गुरुओं के बनाए नियम कानून परम्पराएँ और आडंबर मात्र बनकर रह गए !

ओशो जैसे व्यक्ति का जन्म लेना मेरे जैसे लोगों के लिए वरदान ही सिद्ध होता है। जब सारी दुनिया हमसे मुँह फेर लेती है, तब हमें अकेले ही संग्राम-रत रहने की प्रेरणा ओशो जैसी आत्माओं से ही मिलती है।
मैं ओशो से सदा प्रभावित रहा हूँ, क्योंकि जब सारा साधु-समाज, ब्राह्मण समाज, क्षत्रिय समाज राजनैतिक पार्टियों और सरकारों की पालतू ज़ोम्बियों, दंगाइयों, कायरों, चापलूसों की भीड़ में रूपांतरित हो चुका है, तब ओशो जैसी महान आत्माएँ हमें यह एहसास कराती हैं कि धार्मिक होना इतना आसान नहीं कि सारा समाज ही धार्मिक हो जाए। धार्मिक होना तो बहुत ही साहस भरा कदम है और बिरले ही साहस कर पाते हैं धार्मिक होने का। भीड़ तो भेड़ों की होती है, शेर भला भीड़ में कब चला करते हैं ?
जब तक ओशो को नहीं जाना था, तबतक अष्टावक्र, चाणक्य आदि मेरे आदर्श थे। क्योंकि मेरे लिए साधु-संत, ब्राह्मण और क्षत्रिय का अर्थ होता था, वे लोग, जो अधर्म, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध निर्भीकता से कहते थे, जो राजा से भी भयभीत नहीं होते थे और जिन्हें मृत्यु का भी कोई भय नहीं होता था। जो किसी के चाटुकार नहीं होते थे।
ओशो को जानने के बाद जाना कि जो जागृत हो जाता है, जो चैतन्य हो जाता है, वही अष्टावक्र और चाणक्य जैसा निर्भीक, धार्मिक हो सकता है। अन्यथा तो सब रट्टामार तोता छाप चापलूस और गुलाम ही होते हैं माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के।
ओशो के बाद मुझे ठाकुर दयानन्द देव मुझे प्रभावित किए, तो मैं उनके आश्रम का सदस्य बन गया। फिर पता चला कि श्री प्रभात रंजन सरकार भी ऐसे ही जागृत गुरु थे और आनंदमार्ग की स्थापना की थी।
लेकिन फिर पता चला कि जागृत केवल व्यक्ति होता है, संस्था, संगठन, सदस्य, अनुयायी, शिष्य और भक्त नहीं। जागृत होना स्वयं में बहुत बड़ी उपलब्धि होती है और यह शास्त्रों, धार्मिक ग्रन्थों, गुरुओं द्वारा लिखी किताबों का रट्टा लगाने से प्राप्त नहीं होती है। जागृत होने के लिए तो दड़बों में कैद भेड़ों और भेड़ियों के झुण्ड से स्वयं को अलग करना होता है।
ओशो को एक महान आदर्श गुरु मानता हूँ क्योंकि ओशो उन महान गुरुओं में से एक गुरु थे, जिन्होंने अपने शिष्यों, अनुयाइयों को किसी नियम कानून में नहीं बांधा था। वे समझ चुके थे कि दुनिया के जितने भी गुरुओं ने अपने-अपने शिष्यों, अनुयाइयों के लिए नियम कानून बनाए, वे सब परंपरा और ढोंग-आडंबर मात्र बनकर रह गए। बाकी लोगों को करना तो वही है जो वे करते आ रहे थे और करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए:
किसी गुरु ने कहा कि टखनो तक का पैजामा पहनना होगा, तो उन्होंने इसलिए कहा था कि रेत में दौड़ते समय लंबे पैजामा रेत में उलझेंगे और व्यक्ति तेज नहीं भाग पाएगा। लेकिन कंक्रीट और कोलतार की सड़कों पर भी दौड़ने वालों भी टखने तक के पैजामा पहने देखा है। पूछो तो कहते हैं कि हमारी परंपरा है, संस्कृति है।
ईसाई देशों में ठंड अधिक पड़ती है, इसीलिए वे कोट-पेंट पहनते हैं। लेकिन गरम प्रदेशों के लोग इसलिए पहनते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यदि कोट-पेंट नहीं पहनेंगे तो अनपढ़ समझ लेंगे लोग। कुछ लोगों के लिए यह ड्रेस परंपरा है संस्कृति है।
गुरुओं ने बताया कि ध्यान, भजन, कीर्तन करना चाहिए, इससे आत्मा और मन शुद्ध होता है। तो लोग कीर्तन भजन ही करते रह गए, देश व जनता को लूटने और लुटवाने वाले माफियाओं का विरोध और बहिष्कार करना ही भूल गए। पूछो तो कहते हैं कि हमारे गुरु ने तो हमें यही कहा कि ईश्वर की स्तुति वंदन करो, नेताओं और सरकारों की स्तुति वंदन करो, सकारात्मक ऊर्जा फैलाओ, तो देश व जनता को लूटने वाले भी वैसे ही सद्मार्ग में आ जाएंगे, जैसे अंगुलीमाल सद्मार्ग पर आ गया था।
जिन गुरुओं ने मूर्ति पूजा का ही बहिष्कार किया, उन्हीं की प्रतिमाएँ बनाकर पूजने लगे उनके अनुयायी। क्योंकि इन्हें केवल भक्ति करनी आती है, क्रांति करनी नहीं। आज चाहे कोई भी पंथ हो, कोई भी संप्रदाय हो, चाहे कितने ही क्रान्तिकारी गुरुओं के बनाए पंथ हों, सभी पर इस्कॉन और चैतन्य महाप्रभु का ही प्रभाव है। सभी इस्कॉन वालों की तरह नाचते गाते घूम रहे हैं, किसी को चिंता नहीं समाज की, किसी को चिंता नहीं देश की और सभी इस भ्रम में बैठे हैं कि जब सारे विश्व की सीमाएं मिट जाएंगी, जब वैश्वीकरण #Globalization हो जाएगा, तब सभी बेरोजगारों को नौकरियाँ मिल जाएंगी, तब सभी बेघरों को घर मिल जाएगा और सभी के अकाउंट में 15-15 लाख रुपए आ जाएंगे। मानो मानवों का जन्म ही हुआ है नौकरी और गुलामी करने के लिए और कोई उद्देश्य ही नहीं जन्म लेने का।
तो गुरुओं से कुछ नहीं सीखा किसी ने सिवाय स्तुति-वंदन, कीर्तन, भजन, चापलूसी और भक्ति के। सच तो यह की चापलूसी और भक्ति तो गुलामों की आजीविका का माध्यम है, क्योंकि गुलामों को भक्ति ही करनी आती है। इसलिए अनुयायी और भक्त चाहे किसी भी गुरु के हों, वे ध्यान, भजन-भक्ति और स्तुति-वंदन में ही डूबे मिलेंगे। लेकिन चाकरी करेंगे माफियाओं की, देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों की।
समाज भी बच्चे पैदा करता है तो इसी आस में पैदा करता है कि उनकी संताने एक दिन अच्छे नस्ल की गुलाम बनेंगी, और फिर अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों की गुलामी करके उनके परिवार और समाज की प्रतिष्ठा बढ़ाएँगी। जैसे ही किसी की संतान किसी सरकारी या गैर सरकारी कंपनी में नौकरी पा जाता है, उसका परिवार ऐसा गौरवान्वित होता है, मानो इन्द्र का सिंहासन मिल गया हो। फिर भले उनकी संतान आदिवासियों के घर उजाड़े, किसानों पर लाठी चार्ज करे, निर्दोषों को जेल भिजवा दे….परिवार की भावना आहत नहीं होती। जैसे कसाई के परिवार में कसाई दिन भर सैंकड़ों पशुओं की हत्या करता रहे, तो भी परिवार की भावना आहत नहीं होती।
और गुलामों का यह समाज जब ओशो, प्रभात रंजन सरकार, ठाकुर दयानन्द देव जैसे क्रांतिकारियों के सानिन्ध्य में जाता है, उनका संन्यासी बनाता है, तब भी वहाँ से केवल भक्ति ही सीखकर आता है। गले में उनकी तस्वीर वाली माला लटका लेंगे, घर में उनकी तस्वीर सजा लेंगे और भक्ति शुरू।
आज सारा समाज ही भक्ति में डूबा हुआ है, इसीलिए देश व जनता के लुटेरे पूरे विश्व में अपना आधिपत्य जमाये बैठे हैं। वे जब चाहें लॉकडाउन लगा देते हैं, जब चाहें इन्सानों को पशु-पक्षियों की तरह अपने अपने घरों में कैद कर देते हैं….क्योंकि वे जानते हैं कि भक्ति के नशे में धुत्त भेड़ें, उनका विरोध नहीं कर सकतीं। भेड़ों को तो यह भी नहीं पता कि सही क्या है और गलत क्या है।
जब सारे समाज को भक्ति के नशे में धुत्त पाता हूँ, तब ओशो, बुद्ध जैसे महान व्यक्तियों की गरिमा का आभास हो पाता है।
ओशो बुद्ध से प्रभावित रहे, क्योंकि बुद्ध ने एक महान क्रान्ति की थी उस युग में, जब राजा, महाराजाओं और सामंतों ने आतंक मचा रखा था। भेदभाव और छूआ-छूत इतना अधिक था कि इंसान को इंसान ही समझना भूल चुके थे लोग। ऐसे समय में बुद्ध ने शांति का पाठ पढ़ाया, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। लेकिन मेरा मानना है कि शांति और अहिंसा के पाठ से माफियाओं और लुटेरों को बल ही मिला है। आज वही शांति और अहिंसा के कारण माफियाओं और लुटेरों के हाथों में हथियार हैं और जनता निहत्थी।
मैं ओशो से प्रभावित हुआ क्योंकि उन्हों सत्य को बिना किसी संकोच के कहा। ओशो ही ऐसे व्यक्ति रहे, जिनके कहे या लिखे को समझना मेरे लिए बहुत सहज होता है, जबकि बाकी किसी के कहे या लिखे को समझना मुझे बहुत कठिन लगता है। यही कारण है कि ओशो की पुस्तकों को पढ़ने और समझने के लिए किसी पादरी, मौलवी, आलिम, पंडित, पुरोहित, कथावाचक, गुरु की आवश्यकता नहीं पड़ती। जबकि सभी सभी धार्मिक ग्रंथो को पड़ने और समझने के लिए दुनिया भर की अन्य किताबें पढ़नी पड़ती है, और फिर उन किताबों के उन विद्वानों से समझनी पड़ती है, जो स्वयं आज तक नहीं समझ पाये कि लिखा क्या है।
भले मैं ओशो से प्रभावित हूँ, लेकिन मैं ओशो संन्यासी नहीं हूँ। क्योंकि ओशो संन्यासी होने का अर्थ है नाचो, गाओ, मौज मनाओ। फिर चाहे घर बिके, फिर चाहे देश लुटे, फिर चाहे प्रायोजित महामारी के आतंकी फर्जी सुरक्षा कवच सारी दुनिया को चेप कर मुनाफा कमाएं या बेमौत मारें। इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
केवल ओशो संन्यासी ही नहीं, दुनिया के सभी पंथों, संप्रदायों, संगठनों, संस्थाओं, राजनैतिक पार्टियों की यही स्थिति है। इसलिए तो लाखों करोड़ों गुरु, पंथ, सम्प्रदाय और राजनैतिक पार्टियां मिलकर भी आज देश व जनता के लुटेरों का विरोध कर पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे। जबकि देश व जनता को लूटने और लुटवाने वाले माफियाओं इन्हें भेड़ों-बकरियों की तरह हांक रहे हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
