क्यों चाहता है समाज कि व्यक्ति कोल्हू का बैल ही बना रहे ?

क्यों चाहता है समाज कि व्यक्ति अपनी मौलिकता में ना जिये, बल्कि वैसा जीए जैसे दूसरे जी रहे हैं ?
क्यों चाहता है समाज कि व्यक्ति वह न करे जो वह करना चाहता है, बल्कि वह करे जो दूसरे कर रहे हैं ?
क्यों चाहता है समाज कि व्यक्ति कोल्हू का बैल ही बने और माफियाओं, लुटेरों के लिए कमाता रहे आजीवन ?
क्यों चाहता है समाज कि व्यक्ति कोई न कोई काम करे, खाली न बैठा रहे ?
लेकिन फिर एक प्रश्न यह भी उठता है कि जो समाज दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में दखल देता है, उसी समाज को व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन की पीड़ा, अभाव, तनाव, बेरोजगारी, भुखमरी, बेबसी क्यों दिखाई नहीं देती ?
तब कहाँ मर जाता है समाज जब किसी को फुटपाथ पर सोना पड़ता है, किसी को दिन में कई बार कपड़े बदलने की लत के कारण ईमान, ज़मीर, जिस्म, से लेकर सार्वजनिक संस्थानों और देश तक बेचना पड़ता है ?
कोल्हू का बैल
कोल्हू का बैल कहा जाता है उस बैल को जो मानव द्वारा निर्मित एक मशीन के चक्कर लगाता रहता है, ताकि मालिक को आर्थिक, भौतिक लाभ हो। सुबह से लेकर शाम तक बेचारा मानव निर्मित मशीन के चक्कर लगाता रहता है, अपनी मौलिकता अपनी वास्तविकता भूलकर। और इंग्लिश में कोल्हू के बैल का अर्थ होता है; A very hard working person.

दुनिया में जो भी आया है, क्या वह गुलामी करने के लिए ही आया है ?
क्या यह अनिवार्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को गुलाम ही होना चाहिए माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों का ?
क्या कोई व्यक्ति अपनी मौलिकता में नहीं जी सकता ?
संभवतः नहीं !
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र अपनी मौलिकता में ही जीना चाहता है। वह भी जो दूसरों को गुलाम बनाए रखना चाहता है, वह भी अपनी स्वतन्त्रता चाहता है, अपने अंदाज़ में जीना चाहता है। यदि छूट मिल गयी अपनी मौलिकता में जीने की, तो फिर कोई गुलाम नहीं बनना चाहेगा, कोई नौकरी नहीं करना चाहेगा।
मैंने देखा है जो नियम कायदों के बड़े पाबंद होते हैं, वे भी कायदे कानून भूल जाते हैं, जब ऐसे लोगों के बीच पहुँचते हैं, जो अपनी मस्ती में जी रहे होते हैं।
इसीलिए समाज और सरकारें ऐसे कानून और नियम बनाते हैं, जिससे कोई भी व्यक्ति स्वयं को जान व समझ ना पाये। सभी को भेड़ों और भेड़ियों का समाज और सरकारें ही बताएँगी कि किसे कैसे जीना है कैसे नहीं।
ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग का महत्व
कर्म-मार्ग, ज्ञान-मार्ग, भक्ति-मार्ग का बड़ा महत्व है और दुनियाभर के धार्मिक ग्रंथ पड़े हुए हैं इनकी महिमामंडन करने के लिए।
लेकिन मेरा मानना है कि कोई भी मार्ग श्रेष्ठ नहीं होता। मार्ग केवल मार्ग होता है उसपर चलने वाला ही श्रेष्ठ या निकृष्ट होता है।
फिर सभी मार्ग सभी के लिए नहीं होते। जैसे पगडंगियों पर ट्रेन नहीं चल सकती और ट्रेन की पटरी पर साइकिल नहीं चल सकती। जलमार्ग पर ट्रक नहीं चल सकते और भू-मार्ग पर जलपोत नहीं चल सकते।
हाँ कुछ वाहन हाइब्रिड होते हैं, यह ठीक है…लेकिन सभी को हाइब्रिड ही होना चाहिए यह उचित भी नहीं है। जैसे कि साइकिल का अपना महत्व है, कार का अपना महत्व है, हवाई जहाज का अपना महत्व है। अब कोई साइकिल को मोडीफ़ाई करके ऐसा वाहन बना ले, जो कार की तरह चार-पाँच लोगों को ले जा सके, आवश्यकता पड़ने पर हवा में उड़ सके और आवश्यकता पड़ने पर समुद्र में चल सके….तो एक अलग बात है।
लेकिन ना जाने क्यों लोग अलग-अलग मार्ग बनाते हैं और फिर चाहते हैं कि सारी दुनिया उसी मार्ग पर अपनी दुनिया बसा ले ?
कर्ममार्ग है उनके लिए जो श्रमजीवी हैं, जिनके लिए बुद्धि-विवेक का कोई महत्व नहीं, केवल श्रम करो जीने के लिए के सिद्धान्त पर जीते हैं। कर्मवादियों का मानना है कि मानव का जन्म मिला है सरकारों, माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों की गुलामी करने के लिए। इनका मानना है मानव का जन्म ही हुआ है मजदूरी करने के लिए, बोझा ढोने के लिए। लेकिन मेरा मानना है कि दुनिया में हर कोई मजदूरी और गुलामी करने के लिए जन्म नहीं लेता। कुछ लोग ज्ञान मार्गी होने के लिए जन्म लेते हैं।
आज ज्ञान मार्गी का अर्थ होता है पढ़ा-लिखा डिग्रीधारी व्यक्ति, न कि शिक्षित व समझदार व्यक्ति। और ये पढ़े लिखे लोग भी केवल देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के ही सहयोगी होते हैं, लेकिन ढोंग करते हैं देशसेवक होने का।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ढोंग-पाखंड सभी प्राणी करते हैं जब उनके प्राण संकट में हों। देखा होगा आपने कई बार कि चूहा मरने का ढोंग करता है, जब बिल्ली के पंजें में आ जाता है।
लेकिन इंसान, विशेषकर पढ़ा-लिखा डिग्रीधारी इंसान जितना बड़ा ढोंगी-पाखंडी दुनिया में कोई नहीं होता। पढ़े लिखे लोग देश व समाज सेवा का ढोंग करते हैं, जबकि सेवा माफियाओं अरु देश व जनता को लूटने व लुटवाने वालों की करते हैं।
पढ़े-लिखे लोग कहते है कि सरकारी नौकरी करना चाहते हैं क्योंकि हम देश की सेवा करना चाहते हैं। लेकिन प्रायोजित महामारी के आतंकियों और फार्मा माफियाओं की सेवा में लिप्त हो जाते हैं। अपने ही देश की जनता को फर्जी महामारी से आतंकित करके फर्जी सुरक्षा कवच चेपते हैं। हरितक्रांति के नाम पर अपने ही देश कि जनता को जहर परोसते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करके अप्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देते हैं।
अपने ही देश की जनता को लूटकर, देश को बर्बाद करके, नदियों में पूरे शहर की गंदगी घोलकर शान से इतराते घूमते हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं।
जबकि वास्तविकता बिलकुल विपरीत होती है। पढ़ा-लिखा समाज देश या जनता की नहीं, माफियाओं और लुटेरों की सेवा कर रहा होता है लक्ज़री लाइफ जीने के लालच में। लक्ज़री लाइफ जी तो पाता नहीं, क्योंकि कोल्हू के बैल को लक्ज़री लाइफ जीने का समय ही नहीं मिलता।
~ विशुद्ध चैतन्य
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