विवाह प्रथा का औचित्य क्या है जब दोनों को ही गुलामी करना है ?

ओशो का यह विडियो मेरे सामने आया आज सुबह, तो ध्यान से सुना। समाज और संस्कृति की दुहाई देने वालों के लिए ओशो के विचार हमेशा ही उपद्रवी रहे हैं, क्योंकि खोखली मान्यताओं को ढोने वाला समाज लाख बुराइयों के बाद भी अपनी मान्यताओं और परम्पराओं से मुक्त नहीं हो पाता। आप पहले विडियो देख लें फिर मेरे विचार पढ़िएगा इसी विषय पर।
ओशो ने कहा कि वे विवाह जैसी प्रथा के विरुद्ध हैं और इसी विचार ने समाज और सरकारों को हिलाकर ऐसे रख दिया कि यूरोप के देशों ने इनपर प्रतिबंध लगा दिया। कहा गया कि ओशो जैसा व्यक्ति समाज और संस्कृति के लिए घातक है, यह पूरे सामाजिक ढांचे को ही ध्वस्त करना चाहता है और मानवों को पशु-पक्षियों की तरह जीने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते हैं कि ओशो सभ्य सामाजिक जीवन शैली की बजाय पशु-पक्षियों की जीवन शैली अपनाने के लिए कहता है।
समाज मानता है कि उसने जो जीवन शैली बनाई है, वह सभ्य जीवन शैली है। जबकि पशु पक्षियों की जीवन शैली अमानवीय है, असभ्य है। चलिये पहले आधुनिक सभ्य न्यायालयों द्वारा स्वीकृत सभ्य जीवन शैली पर ही चर्चा कर लेते हैं।
सबसे पहले कर्नाटक हाईकोर्ट की टिप्पणी को पढ़िए…
‘16 साल की नाबालिग लड़कियों के प्यार करने और प्रेमी के साथ यौन संबंध बनाने से जुड़े कई मामले सामने आए हैं। ऐसे में हमारा मानना है कि ‘लॉ कमीशन’ को सेक्स के लिए सहमति की उम्र पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए। हमें सोचना होगा कि 16 साल और उससे ज्यादा उम्र की लड़कियों के साथ उनकी सहमति से संबंध बनाना क्या अब भी कोई अपराध है?’
5 नवंबर 2022 को कर्नाटक हाईकोर्ट में 2 जजों की बेंच ने एक मामले में ये बातें कहीं। इस टिप्पणी के साथ ही नाबालिग लड़की से यौन संबंध बनाने वाले उसके प्रेमी को कोर्ट ने बरी कर दिया। (Source: नाबालिग गर्लफ्रेंड से संबंध बनाने वाला प्रेमी बरी)
इस फैसले के साथ ही यह भी सुनिश्चित हो गया कि सैक्स करने के लिए विवाह अनिवार्य नहीं और ना ही संवैधानिक न्याय प्रणाली के अंतर्गत कोई अपराध है। क्योंकि भारत में विवाह के लिए आयु 21 वर्ष से अधिक होनी चाहिए और सेक्स के लिए 16 वर्ष स्वीकृत है।
विश्व के अन्य देशों के नियम देखें:
198 देशों को लेकर प्यू रिसर्च की रिपोर्ट कहती है कि 192 देशों में शादी की उम्र को लेकर कानून है. सिर्फ 6 ऐसे देश हैं- इक्वेटोरियल गीनिया, गाम्बिया, सऊदी अरब, सोमालिया, साउथ सूडान और यमन… जहां शादियों की न्यूनतम उम्र को लेकर कोई कानूनी प्रावधान नहीं है. लेकिन सबसे गौर करने वाली बात ये है कि कई देशों में कानूनी छूट है और 14 साल की नाबालिग उम्र में भी कई जगह शादियों की अनुमति है. और इस तरह की छूट एक या दो देशों में नहीं बल्कि 117 देशों में किसी न किसी रूप में मौजूद है. (Source: भारत में 21 तो अन्य देशों में कितनी है लड़कियों की शादी की उम्र ?)
जब हम अपने सम्प्रदाय के नियम क़ानूनों से बाहर निकलकर दूसरों के नियम कानून नहीं देखते और न ही उनकी सामाजिक संरचना को समझते हैं, तो हमें लगता है कि हमारा ही नियम सही है और बाकी सभी गलत। और फिर निकल पड़ते हैं अपना नियम दूसरों पर थोपने के लिए। जबकि ओशो ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने लगभग सभी समाज और संस्कृति को गहनता से समझा जाना और यह भी जाना कि क्या क्या गलतियाँ समाज करता आ रहा है। लेकिन अपना कोई नियम नहीं बनाया कि यह समाज पर थोप दो। अपने शिष्यों को भी कोई नियम नहीं दिया, सभी को स्वतंत्र छोड़ दिया कि अपने विवेकानुसार जो ठीक लगे वह करो।
किसी ने ओशो से प्रश्न किया: : ओशो, परिवार के भीतर शीलभंग को कैसे निर्मूल किया जाए और कैसे स्त्रियों को उससे लड़ने का बल प्राप्त हो? निंदा शीलभंग करने वाले की की जानी चाहिए, उसकी नहीं जिसका शीलभंग किया जाता है। लेकिन भारत में आक्रांत की निंदा, होती है और आक्रामक अपना खेल अबाध जारी रखता है और स्त्री मूक होकर दुख झेलती है। छोटी लड़की तक को यह दुख चुपचाप झेलना पड़ता है, जिस कारण आगे चल कर वह अपने पति के साथ वैवाहिक सुख तक भोगने से वंचित रह जाती है। पुरुष बलात्कार, शीलभंग, हिंसा आदि अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर काबू पाने में समर्थ क्यों नहीं हो पाता है?
ओशो ने उत्तर दिया: “यश कोहली! यह प्रश्न जटिल है। इसकी जड़ों में जाना होगा। शायद जड़ों तक जाने की तुम्हारी स्वयं भी हिम्मत न हो। ऊपर-ऊपर से देखने पर जो समस्या मालूम होती है, वह समस्या नहीं है, केवल समस्या के बाह्य लक्षण हैं। समस्या गहरे में है और ऊपर से कितनी ही लीपा-पोती करो, समस्या बदलेगी नहीं। लक्षणों को बदलने से कोई समस्या कभी बदली नहीं। जड़ काटनी होती है। और जड़ के संबंध में हमारी मनोदशा बड़ी विरोधाभासी है। जड़ को तो हम पानी देते हैं और पत्तियों को काटते हैं। जड़ को पानी देंगे, पत्तियों को काटेंगे, तो परिणाम यही होगा कि पत्तियां और घनी हो जाएंगी।
इस देश में पांच हजार वर्षों से सदाचार की शिक्षा दी जा रही है, परिणाम क्या है, नैतिकता का इतना धुआंधार प्रचार किया गया है, परिणाम क्या है? लेकिन मूल में जाने की हमारी हिम्मत नहीं पड़ती। और जब भी कोई लक्षण कोई प्रकट होता है, हम लक्षण को दबाने में लग जाते हैं। जैसे किसी आदमी को बुखार चढ़ा, अब बुखार का लक्षण तो है कि उसका शरीर गर्म हो जाएगा। लेकिन यह केवल लक्षण है, बीमारी नहीं। और यह लक्षण दुश्मन नहीं है। यह लक्षण तुम्हारा मित्र है। अगर शरीर गर्म न हो तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि भीतर बीमारी है। भीतर की बीमारी की खबर तुम्हें मिल सके, इसलिए यह शरीर का आयोजन है कि वह शरीर को उत्तप्त कर दे, ताकि तुम्हें पता चल जाए, तुम कुछ कर सको। लेकिन ऐसे मूढ़ हैं और हम उन मूढ़ों में अग्रणीय हैं इस पृथ्वी पर कि हम इस लक्षण को बीमारी समझ लेंगे। तो फिर डुबाओ आदमी को ठंडे पानी में, बर्फीले पानी में, ताकि शरीर ठंडा हो जाए। शरीर तो ठंडा हो जाएगा, आदमी भी ठंडा हो जाएगा। समस्या तो नहीं मिटेगी। बीमारी तो नहीं मिटेगी, बीमार मिट जाएगा। यही हम कर रहे हैं।” (विस्तृत प्रवचन: क्रांति का आह्वान दिनांक 12-5-1980 ओशो आश्रम पूना )
विवाह प्रथा का औचित्य क्या है जब दोनों को ही गुलामी करना है ?
तो ओशो ने कहा कि वे विवाह प्रथा के विरुद्ध हैं, क्योंकि इस प्रथा से समाज का कोई कल्याण नहीं होता और ना ही कल्याण होता है व्यक्ति का, बच्चों का। उन्होंने कहा कि बच्चों को पालने, पढ़ाने, लिखाने और बड़ा करने की ज़िम्मेदारी #Commune यानि कम्यूनिटी यानि समाज की होनी चाहिए। तो क्या गलत कहा ?
पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित आज भारत ही नहीं, लगभग विश्व के सभी देश हैं। आज पुरुषों से बराबरी करने की होड़ में स्त्रियाँ घर-परिवार संभालना ही भूल चुकी हैं। बच्चे भी #Daycare यानि पालनाघर, या नर्सरी में पल रहे हैं या फिर आया और नौकर चाकर पाल रहे हैं। माता-पिता के पास समय नहीं बच्चों के लिए। क्योंकि उन्हें करेंसी कमाना है और उसके लिए किसी और की नौकरी करनी है। मालिक ने उनके लिए समय ऐसा तय किया हुआ है कि अधिक से अधिक समय तक वे घर-परिवार से दूर रहें।
फिर विवाह का आधार भी प्रेम नहीं, धन और भौतिक सुख-सुविधाएं होते हैं। यदि कोई युगल प्रेम करता पाया जाता है, तो परिवार ही नहीं, समाज भी पागल हो जाता है। क्योंकि समाज में प्रेम करना पाप है, लेकिन धन और ऐश्वर्य के बदले बच्चों को बेच देना विवाह के नाम पर पुण्य है। फिर भले उनका विवाहित जीवन कलहपूर्ण हो जाये, फिर भले दहेज के लोभ में बेमौत मारी जाएँ।
परिणाम यह होता है कि विवाहेत्तर सम्बन्ध स्थापित होते हैं। पति-पत्नी में कलह बढ़ता है, तनाव बढ़ता है, बच्चे मानसिक रूप से तनाव ग्रस्त रहने लगते हैं, उनमें हीनभावना बढ़ने लगती है, वे स्मार्टफोन में अश्लील फिल्में देखने लगते हैं, फिर वह सब करने लगते हैं, जो समाज की दृष्टि में अनैतिक है। आज भारत में भी वही सब देखने मिल रहा है जिसकी कल्पना नहीं कर सकते थे। आज 16 वर्षीया युवती को बिना विवाह किए सेक्स करने की अनुमति है कानूनी रूप से, लेकिन विवाह करने के लिए 21 वर्ष की आयु की प्रतीक्षा करनी होगी। अर्थात 5 वर्ष का समय दे रहा है कानून घोटुल प्रथा को अपनाने के लिए।
घोटुल प्रथा वही आदिवासी प्रथा है, जिसके अंतर्गत कुंवारी लड़कियां और लड़के एक बड़े मकान में साथ रहते हैं दो वर्षों तक। इस बीच वे अपना पार्टनर बदल-बदल कर देखते हैं। और फिर जब उन्हें कोई पार्टनर जंच जाता है, तब उससे विवाह कर लेते हैं। इस प्रथा के कारण हर पुरुष, हर स्त्री को और हर स्त्री हर पुरुष को भोग चुकी होती है। तो स्वाभाविक है कि वहाँ बलात्कार जैसी घटनाएँ होती नहीं। बलात्कार होते ही इसलिए हैं क्योंकि पुरुषों को यह लगता है कि दूसरी स्त्री अधिक आनंद देगी। इसीलिए विवाहित पुरुष बलात्कार में अधिक संलग्न पाये जाते हैं।
फिर स्त्रियों की सुरक्षा के नाम पर विवाहित जीवन को और नर्क बना दिया गया पुरुषों के लिए। ऐसे कितने पुरुष जेलों में बंद पड़े हैं या कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं, जिसमें पुरुषों की संपत्ति हड़पने के लिए विवाह किए गए और बाद में दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिये गए। कितनी ही स्त्रियों को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया, मारपीट से लेकर मौत तक का सामना करना पड़ा। लेकिन क्या समाज ने स्वयं में कोई सुधार लाया ?
नहीं रत्तीभर भी नहीं। समाज व्यर्थ के कानून और नैतिकता की पीपणी बजाता पड़ा रहता है और विवाहित दंपत्ति अपनी किस्मत को कोसता लड़ते-झगड़ते ज़िंदगी गुजरता है या फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाता रहता है।
कोई व्यक्ति एकाँकी जीवन जी रहा है, समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि वही व्यक्ति किसी विपरीत लिंगी के साथ घूमने फिरने लगे तो समाज के पेट में दर्द होने लगता है। इसीलिए आज कानून को सामने आकर Living-in Relationship को स्वीकृति देनी पड़ी। क्योंकि समाज ने कभी इस ओर ध्यान दिया ही नहीं।
तो ओशो ने जो कहा उसमें गलत क्या था ? समाज का आस्तित्व ही मिट गया और उसके स्थान पर राजनैतिक पार्टियों, गुरुओं के भक्तों की भीड़ आ गयी। और भीड़ को किसी की समस्याओं से कोई मतलब नहीं रहता। उसे तो जय जय करना होता है, और वही करते हुए मर जाना होता है। ना परिवार की चिंता, न समाज की चिंता न देश की चिंता, केवल अपनी पार्टी, अपने नेता, अपने गुरुओं की जय करना है और इसी लिए इस भीड़ का जन्म हुआ है।
कहते हैं समाज की इकाई परिवार होता है। लेकिन जब परिवार ही बिखर रहा हो, तो फिर समाज कैसे बचेगा ?
कहते हैं परिवार की इकाई व्यक्ति होता है, लेकिन जब व्यक्ति ही एकाँकी, टूटा हुआ पड़ा हो, तो फिर परिवार कैसे बचेगा।
टूटा-फूटा व्यक्ति समृद्ध, नैतिक परिवार कैसे बना सकता है ?
ऐसा व्यक्ति तो अकेला ही रहना चाहेगा, एकांत ही खोजेगा और परिणामस्वरूप ऐसा समाज आस्तित्व में आएगा, जहां विवाह, परिवार जैसी व्यवस्था ही नहीं होगी। सभी स्वच्छंद होंगे, अपनी तरह जिएंगे। और यही ओशो कह रहे हैं कि जब आपका समाज ही विकृत हो गया, विवाह भी आत्मिक और परस्पर सहयोगिता भरे प्रेम पर आधारित न होकर धन और लोभ पर आधारित हो गया, तो फिर विवाह की प्रथा ही समाप्त कर दी जानी चाहिए।
अंत में स्पष्ट कर दूँ कि ना तो मैं ओशो का शिष्य हूँ, ना ही ओशो का अनुयायी हूँ और ना ही ओशो कम्यून से जुड़ा कोई कार्यकर्ता या प्रचारक। मैं सनातन धर्मी हूँ और इसीलिए हर जागृत और चैतन्य व्यक्ति को ध्यान से पढ़ना और सुनना पसंद करता हूँ। लेकिन ओशो से सर्वाधिक प्रभावित हूँ, क्योंकि ओशो ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति मुझे नजर आया, जो खोखली मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध था और निर्भीक भाव से अपना विरोध व्यक्त करते थे। उन्होंने कभी भी मान-अपमान की चिंता नहीं की, उन्होंने कभी भी सरकारों और समाजों की चिंता नहीं की। जो गलत लगा उसे स्पष्ट रूप से कह दिया बिना यह सोचे कि परिणाम क्या आएगा। इसलिए दुनिया भर की सरकारें और धर्म व समाज के ठेकेदार उनसे भयभीत थे, उनसे घृणा करते थे।
मुझे ऐसे लोग बहुत पसंद हैं, जिनसे सरकारें और समाज घृणा करते हैं केवल इसलिए कि वे उनकी कुप्रथाओं, शोषण, अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध बोलते हैं। अपने व्यक्तिगत अनुभवों और महान चैतन्य व्यक्तित्वों की हुई दुर्दशा से जाना कि समाज और सरकारें उन्हीं का सम्मान व प्रशंसा करती हैं, जो जनता व देश को लूटने और लुटवाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी होते हैं। जैसे कि खिलाड़ी, अभिनेता, रंगमच के नृत्य व नाट्य कलाकार, कथावाचक, सांप्रदायिकता और जातिवाद में उलझाने रखने वाले धर्म व जातियों के ठेकेदार, सरकारी और गैर सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और समाज के वे प्रतिष्ठित, सभ्य व्यक्तित्व जो देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध कभी मुँह नहीं खोलते। बल्कि जनता को समझाते हैं कि क्रिकेट देखो, भजन-कीर्तन करो, ध्यान-जप करो, रोज़ा-नमाज़, व्रत-उपवास करो और आँख, कान, मुँह बंदकर मूक-बघिर का जीवन जीओ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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