फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल, धर्म-स्वातंत्र्य विधेयक
प्रश्न: भारतीय संसद में फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल, धर्म-स्वातंत्र्य विधेयक लाया जा रहा है। ईसाई उसका विरोध कर रहे हैं। मदर टेरेसा ने भी उसका विरोध किया है। आप अपना मंतव्य दें!
कृष्ण प्रेम! भारतीय संसद जो न करे थोड़ा है। बूढ़े बच्चों की जमात है। शरीर से तो बूढ़े हैं, बुद्धि से बहुत बचकाने। जिस विधेयक को धर्म-स्वातंत्र्य विधेयक नाम दिया जा रहा है, वह वस्तुतः धार्मिक-परतंत्रता लाने का विधेयक है। उसका नाम ही झूठा है; नाम उलटा है।
इस विधेयक के द्वारा इस बात की चेष्टा की जा रही है कि लोग धर्म-परिवर्तन न कर सकें। कोई हिंदू ईसाई न हो सके, कोई ईसाई मुसलमान न हो सके, कोई मुसलमान हिंदू न हो सके। मुसलमान हिंदू होते भी नहीं; ईसाई हिंदू होते भी नहीं। इसलिए विधेयक वस्तुतः ईसाई धर्म के खिलाफ है, क्योंकि हिंदू ईसाई होते हैं।
और किसी व्यक्ति की धर्म को चुनने की स्वतंत्रता को छीनने को स्वतंत्रता विधेयक कहना अत्यंत मूढ़तापूर्ण है। कोई अगर ईसाई होना चाहता है तो हकदार है ईसाई होने का। सच तो यह है, जन्म के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं है। नहीं तो आज नहीं कल भारतीय संसद में एकाध विधेयक और ले आना चाहिए–फ्रीडम ऑफ पोलिटिकल आइडियालॉजी बिल; राजनैतिक विचारधारा की स्वतंत्रता का विधेयक। कि जो कम्युनिस्ट घर में पैदा हुआ है उसे कम्युनिस्ट ही रहना पड़ेगा; और जो कांग्रेसी घर में पैदा हुआ है उसे कांग्रेसी ही रहना पड़ेगा।
अगर जन्म के साथ राजनीति तय नहीं होती, तो जन्म के साथ धर्म की विचारधारा कैसे तय हो सकती है? जन्म का क्या संबंध है विचारधारा से? किसी आदमी के खून की जांच से बता सकते हो कि हिंदू है, या मुसलमान है, या ईसाई है? किसी आदमी की हड्डियां बता सकेंगी कि उसकी विचारधारा क्या थी–नास्तिक था कि आस्तिक था?
धर्म से और जन्म का कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन यह देश हिंदू मतांधों के हाथ में पड़ा जा रहा है। इस देश में जो क्रांति हुई, उसे क्रांति नहीं कहना चाहिए, प्रतिक्रांति हो गई है। यह देश हिंदू मतांध लोगों के हाथ का शिकार हुआ जा रहा है। चेष्टा यह है कि कोई हिंदू किसी दूसरे धर्म में न जा सके। लेकिन कोई नहीं पूछता कि हिंदू किसी दूसरे धर्म में जाना क्यों चाहते हैं? और अगर जाना चाहते हैं, तो उनके जाने के कारण मिटाओ। अगर हिंदू नहीं चाहते कि हिंदू ईसाई हों, तो उनके कारण मिटाओ। एक तरफ हरिजनों को जिंदा जलाते हो, उनकी स्त्रियों पर बलात्कार करते हो, उनके बच्चों को भून डालते हो, गांव के गांव बरबाद कर देते हो, आग लगा देते हो, और दूसरी तरफ वे ईसाई भी नहीं हो सकते। यह तो खूब स्वतंत्रता रही! जिस धर्म में उनका जीवन भी संकट में है, उस धर्म में ही उन्हें जीना होगा। इसको स्वतंत्रता कहते हो?
लेकिन इस विधेयक को लाने वाले लोगों का कहना है कि ईसाई लोगों को भरमा लेते हैं। हम भरमाने के खिलाफ विधेयक बना रहे हैं।
तुम नहीं भरमा पाते, ईसाई भरमा लेते हैं?
इस विधेयक को लाने वालों का कहना है कि ईसाई लोगों को धन, पद, नौकरी, प्रतिष्ठा, शिक्षा, भोजन, अस्पताल, स्कूल–ऐसी चीजें देकर भरमा लेते हैं।
तो तुम पांच हजार साल से क्या कर रहे हो? स्कूल नहीं खोल सके? अस्पताल नहीं बना सके? लोगों को रोटी-रोजी-कपड़ा नहीं दे सके? अगर ईसाई लोगों को रोटी-रोजी-कपड़ा देकर भरमा लेते हैं, तो यह तो सिर्फ तुम्हारी लांछना है। यह तो तुम्हारे ऊपर दोषारोपण हुआ। यह तो तुम्हारे चेहरे पर कलंक है, कालिख पुत गई। पांच हजार साल में तुम लोगों को रोटी-रोजी भी नहीं दे पाए! लोग इतने भूखे हैं, इतने दीन, इतने दुर्बल कि रोटी-रोजी के लिए धर्म बदल लेते हैं! तो निश्चित तुम्हारे धर्म की कीमत रोटी-रोजी से ज्यादा नहीं है।
और तुम्हारे धर्म ने दिया क्या उन्हें? अगर दिया होता तो क्यों बदलते?
अगर चाहते हो कि न बदलें, तो कुछ दो। अस्पताल खोलो, स्कूल खोलो। भेजो अपने संन्यासियों को कि उनकी सेवा करें। तुम्हारे पास संन्यासी कुछ कम नहीं हैं। पांच लाख हिंदू संन्यासी हैं! इनको भेजो, सेवा करें, स्कूल चलाएं, अस्पताल खोलें। मगर हिंदू संन्यासी तो सेवा लेता है–करता नहीं। उसने तो सदियों से सेवा ली है। उसके पैर दबाओ, उसके चरणों पर सिर रखो।
लोग थक गए मूढ़ों के चरणों पर सिर रखते-रखते। और लोग भूखे हैं। और लोग अप्रतिष्ठित हैं, अपमानित हैं। तुम्हारे साथ हैं, यही आश्चर्य है! शूद्रों का कभी का तुमसे संबंध छूट जाना चाहिए था। कैसे शूद्र तुम्हारे साथ रहे आ रहे हैं, यह चमत्कार है! जहर तुमने हजारों साल तक पिलाया है कि उनमें अब स्वतंत्रता का बोध भी नहीं रह गया है। उनमें इतनी भी क्षमता नहीं रह गई है कि कह दें कि नमस्कार! अब बहुत हो गया! तुमने हमें बहुत सता लिया। अब कम से कम इतनी तो हमें आज्ञा दो कि हम इस घेरे के बाहर जाएं।
इस भय से कि शूद्र और आदिवासी ईसाई न होते चले जाएं, यह विधेयक लाया जा रहा है। इस विधेयक के पीछे मंशा कुल केवल इतनी है कि धर्म-परिवर्तन की स्वतंत्रता शेष न रह जाए।
यह कोई अच्छा लक्षण नहीं है; न लोकतांत्रिक है। और एक ऐसे राष्ट्र के लिए जो अपने को धर्म-निरपेक्ष कहता है, इस तरह का विधेयक तो बिलकुल अपमानजनक है।
तो पहली तो बात मैं यह कहना चाहता हूं: यह धर्म-परतंत्रता का विधेयक है–स्वतंत्रता का नहीं। मैं ईसाई नहीं हूं, मैं हिंदू भी नहीं हूं। मैं किसी धर्म का अनुयायी नहीं हूं। लेकिन फिर भी मैं यह मानता हूं कि अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहता है तो यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। और अगर वह रोटी-रोजी के लिए भी धर्म बदलना चाहता है, तो भी उसका यह जन्मसिद्ध अधिकार है। वह किस कारण से धर्म बदलना चाहता है, यह बात विचारणीय नहीं है। कारण भी उसको ही तय करना है। और अगर वह रोटी-रोजी के लिए अपना धर्म बदल लेता है, तो उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि जिस धर्म में वह था, वह रोटी-रोजी भी नहीं दे सका–और तो क्या देगा!
थोथी बकवास, थोथे सिद्धांत पेट नहीं भरते। भूखे भजन न होहिं गोपाला! वह बहुत दिन सुन चुका भूखे भजन करते-करते; न आत्मा तृप्त होती है, न शरीर तृप्त होता है। परलोक की तो बात छोड़ो, यह लोक ही कष्ट में और नरक में बीत रहा है। तो अगर कोई इसे बदल लेना चाहे तो मैं उसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूं। और कोई भी राष्ट्र इस जन्मसिद्ध अधिकार को छीने, वह राष्ट्र लोकतांत्रिक नहीं रह जाता। यह तो पहली बात।
दूसरी बात, ईसाई उसका विरोध कर रहे हैं। मैं इस बात के बहुत पक्ष में नहीं हूं कि ईसाई उसका विरोध करें। सिर्फ ईसाई ही क्यों विरोध कर रहे हैं? क्या इस देश में और कोई सोच-विचार करने वाले लोग नहीं हैं? हिंदू चुप, जैन चुप, बौद्ध चुप, सिक्ख चुप। सिर्फ ईसाई ही क्यों विरोध कर रहे हैं? क्योंकि चोट सिर्फ ईसाइयों पर पड़ रही है।
और यह मैं जरूर कहना चाहूंगा कि ईसाइयों के लोगों के धर्म-परिवर्तित करने के जो ढंग हैं, वे ढंग धार्मिक नहीं हैं। वे ढंग रिश्वत जैसे हैं। वे ढंग शोभायोग्य नहीं हैं। वे ढंग किसी धर्म को आदृत नहीं करते। वे ढंग चालबाजियों के हैं।
इसलिए मैं भी विरोध कर रहा हूं इस विधेयक का, लेकिन उस कारण से नहीं जिस कारण से ईसाई विरोध कर रहे हैं। ईसाइयों का विरोध और हिंदुओं का पक्ष तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हिंदू कह रहे हैं कि हम लोगों को चाहते हैं कि उनके धर्म को कोई सस्ते में न खरीद सके, इसलिए विधेयक बना रहे हैं। ईसाई कहते हैं कि हम मानते हैं कि धर्म-परिवर्तन का अधिकार मनुष्य की स्वतंत्रता है, इसलिए हम विधेयक का विरोध कर रहे हैं। दोनों बातें झूठ कह रहे हैं।
ईसाइयों को मतलब नहीं है धर्म की स्वतंत्रता से। क्योंकि अमरीका में ईसाई विरोध करते हैं ईसाइयों का परिवर्तन। जो ईसाई हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित हो जाते हैं, अमरीका में ईसाई उनका विरोध करते हैं कि यह नहीं होना चाहिए; कि हमारे बच्चों को भड़काया जा रहा है; कि हमारे बच्चों को उलटी-सीधी बातें समझाई जा रही हैं; कि हमारे बच्चों की बुद्धि परिपक्व नहीं है; कि हमारे बच्चों को सम्मोहित किया जा रहा है।
अमरीका में बड़े जोर से चर्चों ने गुहार मचा रखी है कि हमारे बच्चे हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित न हो जाएं, क्योंकि वह हिंदू हो जाना है। यह तो दूर, महर्षि महेश योगी की ध्यान की प्रक्रिया भी कोई ईसाई न करे, इसका चर्च गुहार मचा रहे हैं। क्यों? क्योंकि ध्यान की प्रक्रिया तो कोई धर्म का ऐसा अनिवार्य अंग नहीं है। महर्षि महेश योगी की ध्यान की प्रक्रिया तो बड़ी सीधी है, मंत्र-जाप है। और उनका कोई ऐसा विरोध भी नहीं कि तुम ईसा-ईसा मत जपो। तुम्हें जो जपना हो, वह जपा जा सकता है। तुम्हें अगर अवेमारिया-अवेमारिया जपना है, तो अवेमारिया जपो। उससे भी वही फल होगा जो राम-राम जपने से होता है। महर्षि महेश योगी का ध्यान का आंदोलन कोई हिंदू धर्म का प्रचार नहीं है। क्योंकि ध्यान का हिंदू धर्म से क्या लेना-देना! ध्यान तो जैनों का भी है, बौद्धों का भी है। ध्यान तो एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। मैं महर्षि महेश योगी के ध्यान से सहमत नहीं हूं। मैं नहीं मानता कि वह ध्यान कोई बहुत गहरा ध्यान है कि उसे भावातीत-ध्यान कहा जा सके। लेकिन इस संबंध में मैं जरूर उनका समर्थन करता हूं कि जो ईसाई विरोध कर रहे हैं वह विरोध बेईमानी का है।
अब कोशिश की जा रही है कि कोई भावातीत-ध्यान न करे। क्योंकि जो भावातीत-ध्यान करेगा, वह हिंदू हो रहा है–और ईसाई धर्म को खतरा पैदा हो रहा है। अमरीका में विरोध किया जा रहा है कि भावातीत-ध्यान न कोई करे। स्कूलों में पाबंदी लगाई जा रही है, कालेजों में पाबंदी लगाई जा रही है, युनिवर्सिटियों पर दबाव डाला जा रहा है। राज्यों में ऐसे नियम बनाने की कोशिश की जा रही है–बड़े जोर से–कि कोई व्यक्ति ईसाई धर्म छोड़ कर किसी दूसरे धर्म में सम्मिलित न हो जाए।
और इतना ही नहीं, जो बच्चे, जो युवक सोच-विचारपूर्वक…और निश्चित समझना कि युवकों के पास ज्यादा सोच-विचार की क्षमता है, वे ज्यादा सुशिक्षित हैं, उनके पास ज्यादा विस्तीर्ण परिप्रेक्ष्य है। उन्होंने बाइबिल भी पढ़ी है और उन्होंने गीता भी पढ़ी है और उन्होंने उपनिषद भी देखे हैं और ताओ तेह किंग भी देखा है। अब उनके सामने चुनाव है। उन्हें चुनाव करना है। और उन्हें पूरब की बातों में ज्यादा गहराई मालूम पड़ रही है। गहराई है। और अगर वे पूरब की बातें को चुन रहे हैं, तो बड़ी घबड़ाहट फैल रही है। वहां ईसाई विरोध कर रहे हैं कि कोई हिंदू न हो जाए, कि कोई बौद्ध न हो जाए।
मेरे संन्यासियों का विरोध शुरू किया जा रहा है। और मेरे संन्यासी तो न हिंदू हो रहे हैं, न बौद्ध हो रहे हैं, न जैन हो रहे हैं। मेरे संन्यासी तो सिर्फ सारे कारागृहों से मुक्त हो रहे हैं। वे तो सिर्फ धार्मिक हो रहे हैं। उनका किसी धर्म से कोई नाता नहीं रह जाने वाला। लेकिन उनका भी विरोध किया जा रहा है। मेरे आश्रमों पर भी पुलिस छापे मार रही है। जर्मनी में प्रोटेस्टेंट चर्च ने खूब प्रचार कर रखा है कि कोई भी मेरा संन्यासी न हो जाए। यहां भी जासूस भेजे हैं प्रोटेस्टेंट चर्च ने कि लोगों को भड़काएं, यहां के खिलाफ खबरें फैलाएं, यहां के संबंध में झूठे प्रचार करें।
तो ईसाइयों के मैं समर्थन में नहीं हूं। ईसाई जो इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं, उसमें उनकी नीयत साफ नहीं है। वे चाहते हैं कि उनको सुविधा बनी रहे कि किसी को दवा दे दी, किसी को रोटी दे दी, और रोटी और दवा के बहाने उसका धर्म बदल लिया। यह कोई धर्म-परिवर्तन हुआ? किसी को नौकरी दिला दी और धर्म बदल लिया। यह कोई धर्म-परिवर्तन हुआ? ऐसे कहीं कोई ईसा के करीब आएगा? न वह राम के करीब था, न वह ईसा के करीब रहेगा। और कल अगर राम के मानने वाले ने उसे ज्यादा बड़ी तनख्वाह दिलवा दी, वह राम के साथ फिर हो जाएगा। उसको राम और ईसा से कोई लेना-देना नहीं है, बाजार की बात हो गई।
तो मैं ईसाइयों के विरोध के कारण में सहमत नहीं हूं।
और मदर टेरेसा ने भी विरोध किया है, उससे जाहिर हो जाता है। मदर टेरेसा का भी मस्तिष्क साफ तुम्हारे सामने प्रकट हो जाता है–कि सब सेवा गरीबों की, दीनों की, कोढ़ियों की, अनाथों की, बस ऊपर-ऊपर है। भीतर असली नजर है: किस तरह लोगों को ईसाई बनाया जाए। सेवा तो प्रलोभन है, नजर तो इस बात पर लगी है कि कैसे ईसाइयों की संख्या बढ़ाई जाए।
मैं विधेयक का विरोधी हूं, लेकिन ईसाई जिन कारणों से विरोध कर रहे हैं, वे मेरे कारण नहीं हैं। मेरा कारण तो सिर्फ सीधा-साफ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म स्वयं चुनने का अधिकार होना चाहिए। जन्म के साथ किसी पर धर्म का कोई आरोपण नहीं होना चाहिए।
फिर कोई ईसा को चुने। क्योंकि ईसा के बड़े प्यारे वचन हैं। और ईसा के मार्ग से बहुत लोग पहुंचे हैं। कोई चुने तो जरूर उसे हक होना चाहिए। कोई कृष्ण को चुने, कि कोई बुद्ध को चुने। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भीतरी रुझान और अपने अंतर-झुकाव के अनुसार अपना धर्म चुनना चाहिए। धर्म थोपा नहीं जाना चाहिए। इसलिए मैं विधेयक का विरोधी हूं।
मगर मैं पूछना चाहता हूं मदर टेरेसा से कि अमरीका में जो ईसाई विरोध कर रहे हैं कि कोई हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित न हो, भावातीत-ध्यान न करे, मेरा संन्यासी न हो जाए–उस संबंध में मदर टेरेसा ने एक शब्द भी नहीं कहा! उसका विरोध नहीं किया! उसका भी विरोध करना था।
और यहां तो विधेयक ही लाया जा रहा है, वहां और भी जालसाजियां की जा रही हैं। कोई व्यक्ति अगर हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित हो जाता है, तो मां-बाप उसे चुरवा लेते हैं। उसकी चोरी की जाती है! उस व्यक्ति को जासूसों के द्वारा घेर कर कठघरों में बंद कर दिया जाता है। उसको कठघरों में बंद करके जबरदस्ती ट्रैंक्वेलाइजर्स के इंजेक्शन दिए जाते हैं, इलेक्ट्रिक शॉक दिए जाते हैं। उसको फिर से सम्मोहित किया जाता है कि ईसाई धर्म ही सही है। और उसको सब तरह से सताया जाता है। मां-बाप अपने बच्चों के साथ यह कर रहे हैं! और इसके लिए एजेंसियां बनी हुई हैं। यह अब एक जाना-माना व्यवसाय है अमरीका में, कि अगर तुम्हारा बच्चा ईसाई धर्म छोड़ कर हिंदू हो गया, या बौद्ध हो गया, तो उसे कैसे वापस लाना! तो उसकी एजेंसियां हैं, जासूस हैं, सम्मोहनविद हैं। और वे सब तरह की जालसाजियां कर रहे हैं बच्चों के साथ।
मदर टेरेसा ने इनमें से किसी का विरोध नहीं किया! और हिंदुस्तान के ईसाई इसके विरोध में कहीं कोई जुलूस नहीं निकालते!
ये सब एक जैसे बेईमान हैं। वे हिंदू जो संसद में बैठ कर स्वतंत्रता के नाम पर परतंत्रता का बिल ला रहे हैं, वे, और मदर टेरेसा और ईसाई जो सारे हिंदुस्तान में जगह-जगह जुलूस निकाल रहे हैं, सभाएं कर रहे हैं, वे, इनमें जरा भी फर्क नहीं है। ये सब मौसेरे-मौसेरे भाई हैं। ये सब चोर-चोर एक से हैं। इन दोनों की नजर इस बात पर है कि हमारी संख्या कैसे बढ़ती रहे हिंदू चाहता है: मेरी संख्या कम न हो जाए। ईसाई चाहता है: मेरी संख्या बढ़ती रहे। ये राजनीति के दांव-पेंच हुए। इसका धर्म से क्या लेना-देना है!
मैं, अमरीका में जो ईसाई कर रहे हैं, उसका भी विरोध करता हूं; हिंदुस्तान में जो हिंदू करना चाहते हैं संसद के माध्यम से, उसका भी विरोध करता हूं। मेरी तो घोषणा एक सीधी-सादी घोषणा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म चुनने का स्वरूपसिद्ध अधिकार है। इस पर किसी का कोई हक नहीं है। और प्रत्येक व्यक्ति को निर्विरोध सुविधा मिलनी चाहिए कि वह अपना धर्म चुने। अगर कोई हिंदू चाहता है कि ईसाई हो जाए, तो जरूर उसे हक है कि वह ईसाई हो जाए।
लेकिन ईसाई होना उसका अंतर-परिवर्तन होना चाहिए। कोई उसकी छाती पर छुरा रख कर ईसाई बना दे, तुम उसको ईसाई होना कहोगे? इसी तरह मुसलमानों ने न मालूम कितने लोगों को मुसलमान बनाया–छाती पर छुरा रख कर। यह कोई मुसलमान बनाना हुआ! यह कोई इसलाम हुआ!
अब हालतें बदल गई हैं, अब छाती पर छुरा नहीं रखा जा सकता। लेकिन छाती पर सौ-सौ रुपये के नोटों की गड्डी तो रखी जा सकती है! यह भी वही बात हुई। उस आदमी को हम मरने की धमकी दे रहे थे कि मार डालेंगे! इस आदमी को हम जीने का प्रलोभन दे रहे हैं कि देख नोटों की गड्डी! मगर बात वही की वही है। मारने की धमकी कि जीने का लोभ–एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
देश में स्वतंत्रता की हवा होनी चाहिए। मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे–सब खुले होने चाहिए। जिसको जहां प्रीतिकर लगे, जाए। लेकिन खींचातानी नहीं होनी चाहिए। जिसको जहां सुखद लगे, वहां गुनगुनाए, वहां प्रार्थना करे, वहां ध्यान करे। मगर हाथ-पैर में जंजीरें नहीं होनी चाहिए। न तो मंदिरों में ले जाने के लिए कोई जंजीर होनी चाहिए और न मंदिरों में रोक रखने की कोई जंजीर होनी चाहिए। तब यह देश लोकतंत्र होगा।
मगर इस देश की संसद तो अत्यंत दरिद्र है।
मेरे संबंध में भी थोड़े दिन पहले घंटे भर संसद में विवाद हुआ। मुझसे कहा गया कि मैं उसका जवाब दूं। लेकिन विवाद इतना बचकाना था कि मुझे जवाब देने योग्य भी मालूम नहीं पड़ा। विवाद में कोई बल ही नहीं; कोई बात ही नहीं।
भारतीय संसद तो ऐसा है जैसे प्राइमरी स्कूल। और शर्म भी नहीं आती, परतंत्रता थोपने के लिए बिल को नाम दिया है–फ्रीडम ऑफ रिलीजन, धर्म-स्वातंत्र्य! इसका निश्चित विरोध होना चाहिए। मगर ईसाइयों की तरफ से ही नहीं। ईसाइयों की तरफ से विरोध के पीछे तो न्यस्त स्वार्थ है। और मदर टेरेसा ने भी वक्तव्य देकर एक लिहाज से अच्छा किया। कम से कम उनकी भी असली तस्वीर सामने आ गई, महात्मापन उघड़ गया। इसका विरोध होना चाहिए सबकी तरफ से–हिंदुओं की तरफ से, जैनों की तरफ से, बौद्धों की तरफ से, सिक्खों की तरफ से। और खासकर मेरे लोगों को इसका विरोध करना चाहिए, क्योंकि हम तो किसी धर्म में नहीं मानते, और सभी धर्मों को अपना मानते हैं।
तुम मेरी बात को ख्याल में लेना।
मेरा संन्यासी किसी धर्म का अनुयायी नहीं है। और साथ ही साथ मेरा संन्यासी सारे धर्मों को आत्मसात करता है। उसकी छाती बड़ी है। उसमें कुरान भी समा सकती है और वेद भी समा सकते हैं और धम्मपद भी। उसमें एक कोने में बुद्ध भी विराजमान हो सकते हैं और एक कोने में क्राइस्ट भी बस सकते हैं। मेरे संन्यासी का हृदय बड़ा है। इतना ही बड़ा संन्यासी इस दुनिया को अब बचा सकता है। इतना ही बड़ा धार्मिक हृदय इस दुनिया को अब बचा सकता है।
और उस सौंदर्य का तो अनुभव करो; उस गरिमा और महिमा, उस समृद्धि का तो अनुभव करो, जब तुम्हारे प्राणों में एक श्वास बुद्ध की भी चलती है और एक श्वास महावीर की भी चलती है और एक श्वास मीरा की भी चलती है। तुम्हारी बगिया में ये सारे फूल खिलें, यह अच्छा है, बजाय इसके कि तुम्हारी बगिया में बस एक ही तरह के फूल हों–कि गेंदे ही गेंदे लगा दिए। गेंदे सुंदर होते हैं; मगर गेंदे ही गेंदे बगिया में लगे हों तो बगिया थोड़ी उदास हो जाएगी, बेरौनक हो जाएगी; ऊब पैदा करने लगेगी।
सातों रंग हमारे हैं। सातों स्वर हमारे हैं। इस पृथ्वी पर जितने भी बुद्धपुरुष हुए, सब हमारे हैं। और सारे मंदिर-मस्जिद हमारे हैं। ऐसा कुछ विधेयक लाओ कि किसी मंदिर-मस्जिद में किसी के लिए कोई रोक-टोक न हो। अगर हिंदू किसी दिन ईसाई के चर्च में जाना चाहे तो रोका न जा सके। क्योंकि हिंदू के ईसा उतने ही हैं जितने कि राम, जितने कि कृष्ण। ऐसा कुछ विधेयक लाओ, वह धर्म-स्वातंत्र्य का विधेयक होगा, कि जिसमें कोई ईसाई अगर जैन-मंदिर में जाकर ध्यान करना चाहे तो कोई रुकावट न डाली जा सके। अभी तो हालतें बड़ी अजीब हैं।
अभी तो हालतें ऐसी हैं कि जैन-मंदिर में ईसाई का या मुसलमान का जाना तो दूर, दिगंबर जैन-मंदिर में श्वेतांबर को न जाने दें! प्रोटेस्टेंट चर्च में कैथलिक को न जाने दें! हिंदू के मंदिर में, सवर्ण का मंदिर हो, तो शूद्र को न जाने दें!
कुछ ऐसा विधेयक लाओ कि सारे मंदिर, सारी मस्जिदें, सारे गुरुद्वारे सबके हों। जो जहां चाहे, जहां मौज हो। और क्यों न ऐसा हो कि एक दिन मंदिर और एक दिन मस्जिद और एक दिन गुरुद्वारा! सबके स्वाद क्यों न लिए जाएं? गुरुद्वारे का भी अपना मजा है! गुरुग्रंथ का भी अपना रस है! कभी-कभी उसे भी चखा जाए। एक सा ही आध्यात्मिक भोजन क्यों रोज-रोज? और फिर उससे ऊब पैदा होती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने भिंडियां बनाईं और मुल्ला ने बहुत तारीफ की और कहा कि भिंडी बड़ी अदभुत है! दूसरे दिन भी बनाईं भिंडियां। मुल्ला ने कोई तारीफ नहीं की, सिर्फ भिंडियां चुपचाप खाता रहा। तीसरे दिन भी भिंडियां बनाईं। मुल्ला ने मुंह बिचकाया, मगर किसी तरह भिंडियां लील गया। चौथे दिन भी जब भिंडियां बनीं तो मुल्ला ने थाली फेंक दी। पत्नी ने कहा, यह बड़ा असंगत व्यवहार है। थाली क्यों फेंकी?
तो मुल्ला ने कहा, भिंडी, भिंडी, भिंडी…क्या मुझे बिलकुल पागल कर देगी?
तो उसने कहा, तुम्हीं ने तो कहा था पहले दिन कि भिंडी बड़ी प्यारी है! तो मैं तो तुम्हारी ही बात मान कर चल रही हूं।
तुम्हारे जीवन में इतनी उदासी न रहेगी, इतनी धूल न रहेगी, अगर कभी-कभी कुरान का भी स्वाद लो और गीता का भी स्वाद लो और उपनिषद का भी स्वाद लो और बाइबिल का भी स्वाद लो। तुम्हारी जिंदगी में ज्यादा रंग होगा, ज्यादा रस होगा। तुम्हारी जिंदगी में ज्यादा आयाम होंगे। तुम्हारी जिंदगी में ज्यादा पहलू होंगे। जैसे कोई हीरे को निखारता है तो पहलू धरता है, अनेक पहलू बनाता है हीरे में। जितने ज्यादा पहलू होते हैं, हीरे में उतनी चमक आती है।
एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां हर आदमी को मनुष्य की पूरी वसीयत पूरी की पूरी उपलब्ध हो। यह बात बड़ी दरिद्रता की है कि तुम हिंदू हो, इसलिए जीसस के प्यारे वचन तुम्हारे प्राणों में कभी न गूंजेंगे! तुम वंचित रह जाओगे! और जीसस के वचन ऐसे हैं कि जो उनसे वंचित रह गया, वह कुछ कम रह गया। कुछ ज्यादा हो सकता था। एकाध और कली खिल सकती थी। एकाध और सुगंध उठ सकती थी। रोशनी और थोड़ी सघन हो सकती थी। जो आदमी जीसस से अपरिचित है, उस आदमी में कुछ कमी रह गई; उसकी आत्मा के किसी कोने में अंधेरा रह ही जाएगा, निश्चित रह जाएगा! क्योंकि कृष्ण के बहुत प्यारे वचन हैं, मगर जीसस अनूठे हैं, अद्वितीय हैं! कृष्ण कृष्ण हैं, जीसस जीसस हैं, बुद्ध बुद्ध हैं! सब अनूठे हैं! तुम सबका अद्वितीय आनंद लो।
अगर कोई मुझसे पूछे, तो इसको मैं कहूंगा, स्वतंत्रता-विधेयक–कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म चुनने का हक है और प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक धर्म में रस लेने का हक है। और प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक धर्मगृह में, मंदिर में, पूजागृह में जाने का अधिकार है। कोई कहीं रोका नहीं जा सकता।
और जरूरत क्या है कि लेबल लगाओ कि यह ईसाई और यह हिंदू और यह मुसलमान और यह जैन? लेबल लगाने की जरूरत क्या है? विशेषण लगाने की जरूरत क्या है? क्या धार्मिक होना काफी नहीं है? क्या धार्मिक होना पर्याप्त नहीं है? क्या तुम सोचते हो, हिंदू होकर तुम धार्मिक से कुछ ज्यादा हो जाओगे? कुछ कम हो जाओगे, ज्यादा नहीं।
धर्म आना चाहिए पृथ्वी पर। और ये सब धाराएं धर्म की धाराएं हैं। और ये सारी धाराएं मिल कर धर्म की गंगा बनती है।
यह जो विधेयक लाया जा रहा है, अलोकतांत्रिक है, जन-विरोधी है, धर्म-विरोधी है।
लेकिन फिर दोहरा दूं: मेरे विरोध का कारण वही नहीं है जो ईसाइयों का है। उनका विरोध का कारण तो वही है जो संसद में विधेयक लाने वालों का है।
विधेयक लाने वालों के पीछे हिंदू मतांध, आर्यसमाजी, इस तरह के लोग हैं। और विधेयक का विरोध करने वाले ईसाई। मैं न तो ईसाई हूं, न हिंदू हूं। मैं तो सिर्फ जैसा मुझे दिखाई पड़ रहा है साफ-साफ, वैसा कह रहा हूं, मेरा कोई पक्षपात नहीं है।
-ओशो (प्रेम—पंथ ऐसो कठिन)