परतंत्रता में निश्चय ही सुविधा है और सुरक्षा भी
मैं ऐसे गुलामों को जानता हूं, जो मानते हैं कि वे स्वतंत्र है। और उनकी संख्या थोड़ी नहीं है, वरन सारी पृथ्वी ही उनसे भर गई है। और चूंकि अधिक लोग उनके ही जैसे हैं, इसलिए उन्हें स्वयं की धारणा को ठीक मान लेने की भी सुविधा है, लेकिन मेरा हृदय उनके लिए आंसू बहाता है, क्योंकि गुलाम होते हुए भी उन्होंने अपने आपको स्वतंत्र मान रखा है। और इस भांति स्वयं ही अपने स्वतंत्र होने की प्राथमिक संभावना को ही समाप्त कर दिया है। धर्मों के नाम से संप्रदायों में कैद व्यक्ति ऐसी ही स्थिति में है।
इस भांति की परतंत्रता में निश्चय ही सुविधा है और सुरक्षा है। सुविधा है, स्वयं विचार करने के श्रम से बचने की और सुरक्षा है, सबके साथ होने की। और इसलिए ही जो कारागृह है, उन्हें नष्ट करने की तो बात ही दूर, कैदी गण ही उसकी रक्षा के लिए सदा प्राण देने को तत्पर रहते हैं!
मनुष्य भी कैसा अदभुत है, वह चाहे तो अपने कारागृहों को ही मोक्ष भी मान सकता है! लेकिन इससे बदतर गुलामी कोई दूसरी नहीं हो सकती है। स्वतंत्रता पाने के लिए सबसे पहले तो यही आवश्यक है कि हम जाने कि हमारा चित्त किसी गहरी दासता में है, क्योंकि जो यही नहीं जानता, वह स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा भी अनुभव नहीं कर सकता।
कैद की पीड़ा ही मुक्ति की आकांक्षा में बदल जाती है। फिर वास्तविक बंधन बाहर नहीं, भीतर है, इसलिए उन्हें पहचानना भी आसान नहीं। वे इतने परिचित भी है कि हमने उन्हें बंधन मानना ही छोड़ दिया है। उनका दंश अनुभव न हो, इसलिए हमने उन्हें खूब सजीली बंदनवारों से भी गूंथ दिया है। परंपराएं, अंधविश्वास, रूढ़ियां संप्रदाय, शास्त्र और शब्द हमारे मन को बुरी तरह बांधे हुए हैं। उनके बाहर हमने सोचना और देखना सभी बंद कर दिया है। ऐसी अवस्था में ज्ञान का उदभव कैसे होगा?
समाज से दिए हुए पक्षपात और संस्कारों की दासता को जो नहीं तोड़ सकता, वह सत्य को और स्वयं को जानने का अधिकारी ही नहीं है। सत्य पाने को अधिकार चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता में ही प्राप्त होता है। क्या जीवन में रास्ता नहीं मिलता है?
तो उसे बनाओ। वस्तुतः बना बनाया कोई रास्ता ही नहीं है। प्रत्येक को अपने श्रम से अपना मार्ग बनाना पड़ता है और अपने ही विवेक के प्रकाश में उस पर यात्रा भी करनी होती है। जीवन भी दूसरों से नहीं मिलता और न ही जीवन का मार्ग मिलता है। जड़ता ही बंधी हुई लीकों पर गति करती है, जीवन नहीं है। जीवन तो प्रतिपल अज्ञात में प्रवेश है, इसलिए उसके लिए कोई पूर्व निर्धारित मार्ग नहीं है। और न ही होना भी चाहिए। जीवन के भीतर से ही उसका मार्ग भी निकलता है। और मेरी दृष्टि में मनुष्यात्मा का इससे बड़ा और कोई सन्मान नहीं हो सकता। क्योंकि मार्ग पर चलने की स्वतंत्रता कोई वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है।
वास्तविक स्वतंत्रता तो स्वयं के लिए स्वयं ही मार्ग निर्मित करने में निहित होती है। आप चाहते है कि एक शब्द में, मैं अपने समस्त दर्शन को कहूं? तो मैं कहूंगा- स्वतंत्रता। परतंत्रता जड़ता है और स्वतंत्रता आत्मा। जीवन का विकास जड़ता से आत्मा की ओर है अर्थात परतंत्रता की ओर है।
मैं मनुष्य के चित्त को सब भांति स्वतंत्र देखना चाहता हूं। उस स्वतंत्रता में ही उसके सत्य तक और स्वयं तक पहुंचने की संभावना है। स्वतंत्रता से बड़ा न कोई आनंद है, न कोई उपलब्धि। क्योंकि उसमें ही उस बीज के वृक्ष तक पहुंचने का द्वार है जो कि मनुष्य में छुपा हुआ है। मनुष्य तो प्रारंभ ही है। वह कोई अंत नहीं। अंत तो हैं परमात्मा। लेकिन, आंतरिक स्वतंत्रता के अभाव में मनुष्य अपने अंत तक कभी नहीं पहुंच सकता। इससे बड़ी पीड़ा ही क्या होगी कि बीज, बीज ही रह जावे और जो हो सकता था वह हो सके। स्वयं की पूर्ण संभावना को पाए बिना आनंद और कृतार्थता कैसे उपलब्ध हो सकती है? धन्यता तो केवल उन्हीं का भाग्य बनती है, जो कि स्वयं की पूर्णता को प्राप्त हो जाते है।
ओशो, अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08