पूर्वजन्मों का संचित कर्म तय करता है कि आपका जीवन कैसा होगा

सोशल मीडिया पर आध्यात्म मत परोसिए। क्योंकि आध्यात्म कोई परोसने की चीज है ही नहीं। आध्यात्म तो स्वयं को जानने, समझने का माध्यम मात्र है।
बहुत से लोग मुझसे अपेक्षा करते हैं कि सोशल मीडिया पर राजनैतिक लेखों की बजाय आध्यात्मिक लेख लिखा करूँ। लेकिन आध्यात्मिक लेख लिखने का लाभ क्या है ?
ये जो आप लोगों के पास दुनिया भर की आसमानी, हवाई, ईश्वरीय किताबें पड़ी हुई हैं, उन्हें पढ़कर आध्यात्मिक क्यों नहीं हो पाये आजतक ?
ये जो दुनिया भर के बाबाओं, साधु-संतों ने जीवन शैली बताने के लिए किताबें लिखी हैं, प्रवचन दिये हैं, उन सबको पढ़-सुनकर आध्यात्मिक क्यों नहीं हो पाये आज तक ?
यदि कूपमंडूक बनकर जीना, मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जीना, देश को लूटने और लुटवाने वालों के तलुए चाटकर जीना ही आध्यात्म है तो क्षमा चाहता हूँ, मैं आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हूँ। रत्ती भर भी रुचि नहीं है मेरी ऐसे चाटुकार और स्वार्थी आध्यात्मिक गिरोह में शामिल होने की।
मेरे लिए आध्यात्म हो या पूजा-पाठ, ध्यान, भजन…..पूर्णतः निजी विषय है दिखावा या आडंबर का विषय नहीं। मैं तो यह भी नहीं दिखाना चाहता किसी को कि कब मैं ध्यान करता हूँ और कैसे ध्यान करता हूँ। क्योंकि ध्यान दुनिया को दिखाने के लिए नहीं, आत्मिक उत्थान के लिए करता हूँ।
फिर प्रश्न यही कि आध्यात्मिक लेखों और प्रवचनों का लाभ क्या जब गुलामी ही करनी है देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों की। तलुए ही चाटने हैं माफियाओं और दलालों की, तो लाभ क्या आध्यात्मिक लेखों और प्रवचनों का ?
आध्यात्म कोई आपके मनोरंजन या टाइमपास की चीज नहीं है। मनोरंजन ही करना है, टाइमपास ही करना है, तो और कई तरीके हैं, आध्यात्मिकता की नौटंकी करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ओशो ने सूफियों की एक कहानी सुनाई थी ईसा के संबंध में। बाइबिल में तो नहीं है; लेकिन सूफियों के पास कई कहानियां हैं ईसा के संबंध में, जो बाइबिल में नहीं हैं। और बड़ी प्यारी कहानियां हैं। कहानी है कि ईसा ध्यान करने पर्वत पर गए। पर्वत बिलकुल निर्जन था; मीलों-मीलों तक किसी का कोई पता न था। लेकिन एक बूढ़ा आदमी उन्हें उस पर्वत पर मिला। एक वृक्ष के नीचे बैठा–मस्त! पूछा उस बूढ़े आदमी से: कितने दिनों से आप यहां हैं? क्योंकि वह इतना बूढ़ा था कि लगता था होगा कम से कम दो सौ साल उम्र का। उस बूढ़े ने कहा: सौ साल के करीब मुझे यहां रहते-रहते हो गए हैं। तो ईसा ने चारों तरफ देखा, न कोई मकान है, न छप्पर है। तो पूछा कि धूप आती होगी, वर्षा आती होगी…न कोई छप्पर न कोई मकान! यहां सौ साल से रह रहे हैं? कोई मकान नहीं बनाया?
तो वह बूढ़ा ज़ोर से हंसने लगा। उसने कहा: मालिक, तुम जैसे और जो पैगंबर पहले हुए हैं, उन्होंने मेरे संबंध में यह भविष्यवाणी की थी कि केवल सात सौ साल जीऊंगा। अब सात सौ साल के लिए कौन झंझट करे मकान बनाने की–केवल सात सौ साल! दो सौ तो गुजर ही गए। और जब दो सौ गुजर गए तो बाकी पांच सौ भी गुजर जाएंगे। दो और पांच में कुछ फासला बहुत तो नहीं। सात सौ साल मात्र के लिए कौन चिंता करे छप्पर बनाने की।
यह कहानी प्रीतिकर है। हम तो सत्तर साल रहते हैं तो इतनी चिंता करते हैं, इतनी चिंता करते हैं कि भूल ही जाते हैं कि यहां सदा नहीं रहना है! भूल ही जाते हैं कि मौत है, और मौत प्रतीक्षा कर रही है। और आज नहीं कल, कल नहीं परसों द्वार पर दस्तक देगी। और सब जो बनाया है छिन जाएगा। सिर्फ निर्वाण की चुनरी मौत नहीं छीन पाती। उसी के ताने-बाने बुनो। उसका ही ताना-बाना जो बुनने लगे उसे मैं संन्यासी कहता हूं। –ओशो (बिरहिनी मंदिर दीया ना)
कथासार ओशो ने कह ही दिया कि 70 वर्ष का जीवन जीना है, उसके लिए काहे आडंबर में पड़ना ? काहे मकान बनाना, काहे घर गृहस्थी सजाना ?
तो प्रश्न यह कि क्या हम दुनिया में केवल मृत्यु की प्रतीक्षा करने के लिए आए हैं ?
इस बीच का जीवन साधु की तरह पेड़ के नीचे बैठे रहकर बिताना चाहिए ?
यदि कोई चाहे भी तो ऐसा नहीं कर पाएगा, क्योंकि पूर्वजन्मों के संचित कर्म ऐसा होने नहीं देंगे। यदि आप पिछले जन्मों में अतृप्त रहे, कामवासना हो या और कोई वासना यदि तृप्त नहीं हुई, मुक्त नहीं हो पाये और दोबारा जन्म लिए तो आप साधु भी बन जाओ, घने जंगलों में भी चले जाओ, तब भी आप मुक्त नहीं हो पाओगे।
किसी और का उदाहरण नहीं, अपना ही उदाहरण लूँ, तो बियाबान जंगल में भी चला जाऊँ, तो भी कम्प्युटर, स्मार्टफोन, इन्टरनेट से लेकर लाइट तक की व्यवस्था स्वतः हो जाएगी। मुझे कोई अधिक एफर्ट करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। क्योंकि ये सब मेरे साथ ही जुड़े हैं, मैं इनसे अलग नहीं हूँ।
जब मैंने दिल्ली छोड़ा था, उससे पहले मेरे पास वॉशिंग मशीन से लेकर सभी आधुनिक उपकरण थे, महंगे फर्नीचर थे। लेकिन सब कुछ कौड़ियों में बेचकर निकल गया था दिल्ली से। जब हरीद्वार के एक आश्रम में पहुँचा तो वहाँ पहुँचते ही वहाँ के स्वामीजी ने नया लेपटॉप खरीद कर दे दिया था। जब हरिद्वार छोड़ा और प्रयाग राज आया, तो वहाँ भी परमानन्द आश्रम के अध्यक्ष ने कहा कि हमारे आश्रम में ही रह जाओ, कम्प्युटर आदि सबकुछ मिल जाएगा। जब लीलामन्दिर आश्रम आया, तो आते ही मुझे लेपटॉप मिल गया। लेपटॉप वापस लिया उनहोंने तो डेस्कटॉप आ गया।
क्योंकि मैंने यह जो जन्म लिया है इस जन्म में आधुनिक उपकरणों के माध्यम से ही अपना संदेश लोगों तक पहुँचा सकता हूँ और यह ईश्वर जानता है। इसीलिए जहां भी जाता हूँ मेरे लिए ऐसी व्यवस्था स्वतः हो जाती है, भले मेरे जेब में फूटी कौड़ी न हो। जबकि जब मैंने दिल्ली छोड़ा था, तो यह सोचकर छोड़ा था कि अब कोई आडंबर इकट्ठा नहीं करना। बिलकुल एक जोड़े कपड़े में ही जीवन बिताना है, क्योंकि मेरा जीवन स्थायी नहीं है। मुझे स्थानांतरण करते रहना पड़ता है, ना चाहते हुए भी। मैं कहीं एक जगह टिक नहीं सकता। लेकिन आज मुझे एक ही जगह रहते हुए नौ वर्ष से अधिक हो गए। और ना चाहते हुए भी इतना कुछ इकट्ठा हो गया कि यदि कहीं और जाना चाहूँ, तो ट्रक मंगवाना पड़ेगा।
आध्यात्मिक गुरु आपको सिखाते हैं कि मोह माया का त्याग करो, कुछ भी संचय मत करो। कम से कम में गुजारा करो और यदि संन्यास लिया है, तो लंगोट कमंडल और कंबल से अधिक की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इन्हीं आध्यात्मिक गुरुओं, त्यागी बैरागियों का जीवन को भीतर से देखने जाएँगे, तो पाएंगे कि बड़ी लक्जरी लाइफ जी रहे होते हैं। ओशो को ही देख लीजिये, श्री श्री रविशंकर, बाबा रामदेव और बड़े बड़े जगतगुरु, शंकरचार्यों को देख लीजिये। क्या ये सब लंगोट, कंबल और कमंडल पर अटके हुए हैं ?
पूर्वजन्मों का संचित कर्म तय करता है कि आपका जीवन कैसा होगा
यदि पूर्वजन्मों में आपने दान-पुण्य अधिक किया है, ध्यान-तप अधिक किया है, दूसरों का सहयोग किया बिना किसी शर्त या स्वार्थ के। तो इस जन्म में आपको कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। यदि आप कुछ ना भी करें, तो भी आपको भोजन व अन्य सुविधाएं प्राप्त होती रहेंगी, भले जलने वाले आपको आलसी निकम्मा कहें।
यदि पूर्वजन्मों में आपकी रुचि संगीत में रही, तो इस जन्म में बचपन से ही आप संगीत में रुचि लेंगे और बहुत ही कम आयु में संगीत में पारंगत हो जाएंगे। हो सकता है आप जिस परिवार में जन्म लें, वह संगीत के ही क्षेत्र से जुड़े हों ?
लेकिन यदि आपने पूर्व जन्मों में दूसरों को कष्ट पहुंचाया है, दूसरों की ज़िंदगी नर्क बनाई है, दूसरों की संपत्तियाँ हड़पी हैं या हड़पने वालों के सहयोगी बने हैं, या अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों के सहयोगी बने, तो निश्चित मानिए आपको दलित व शोषित समाज में जन्म लेना पड़ेगा। और वह सब आपको सहना पड़ेगा, जो आपने दूसरों पर किया।
कहते हैं लोग कि स्वर्ग और नर्क मरने के बाद मिलता है क्योंकि स्वर्ग और नर्क आसमान में कहीं है। लेकिन यह अधूरा सत्य है। स्वर्ग या नर्क मरने के बाद तभी मिलता है, जब आप नया जन्म लेते हैं। यदि आपने अच्छे कर्म किए हैं, तो अदानी, अंबानी, माल्या, मोदी, जैसा जीवन मिलता है या ऐसे लोगों का संरक्षण प्राप्त होता है। लेकिन यदि आपने बुरे कर्म किए या बुरे कर्म करने वालों के सहयोगी रहे, तो आप को ऐसा जीवन मिलता है जिसमें पूरा जीवन रोते-बिलखते भाग्य को कोसते बीत जाता है।
दलितों के समाज पर यदि नजर डालें, तो आप पाएंगे कि कोई चाहकर भी इन्हें इनके कष्टों से मुक्त नहीं करवा सकता। क्योंकि ये लोग जानबूझकर ऐसे नेता और सरकारें चुनेंगे जो इनके जीवन को और अधिक कष्टमय बनाए। और यदि कोई इन्हें सही राह दिखाने आए भी, तो ये उसी के शत्रु हो जाएँगे। कोई नेता लाख बुरा हो, इनपर दुनिया भर के अत्याचार कर रहा हो, इन्हें एक बोतल दारू और पाँच सौ का नोट देकर सेट कर लेगा। लेकिन यदि कोई भला मानस इनकी भलाई के लिए काम करना चाहे, तो ये लोग उसे अपना शत्रु मान लेंगे।
और यही सत्य भी है कि जिसे नर्क भोगने की सजा मिली हो, कोई व्यक्ति उसे नर्क से मुक्त करवाएगा, तो दोषी ही कहलाएगा। जेल से किसी को भगा ले जाने वाला भी अपराधी माना जाता है। भले ही वह अपराधी को यातनाओं और कष्टों से मुक्त करवाकर परोपकार का कार्य ही कर रहा हो।
आपने देखा होगा कि शोषित समाज की भलाई के लिए कई संगठन और संस्थाएं कार्य करती हैं। लेकिन क्या वे इनका भला कर पा रही हैं ?
नहीं बिलकुल भी नहीं। इनमें से अधिकांश तो केवल इनका उपयोग अपनी भलाई के लिए कर रहे हैं। इनकी सेवा के नाम पर अपनी कोठियाँ खड़ी कर रहे हैं। कई जातिवादी नेता ऐसे हैं जो कभी गरीब थे, लेकिन अपने समाज की भलाई के नाम पर चुनाव लड़े और पूँजीपतियों व माफियाओं के गुलाम बनकर करोड़ों की सम्पत्तियों के मालिक बन गए। जिनकी भलाई का बीड़ा उठाया था, उन्हीं का शोषण कर और करवा रहे हैं विकास के नाम पर, समाज व देश सेवा के नाम पर।
क्यों कुछ निर्दोष व्यक्ति प्रताड़ित होते हैं और कुछ अपराधी सत्ता सुख भोगते हैं ?
यहाँ भी पूर्वजन्मों के सचिंत कर्म प्रभावी होते हैं। पिछले जन्मों में आपने किसी निर्दोष को झूठे आरोपों में फंसाया या जानते हुए भी मौन रहे। उसका दंड आपको भुगना पड़ेगा इस जन्म में। आप भी निर्दोष होते हुए फंसाए जाएँगे और आपको भी वही सब सहना होगा, जो आपके कारण किसी निर्दोष ने सहा था।
और यदि आपने पूर्वजन्मों में किसी निर्दोष को बचाने के लिए अनैतिक मार्ग भी चुना, तो भी आप धर्म और न्याय के पक्ष में थे। इसीलिए यदि आपसे इस जन्म में कोई अपराध हो भी गया, तो भी आपको दंड नहीं भुगतना पड़ेगा। और चूंकि पूर्वजन्मों में आप धर्म और न्याय के पक्ष में थे, इसलिए आपको सत्ता सुख भी भोगने मिलेगा या सत्तापक्ष का सहयोग आपको मिलेगा।
अब स्वाभाविक है कि प्रश्न उठेगा कि पूर्वजन्मों का हमें कोई ज्ञान नहीं कि हमने क्या किया था और क्या नहीं। लेकिन इस जन्म के कष्टों से मुक्ति कैसे पाएँ ?
कष्टों से मुक्त हो सकते हैं यदि आप निःस्वार्थ दूसरों की सहायता करना शुरू कर दें। यदि आप समृद्ध हैं, तो दान करें और दान करते समय यह भी ना सोचें कि मुझे दान के बदले पुण्य चाहिए। केवल दान करें अपनी सामर्थ्यानुसार। और दान किसी राजनेता या राजनैतिक पार्टी को न करें और न ही करें मंदिरों, तीरथों में। क्योंकि ये सब कोई धार्मिक या आध्यात्मिक केंद्र अब नहीं रहे। ये सब बाजार बन चुके हैं, व्यापारिक व पर्यटन स्थलों में रूपांतरित हो चुके हैं। यहाँ किए दान का जो भी फल मिलना है वह बहुत ही अल्पकालिक और कम होगा।
जैसे कि आपने मंदिर या तीर्थ में दान किया, तो आपके नाम का कोई पत्थर रख दिया जाएगा या पंडित-पुरोहित आपको विशिष्ट अतिथियों जैसा सम्मान दे देंगे। बस इससे अधिक और कुछ नहीं होगा। यह बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी की फाइवस्टार होटल में जाने पर आपका स्वागत सत्कार होता है, क्योंकि उन्हें आपके आने से आर्थिक लाभ मिलता है। लेकिन यदि आप किसी असहाय व्यक्ति की सहायता करते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता करते हैं जो आपका एहसान भी न माने, तो आपका दान महत्वपूर्ण हो जाएगा। ऐसा दान जिसकी चर्चा न अखबारों में हो, न समाज में हो जिसे गुप्त दान कहा जाता है, वह दान ना केवल आपकी आत्मा को शांति प्रदान करेगा, बल्कि संचित कर्मों के दोषों और कष्टों को भी कम करेगा।
दान करते समय सबसे महत्वपूर्ण है यह ध्यान रखना कि दान के बदले कोई अपेक्षा ना रहे और दान भीख न हो। अर्थात राह चलते किसी भिखारी के पात्र पर सिक्का फेंक देना या पाँच-दस रुपए फेंक देना दान नहीं है। दान हमेशा महत्वपूर्ण होना चाहिए। दान आपकी अपनी नजर में भी तुच्छ नहीं होना चाहिए और न ही कोई ऐसी चीज होनी चाहिए जिसे आप फेंकना चाहते थे लेकिन पुण्य का खयाल आया तो दान कर दिया और सोचने लगे कि अब पुण्य मिलेगा।
आध्यात्मिक या धार्मिक व्यक्ति वह नहीं होता, जो नियमित पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास, भजन-कीर्तन करता है, या मंदिरों, तीरथों के चक्कर लगाता है। आध्यात्मिक और धार्मिक व्यक्ति वह होता है, जो निर्दोषों की सहायता करता है, देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध आवाज उठाता है, या फिर आवाज उठाने वालों की सहायता करता है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से।
~ विशुद्ध चैतन्य
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पूर्व जन्म के कर्मो के आधार पर व्याख्या तो आपने की है पर यह जटिलताओं से भरा है और जीवन की विसंगतियों को सहजता से लेने का एक tool है बहुत बार पढ़ा है इसको पर अन्याय शोषण होते हुये हर जगह इस सिध्धांतों को लागू कर के किसी conclusion पर पहुंच जाना बहुत ठीक नही लगता
हर जगह लागू नहीं कर रहा और न ही किसी निष्कर्ष पर यूँ ही भटकते हुए पहुँच गया