कोई गुरु नहीं होगा और गुरुग्रंथ ही गुरु होगा, उसी दिन से संगठन। जब तक बुद्ध थे, तब पक संघ। जब बुद्ध जा चुके, भिक्षु इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी— अपनी स्मृतियों को उंडेलकर रेकार्ड तैयार किया कि बुद्ध ने किससे कब क्या कहा था, किसने कब बुद्ध को क्या कहते सुना था, सब भिक्षुओं ने अपनी स्मृतियां टटोली और सारी स्मृतियों का संग्रह किया, तीन शास्त्र बने—त्रिपिटक। सारे भिक्षुओं ने अपनी स्मृति उंडेलकर, जो —जो बुद्ध ने कहा था, जिसने जैसा समझा था वैसा इकट्ठा कर दिया, तब संगठन बना। बुद्ध तो गए, याद रह गयी।
फिर एक घड़ी ऐसी आती है कि बीच में शास्ता तो होता ही नहीं, शास्त्र भी नहीं होता, तब उस स्थिति को हम कहते हैं—समूह। हम ही आपस में तय करते हैं कि हमारा अनुशासन क्या हो। हम कैसे उठे, कैसे बैठे, कैसे एक—दूसरे से संबंध बनाए। फर्क समझना।
जब बुद्ध जीवित थे, सबकी नजरें बुद्ध पर लगी थीं, सब बुद्ध से जुड़े थे, तार बुद्ध से जुड़े थे, आपस में अगर पास भी थे तो भी इससे कुछ लेना—देना न था, कोई संग न था। संग बुद्ध के साथ था। आपस में साथ थे, क्योंकि सब एक दिशा में जाते थे, इसलिए साथ हो लिए थे, और कोई साथ न था—सयोंग था साथ।
बुद्ध गए, शास्त्र बचा, अब संबंध बुद्ध से तो नहीं रह जाएगा, बुद्ध के शब्द से रहेगा। स्वभावत:, बुद्ध के शब्द को जो लोग ठीक से समझा सकेंगे, बुद्ध के शब्द की जो ठीक से व्याख्या कर सकेंगे—पंडित और पुरोहित—महत्वपूर्ण हो जाएंगे। व्याख्याकार महत्वपूर्ण हो जाएंगे। और व्याख्याकार एक नहीं होंगे, अनेक होंगे।
बुद्ध के मरते ही बुद्ध का संघ अनेक शाखाओं में टूट गया। टूट ही जाएगा क्योंकि किसी ने कुछ व्याख्या की, किसी ने कुछ व्याख्या की। अब तो व्याख्या करने वाले स्वतंत्र हो गए, अब बुद्ध तो मौजूद न थे कि कहते कि नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा, कि मेरे कहने का ऐसा अर्थ है। बुद्ध के मौजूद रहते ये व्याख्याकार सिर भी उठा नहीं सकते थे। क्योंकि जब बुद्ध ही मौजूद हैं तो कौन उनकी सुनेगा कि बुद्ध ने क्या कहा! बुद्ध के हटते ही बड़े दार्शनिक खड़े हो गए, पंडित खड़े हो गए, अलग — अलग व्याख्याएं, अलग— अलग संप्रदाय बन गए; बड़े भेद, बड़े विवाद। एक ही आदमी की वाणी के इतने भेद, इतने विवाद!
और निश्चित ही जिसको जिसकी बात ठीक लगी, वह उसके साथ हो लिया। अब बुद्ध से तो संबंध न रहा, बुद्ध के व्याख्याकारों से संबंध हो गया। बुद्ध तो जाग्रतपुरुष थे, इसलिए जाग्रत का और सोए का संबंध हो तो कुछ लाभ होता। अब ये जो व्याख्याकार हैं, ये इतने ही सोए हुए हैं जितने तुम सोए हुए हो, यह सोए से सोए का संबंध है, तो बनता है संगठन।
मगर फिर भी ये जो व्याख्या करते हैं, कम से कम बुद्ध के वचनों की करते हैं। दूर की ध्वनि सही, बहुत दूर की ध्वनि, बुद्ध को पुकारे समय हो गया, लेकिन शायद इन्होंने बुद्ध की बात सुनी थी, उसको विकृत भी कर लिया होगा, उसको काटा—छांटा भी होगा, तोड़ा—मरोड़ा भी होगा, फिर भी कुछ बुद्ध की बात तो उसमें शेष रह ही जाएगी, कुछ रंग तो रह ही जाएगा।
तुम इस बगीचे से गुजर जाओ, घर पहुंच जाओ, बगीचा दूर रह गया, वृक्ष दूर रह गए, फूल दूर रह गए, फिर भी तुम पाओगे, तुम्हारे वस्त्रों में थोड़ी सी गंध चली आयी। वस्त्र याद दिलाएंगे कि बगीचे से होकर गुजरे हो। थोड़े रंगे रह गए, तो संगठन।
जब यह रंग भी खो जाता है, जब व्याख्याकारों की भी व्याख्या होने लगती है, जब व्याख्याकार भी मौजूद नहीं रह जाते, जिन्होंने बुद्ध को देखा, सुना, समझा; अब इनको सुनने, समझने वाले व्याख्या करने लगते है—तो फिर बहुत दूरी हो गयी, तब स्थिति हो जाती है समूह की। अब तो सोए—सोए अंधे अंधों को मार्ग दिखाने लगते हैं।
समझो कि बुद्ध के पास आंख थी, बुद्ध के व्याख्याकारों के पास कम से कम चश्मा था, ये जो व्याख्याकारों के व्याख्याकार हैं, इनके पास चश्मा भी नहीं। ये ठीक तुम जैसे अंधे हैं। शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं बोलने में, शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं तर्क करने में, शायद तुमसे अच्छी इनकी स्मृति है, शायद तुमसे ज्यादा इन्होंने अध्ययन किया है, पर और कोई भेद नहीं है, चेतनागत कोई भेद नहीं है। इतना भी भेद नहीं है कि ये बुद्ध के सान्निध्य में रहे हों। इतना भी भेद नहीं है, तो समूह।
फिर एक ऐसा समय भी आता है, जब ये भी नहीं रह जाते, जब कोई व्यवस्था नहीं रह जाती, व्यवस्थामात्र जब शून्य हो जाती है और जब अंधे एक—दूसरे से टकराने लगते हैं, उसका नाम भीड़ है।
इन चार शब्दों का अलग— अलग अर्थ है। संघ, शास्ता जीवित है। संगठन, शास्ता की वाणी प्रभावी है। समूह, शास्ता की वाणी भी खो गयी लेकिन अभी कुछ व्यवस्था शेष है। भीड़, व्यवस्था भी गयी; अब सिर्फ अराजकता है।
मैं संघ के पक्ष में हूं। संगठन के पक्ष में नहीं। समूह के तो होऊंगा कैसे! भीड़ की तो बात ही छोड़ो!!
जब तुम्हें कभी कोई जीवित जाग्रतपुरुष मिल जाए तो डूब जाना उसके संघ में। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं पृथ्वी पर, कभी—कभी आते हैं, उसको चूकना मत। उसको चूके तो बहुत पछताना होता है। और फिर पछताने से भी कुछ होता नहीं। फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत। फिर सदियों तक लोग रोते हैं।
कई दफे तुम्हारे मन में भी आता होगा—काश, हम भी बुद्ध के समय में होते! काश, हम भी महावीर के साथ चले होते उनके पदचिह्नों पर! काश, हमने भी जीसस को भर— आंख देखा होता! या काश, मोहम्मद के वचन सुने होते! कि कृष्ण के आसपास हम भी नाचे होते उस मधुर बासुरी को सुनकर! यह पछतावा है।
तुम भी मौजूद थे, तुम जरूर मौजूद थे, क्योंकि तुम बड़े प्राचीन हो। तुम उतने ही प्राचीन हो जितना प्राचीन यह अस्तित्व है—तुम सदा से यहां रहे हो। तुमने न मालूम कितने बुद्धपुरुषों को अपने पास से गुजरते देखा होगा, लेकिन देख नहीं पाए। फिर पछताने से कुछ भी नहीं होता। जो गया, गया। जो बीता, सो बीता। अभी खोजो कि यह क्षण न बीत जाए। इस क्षण का उपयोग कर लो।
इसलिए बुद्ध बार—बार कहते हैं, एक पल भी सोए—सोए मत बिताओ। जागो, खोजो। अगर प्यास है, तो जल भी मिल ही जाएगा। अगर जिज्ञासा है, तो गुरु भी मिल ही जाएगा। अगर खोजा, तो खोज व्यर्थ नहीं जाती। परमात्मा की तरफ उठाया कोई भी कदम कभी व्यर्थ नहीं जाता है।
-ओशो, एस धम्मो सनंतनो-(प्रवचन-101)
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