अधर्म के विरुद्ध नहीं समाज, संगठन और सम्प्रदाय

“गुरुओं के नाम पर बड़े-बड़े सम्प्रदाय, संगठन, संस्थाएँ और समाज बनाए जाते हैं। ये समाज और संगठन अक्सर आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना को प्रोत्साहित करने, लोगों को एक मंच पर लाने और सहयोग व सहानुभूति का विस्तार करने का प्रयास भी करते हैं।
संगठन, सम्प्रदायों, समाजों के ठेकेदार दूसरों के मोहल्लों में अपने गुरुओं की वीर गाथाएँ सुनाते फिरते हैं।
लेकिन किसलिए?
ताकि अधिक से अधिक लोगों को अपने-अपने दड़बों में कैद किया जा सके।
लोग इन संगठनों, सम्प्रदायों, समाजों की सदस्यता लेने के लिए लालायित रहते हैं।
लेकिन किसलिए?
ध्यान, भजन, कीर्तन करने के लिए, मृत्यु के बाद व्यक्ति का अंतिम संस्कार करने और मोक्ष दिलाने के लिए।
लेकिन अधर्म, अन्याय, अत्याचार का विरोध नहीं करते कभी। यह स्थिति उन व्यक्तियों की याद दिलाती है जिन्होंने इतिहास में अपने जीवन को खतरे में डालकर अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी ने अहिंसक आंदोलन के माध्यम से ब्रिटिश शासन का सामना किया, और नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया। यह दर्शाता है कि अगर समाज में इच्छाशक्ति हो, तो असंभव को संभव बनाया जा सकता है। क्योंकि ये पंथ, ये सम्प्रदाय, ये संगठन तो केवल भजन, कीर्तन, पूजा, पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास करने और करवाने के लिए बनाए जाते हैं।
बड़ी-बड़ी सत्ता और माफियाओं के विरुद्ध इनका मुँह नहीं खुलता, लेकिन किसी गरीब, लाचार व्यक्ति को नैतिकता, धार्मिकता और सात्विकता का उपदेश पूरी बेशर्मी से देते हैं। हाल ही में हुए चर्चित घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि किस तरह एक भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ खड़े होने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता को समाज का समर्थन नहीं मिला, बल्कि उसे ही तिरस्कार झेलना पड़ा। यह घटनाएँ हमारे समाज की निष्क्रियता और असंवेदनशीलता को उजागर करती हैं। शान से बताते हैं कि हमारे गुरुजी, हमारे आराध्य महान थे, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर अधर्म, अन्याय और अत्याचार का विरोध किया था। लेकिन स्वयं पूरा सम्प्रदाय, समाज और संगठन चापलूसी और गुलामी करता है अत्याचारियों, लुटेरों और माफियाओं का।
मुझे अब किसी से बात करने की इच्छा नहीं होती और न ही मिलना चाहता हूँ किसी से। क्योंकि मैं अब समझ चुका हूँ कि सभी अपने-अपने दड़बों में खुश हैं और मेरे भरोसे बैठे हैं कि मैं पहले अपने आश्रम की व्यवस्था सुधारूँ, फिर देश व समाज की व्यवस्था सुधारूँ और यह सब करते हुए मारा गया, तो मेरी तस्वीर पर माला डालकर पूजना शुरू कर देंगे। क्योंकि सम्प्रदाय, समाज और संगठन तो बनाए ही जाते हैं पूजा, पाठ, भजन, कीर्तन, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास करने और करवाने वाली भीड़ इकट्ठी करने के लिए।
हर सम्प्रदाय के धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक गुरु या आचार्य, आलिम, मौलवी, पादरी, बिशप, शंकराचार्य आदि का कार्य क्या होता है?
यही ना कि अपने-अपने सम्प्रदाय की पुस्तकें पढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित करना, उन्हें अपने-अपने गुरुओं, आराध्यों की महानता, त्याग और बलिदान की कथाएँ सुनाना और अधिक से अधिक लोगों को अपने सम्प्रदाय की सदस्यता लेने के लिए प्रेरित करना?
अभी हाल ही में कहीं पढ़ा था कि 2,00,000 हिंदुओं ने बौद्ध सम्प्रदाय की सदस्यता ले ली। यह आँकड़ा सामने आने के बाद इसकी पुष्टि के लिए विश्वसनीय स्रोतों को खोजना आवश्यक है, ताकि इसके प्रभावों और कारणों का सही-सही विश्लेषण किया जा सके। भारत में भगोड़ा घोषित इस्लामिक उपदेशक जाकिर नायक भी कतर का मेहमान बनकर फुटबॉल विश्वकप (#FIFA) के दौरान ज्यादा से ज्यादा लोगों का इस्लाम में धर्मांतरण कराने के लिए पहुँच चुका है। बताया जा रहा है कि जाकिर नायक फीफा विश्वकप के दौरान इस्लाम का प्रचार करने के लिए कई मजहबी तकरीरें करेगा।
यानि हर सम्प्रदाय या समाज चाहता है कि उसके सदस्यों की संख्या अधिक से अधिक हो। केवल अधिक ही न हो, बल्कि विश्व का प्रत्येक प्राणी उन्हीं के आराध्य को पूजे, उन्हीं के आराध्य के दिखाए मार्ग पर चले। अर्थात हर सम्प्रदाय यह मानता है कि उसका अपना सम्प्रदाय ही धर्म मार्ग पर है, बाकी सभी अधर्म मार्ग पर।
दुनिया में लाखों पंथ हैं, सम्प्रदाय हैं और सभी यही माने बैठे हैं। कबीरपंथी, रहीमपंथी से लेकर आनन्दमार्गी, परमानंदमार्गी और न जाने कितने मार्गी हैं इस दुनिया में। सभी अपने-अपने पंथों का प्रचार करने में लगे हैं, सभी अपने-अपने गुरुओं, आराध्यों की महिमा का गुणगान करने में लगे हैं। इस्कॉन वाले पूरी दुनिया में नाच-नाच कर कीर्तन भजन सुनाकर लोगों को अपने सम्प्रदाय की सदस्यता लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। उनके पास लॉजिक है कि हमारे सम्प्रदाय में आइए, यहाँ कोई दुख नहीं है, कोई कष्ट नहीं है, किसी को कोई काम नहीं करना पड़ता…बस दुनिया भर में घूम-घूम कर नाचना, गाना और भजन करना है। ना कमाने का झंझट, न खेती-बाड़ी की चिंता, ना बीवी बच्चों की चिंता…बस नाचो, गाओ और दुनिया घूमो।
और यदि कोई किसी पंथ का संन्यासी है, आचार्य है, तब तो मानो वह उस संस्था का आधिकारिक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव हो गया। उसे रिपोर्ट देनी होगी कि कितने लोगों को अपने सम्प्रदाय की सदस्यता दिलाई, कितने लोगों को दूसरे पंथ से तोड़कर अपने पंथ में शामिल करवाया। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि अधिक से अधिक लोगों को अपने पंथ में शामिल क्यों करना चाहते हैं? क्या करेंगे बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी करके?
इस्लाम, ईसाई, हिन्दू, बौद्ध दुनिया के सबसे बड़े सम्प्रदायों में गिने जाते हैं। आरएसएस दुनिया का सबसे बड़ा संगठन माना जाता है और भाजपा और कांग्रेस दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टियां मानी जाती हैं। लेकिन क्या ये आज तक उस एक व्यक्ति से अधिक शक्तिशाली और साहसी हो पाए हैं, जो अधर्म, अन्याय, अत्याचार और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों का विरोध करता हो?
क्या ये बड़े-बड़े समाज, सम्प्रदाय, संगठन और पार्टियां आज तक उस गरीब पत्रकार के जितना भी साहस कर पाई हैं, जो माफियाओं और सरकारों की मिलीभगत से चल रहे भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्भीकता से लिखता हो बिना अपने प्राणों की चिंता किए?
तो धार्मिक कौन हुआ?
वह गरीब अनमोल पत्रकार, वह व्यक्ति जो अधर्म, अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाता हो, या वे बड़े-बड़े सम्प्रदाय, संगठन और राजनैतिक पार्टियाँ जो करोड़ों का चंदा बटोरकर बड़े-बड़े मंदिर, मस्जिद, चर्च और धार्मिक स्थलों का निर्माण करते हैं, बड़े-बड़े सेमिनार्स करते हैं?
लेकिन गरीब पत्रकार, या सामान्य व्यक्ति बुरा बन जाता है समाज की नजर में, उसके अपने भी उसके विरुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि अधर्मियों, माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के पक्ष में सारा समाज खड़ा होता है। आश्चर्य तो यह कि जो लुट-पिट रहा होता है, वह भी अपने ही कातिलों के पक्ष में खड़ा हो जाता है और जो उसे बचाना चाहता है उसे ही अपना शत्रु मान लेता है।
समाज हो या धार्मिक आध्यात्मिक गुरु, सभी समझाते हैं कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। समझाते हैं कि जो हो रहा है होने दो, ईश्वर स्वयं आएंगे सब ठीक कर देंगे। तुम तो केवल भजन-कीर्तन करो, पूजा-पाठ करो, रोजा-नमाज करो और मंदिरों, तीर्थों में चढ़ावे चढ़ाओ, हज करो और अपनी जीवन भर की कमाई लुटाओ धर्म के नाम पर।
मुझे भी बुरी आदत है सरकारों और समाजों की बेहोशी और भेड़चाल की आलोचनाएँ करने की। मुझ पर हमेशा आरोप लगता रहा है कि मुझे पूरी दुनिया की बुराइयाँ दिखाई देती हैं, लेकिन अपनी और अपने आश्रम की नहीं!
लोग कहते हैं कि मैं दुनिया से कहता हूँ कि अधर्म, अन्याय, अत्याचार का विरोध करो, लेकिन अपने आश्रम के लोगों को नहीं कहता और न ही अपने आश्रम में हुए किसी अन्याय या अत्याचार का विरोध करता हूँ!
लोग कहते हैं कि दूसरों पर कीचड़ उछालने से पहले अपने गिरेबान में झाँक लिया करो!
लोग कहते हैं कि जो तुम खुद नहीं कर सकते, उसे करने का प्रवचन दूसरों को मत दिया करो!
क्या लोग गलत कहते हैं मुझसे?
बिलकुल नहीं, वे बिलकुल सही कहते हैं। ऐसा ही कहकर हजारों वर्षों से स्वयं के गिरेबान पर झाँकने से बचते आए हैं। ऐसा ही कहकर न जाने कितने चैतन्य और जागृत लोगों को मौन करवाते चले आए या फिर मौत की नींद सुलाते रहे।
अब प्रश्न यह उठता है कि समाज या सम्प्रदायों की आवश्यकता क्या है?
समाज या सम्प्रदाय कभी भी अधर्म व अन्याय के विरुद्ध नहीं होता, बल्कि उसके विरुद्ध होता है जो निर्बल, निर्धन, असहाय या असंगठित है। जिसका कोई संगठन न हो, जो बिल्कुल अकेला हो, उसके विरुद्ध सारा समाज खड़ा हो जाता है। लेकिन यदि कोई आर्थिक, सामाजिक रूप से समृद्ध हो, राजनैतिक पहुँच रखता हो, माफियाओं के साथ उठना-बैठना हो, उसके सामने समाज नतमस्तक हो जाता है। फिर भले वह कुछ भी गलत कर रहा हो, फिर भले वह ड्रग्स या मानव तस्करी ही क्यों न कर रहा हो।
तो क्या समाज स्वयं माफियाओं, लुटेरों और अपराधियों का संगठन है? यदि हाँ, तो यह आवश्यक हो जाता है कि समाज अपनी भूमिका और कर्तव्यों का पुनर्मूल्यांकन करे। यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह अन्याय और अपराध को सहन करने के बजाय इनके विरुद्ध संगठित रूप से कदम उठाए।
क्या समाज स्वयं इन्हें पैदा करता है, पालता है और छोड़ देता है शिकार करने के लिए?
क्या समाज को वास्तव में इनसे मुक्ति नहीं चाहिए?
~ विशुद्ध चैतन्य
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