आईये आरक्षण खत्म करते हैं…
‘सभी ऊँची जाति वालो को लगता है की आरक्षण खत्म कर देना चाहिए। मैं भी सोचता हूँ की आरक्षण अब खत्म ही हो जाये तो आईये आरक्षण खत्म करते हैं…….. -शंकराचार्य की कुर्सी पर ब्राह्मण का आरक्षण है, उसे खत्म करें और कुछ सालो के लिए एक दलित को नियुक्त किया जाये । – आर.एस.एस. प्रमुख अभी तक कोई महिला नहीं बनी, पाँच साल किसी दलित महिला को मोका देकर वहाँ भी आरक्षण खत्म करें। – काशी, सोमनाथ आदि मन्दिरों में भंगी -चमारों से एक वर्ष पूजा करवाकर वहाँ भी आरक्षण खत्मकरें. – कूड़ा-सफाई का काम अभी तक भंगी ही करते आये हैं, अब किसी ऊँची जाति वालो को नौकरी देकर आरक्षण खत्म करते हैं। – एक शिक्षा एक पाठ्यक्म और विद्यालय पद्धति लागू करें और सभी के बच्चे सरकारी स्कूल में ही पढेंगे, शिक्षा की समानता कर नौकरी में आरक्षण खत्म करेँ. – दलितों को 5 हजार वर्षों तक शिक्षा से वंचित रखा गया, स्वर्णों को सिर्फ 5 वर्ष तक शिक्षा से वंचित करें और हर जगह से आरक्षण खत्म करें। – एक कदम हम बढाये, एक कदम आप बढाईये आरक्षण खत्म करके समानता का लाभ उठाइये।’
उपरोक्त विचार आरक्षण समर्थकों के पोस्ट में आपको अक्सर शेयर होते हुए मिल जायेंगे। उक्त विचारों को अम्बेकरवादी, आरक्षणवादी बहुत ही गर्व के साथ शेयर करते हैं यह मानकर कि ये विचार जिसने भी लिखा है, बहुत ही तर्क-संगत व सवर्णों/ब्राह्मणों और आरक्षण विरोधियों को निरुत्तर करने वाला विचार है।
चूँकि ईश्वर ने मुझे बुद्धि व विवेक दोनों ही देने में कोई कंजूसी नहीं की, इसलिए मैं ऐसे विचारों को थोड़ा अलग अंदाज़ में पढता व समझता हूँ। इस तरह के विचार लिखने वाला व्यक्ति वास्तव में बहुत ही कुंठा में जी रहा है। उसकी कुंठा इसलिए नहीं है कि वह कमजोर है, आर्थिक, सामजिक या शैक्षणिक रूप से, अपितु कुंठा है दूसरों की थाली और अपनी थाली की तुलना से उपजने वाली कुंठा। तुलना करना मानव ही नहीं, सभी जीव जंतुओं की स्वाभाविक आदत होती है और दूसरों से अधिक पाने की हवस लगभग प्रत्येक प्राणी में समान ही होती है।
अब इस पोस्ट से अर्थ क्या निकलता है वह समझने की आवश्यकता है। अर्थ यहः निकलता है कि हम इस योग्य नहीं हैं कि अपने दम पर कुछ श्रेष्ठ कर पायें, बल्कि दूसरों के पास जो कुछ है उसमें से हमें चाहिए। फिर सामने वाले ने धर्म से कमाया हो या अधर्म से उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, फिर सामने वाला सही है या गलत है, उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता, बस हमें उसमें से ही चाहिए जो उसके पास है। जैसे कि शंकराचार्य की कुर्सी चाहिए इनको। क्योंकि शंकराचार्य दूसरी जाति है यानि शत्रु जाति का है और शत्रु की कुर्सी मिल जाए तो हमारी जीत हो जाए।
काशी, सोमनाथ का मन्दिर…. अपना मन्दिर बनाने की योग्यता नहीं है इसलिए बने बनाए मंदिरों में इनको अधिकार चाहिए। कूड़ा अब वे उठायें जो पहले नहीं उठाते थे……सारे तर्क यदि देखें इनके तो कहीं से भी नहीं लगता कि किसी शिक्षित व्यक्ति के तर्क हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी रट्टामार डिग्रीधारी ने यह तर्क लिखे हैं, शिक्षा से कभी सामना हुआ ही नहीं, या शिक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ही नहीं इसे।
यह तर्क बिलकुल नारीवादियों, कूपमंडूक धार्मिकों के तर्कों की तरह ही हैं। जैसे नारीवादियों का मानना है कि पुरुषों को वही सब करना चाहिए, जो स्त्रियों को करना पड़ता था, जैसे खाना बनाना, बच्चे पैदा करना, बच्चे पालना आदि। और स्त्रियों को वह काम करना चाहिए जो पुरुष करते थे, जैसे सिगरेट पीना, डिस्कोथिक जाना, दारु पीकर सड़क या नाली में गिरना आदि।
मुस्लिमों का तर्क है कि देश में मुस्लिम प्रधानमंत्री बन जायेगा तो मुस्लिमों की सारी समस्या मिट जायेगी या सभी लोग कुरआन पढ़ने लगें भारत में तो सभी समस्याएं मिल जायेंगी.. लेकिन ये लोग यह नहीं देखते कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में मुस्लिमों की क्या स्थिति है। वहां समस्याएं दूर क्यों नहीं हो पायीं, जबकि वहां तो मुस्लिम प्रधानमन्त्री ही नहीं, सारी सरकारी तंत्र ही मुसलमानों का है।
दूसरों की चीजें, संपत्ति छीनना न तो किसी धार्मिक ग्रन्थ में नीतिगत माना गया है और न ही किसी भी सभ्य समाज में माना जाता है। फिर वह तरीका शस्त्र हो, शास्त्र हो या आरक्षण। आरक्षण उनको मिले जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और वह भी केवल इसलिए ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें, तब तो सार्थक है। अन्यथा वह आरक्षण भी व्यक्ति को परजीवी व कमजोर ही बनाएगा। वह आर्थिक रूप से समृद्ध दिखेगा, लेकिन मौलिक रूप से वह गुलाम ही रहेगा जीवन भर और हीन भावना से ग्रस्त रहेगा वह अलग।
आप सभी ने कई फ़िल्में ऐसी अवश्य देखी होंगी, जिसमें कोई बच्चा अपनी लगन व मेहनत से न केवल ऊँचाइयों को छूता है, अपितु अपने परिवार को मान सम्मान दिलाता है। कई श्रेष्ठ व्यक्तियों की जीवनियाँ भी पढ़ी होंगी जो, कठिन संघर्ष के बाद मान सम्मान प्राप्त करते हैं, न कि आरक्षण मांग कर। और फिर प्रकृति में चले जाएँ और जीव जंतुओं को देखें, कि वे लोग कैसे सर्वाइव करते हैं बिना आरक्षण के। आप लोग तो उनके लिए दाना पानी भी नहीं रखते, फिर भी वे संघर्ष करते हुए जी रहे हैं। आप लोग तो उनके जंगलों को भी ध्वस्त कर रहे हैं, फिर भी वे सभी संघर्ष कर रहे हैं जीने के लिए।
इन्सान होने का अर्थ ही संघर्ष करते हुए उपर उठना। आज मुझे भी लोग कहते हैं कि आराम से बैठकर खा रहा है भगवा पहनकर.. लेकिन मैं ही जानता हूँ कि मैंने अपने जीवन में कितना संघर्ष किया। हमारे परिवार ने कितना संघर्ष किया, क्या क्या खोया यह हम ही जानते हैं…. लेकिन दया की जिंदगी की कामना हमने कभी नहीं की। हमारा आश्रम है लेकिन दया, दान पर नहीं पलता, अपनी खेत, अपनी जमीन से जो कुछ मिलता है वही हमारे दो वक्त की रोटी के लिए पर्याप्त है। अधिक की हमें कोई कामना नहीं।
अतः दूसरों की थाली देखना छोड़ दें, अपनी थाली को कैसे उपयोगी बनायें उसका उपाय खोजें। और यह ध्यान रखें;
“इतिहास में कभी भी आसानी से जीवन जीने वाले किसी आदमी ने याद करने लायक नाम नहीं छोड़ा है.” – थियोडोर रूजवेल्ट
कभी समय मिले और आरक्षण की बैसाखी छोड़कर स्वाभिमानी व आत्मनिर्भर होने का विचार ये तो रॉबर्ट शूलर की पुस्तक ‘संघर्ष करने वाले हमेशा जीतते हैं’ ( Tough Times Never Last, But Tough People Do ! by ROBERT H. SCHULLER) अवश्य पढ़ें। यह अवश्य ध्यान रखें कि यहाँ आरक्षण की बैसाखी के लिए संघर्ष करने के लिए नहीं कह रहा हूँ और न ही इस पुस्तक में ऐसा कुछ लिखा है। मैं उस संघर्ष की बात कर रहा हूँ, जो स्वाभिमानी मनुष्यों के ही बस की बात है।
~विशुद्ध चैतन्य