जातिवाद पर आधारित ब्राह्मणों को ब्राह्मण मानना अनुचित है

राजा महाराजाओं के जमाने में ज्योतिषीय व खगोलीय सलाहकारों को राजदरबार में रखने का चलन था। इनमें जो श्रेष्ठ ज्योतिष व कर्मकांडों का जानकार व शास्त्रों का विद्वान होता था, उसे राजपुरोहित नियुक्त किया जाता था। राजपुरोहित का कार्य होता था राजा को शास्त्रोक्त मार्गदर्शन व सुझाव देना व शासकीय कार्यों में हाथ बँटाना। उस समय राजपुरोहित सर्वगुण संपन्न हुआ करते थे और युद्ध कौशल में भी पारंगत हुआ करते थे। युद्ध के समय राजा के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर न केवल लड़ते थे, बल्कि राजा की सुरक्षा का दायित्व भी सँभालते थे।
तो पुरोहित वर्ग में राजपुरोहित होना गर्व व सम्मान की बात हुआ करता था। किसी पुरोहित के घर जब कोई बच्चा पैदा होता, तो माएं अक्सर लाड़ से कहतीं कि मेरा लाड़ला तो बड़ा होकर राजपुरोहित बनेगा। लेकिन अब हर किसी का बेटा तो राजपुरोहित बन नहीं सकता, पुरोहित ही बन जाए वही बहुत बड़ी बात होती थी।
तो समाज ने इस समस्या का समाधान स्वतः ही कर लिया और एक जाति-समाज विशेष ही बन गयी राजपुरोहित की। अब समाज का एक अंश ही राजपुरोहित हो गया, चाहे वह परचून की दूकान चलाता हो, चाहे बैंक में एकाउंटेंट हो, चाहे किसी नेता का दुमछल्ला ही हो….अब वह अपने सरनेम के स्थान पर राजपुरोहित लिखने लगा। किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी क्योंकि राजा तो रहे नहीं, जो किसी को बिना अनुमति राजपुरोहित होने पर कोई सजा सुनाते।

इसी प्रकार कोई माँ चाहती है कि उसका बेटा पायलट हो, कैप्टन हो… तो पायलट कैप्टन आदि अब सरनेम होने लगे। भविष्य में हम देखेंगे कि Psychotherapist यानि मनोचिकित्सक भी सरनेम हुआ करेंगे, Gynecologist यानि स्त्रीरोग विशेषज्ञ भी सरनेम हुआ करेंगे, इसी प्रकार, डॉक्टर, कम्पाउण्डर, फार्मासिस्ट आदि भी सरनेम हुआ करेंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि कल पीएम्, सीएम्, डीएम्…. आदि भी सरनेम के रूप में प्रचलित हो जायें।
तो जिस पद उपाधि आदि का महत्व अधिक हो, सम्मान अधिक हो, उसे पाने का सपना हर परिवार का होता है। लेकिन हर कोई इस योग्य तो होता नहीं कि वह उस पद या उपाधि को प्राप्त कर ले और न ही हर किसी की संतान इस योग्य होती है। दुनिया भर में न जाने कितने लोग चाय बनाते हैं, उल्लू बनाते हैं, मुर्ख बनाते हैं… लेकिन हर किसी का भाग्य इतना प्रबल तो होता नहीं कि कोई कोई नगर सेठ, धन्नासेठ किसी जुमलेबाज जमुरे को मीडिया खरीदकर प्रधानमंत्री या राजा ही बनवा ही बना दे…..
तो प्रधानमंत्री पद के लिए जो मारामारी हो रही है, उसे देखकर मुझे आशचर्य नहीं होगा कि कल चायवालों का समाज अपने सरनेम के आगे प्रधानमंत्री लिखने लगे।
इसी प्रकार ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य आदि का प्रयोग होने लगा। ब्राह्मण वह वर्ग था जो कोई व्यवसाय नहीं करता था, और न ही कोई शारीरिक श्रम। वह केवल बच्चों को पढ़ाता था और पढ़ता था यानि ज्ञान का प्रचार प्रसार करता था। नवीन ज्ञान की खोज में देश विदेश भ्रमण करता रहता था और समाज को कूपमंडूकता से मुक्त होने में सहयोग करता था। इसलिए समाज उसका सम्मान करता था और उसे आजीविका के लिए परेशान न होना पड़े, इसलिए उसकी आर्थिक व भौतिक आवश्यकताएं पूरी करते थे।
ब्राहमण महान इसलिए नहीं होता था कि उसने कई शास्त्रों को कंठस्थ कर रखा है, अपितु इसलिए हुआ करते थे क्योंकि वे समाज को कूपमंडूकता से मुक्त करवाते थे। समाज के अधिकाँश मानस जन, कृषि व अन्य कार्यों के कारण अपने गाँव या देश से बाहर नहीं जा पाते थे, तो ब्राहमण ही उनको विदेशों की नयी नयी जानकारियां दिया करते थे। उन ब्राह्मणों के ज्ञान के कारण ही समाज को कृषि व पशु-पालन आदि की नई नई विधियों की जानकारी मिलती थी। उनके बच्चे भी नए नए ज्ञान प्राप्त करते थे अपने गुरु से….इसलिए वे सम्मानीय थे। लेकिन यह सब ऋषियुग की बातें हैं।
उसके बाद जैसे पायलट सरनेम हो गया, जैसे राजपुरोहित सरनेम हो गया, उसी प्रकार ब्राह्मण भी सरनेम हो गया। अब हर चुटियाधारी ब्राहमण कहलाने लगा और कोई भी भगवाधारी, साधू संत कहलाने लगा। तो ब्राहमणों का एक समाज बन गया और उसमें भी ऊँच-नीच, छुआ-छूत व्याप्त हो गया.. क्योंकि अब ब्राहमण कर्मानुसार नहीं, जातिगत कहलाने लगे थे। अब जो ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया वह ब्राहमण हो गया, जैसे कोई डॉक्टर परिवार में जन्म ले तो वह डॉक्टर कहलायेगा।
इसी प्रकार क्षत्रिय उन्हें कहा जाता था जो युद्ध व शस्त्र विद्या में पारंगत होते थे, निर्भीक होते थे और मरने-मारने से नहीं डरते थे। स्वाभाविक ही है कि योद्धाओं के परिवार में जो जन्म लेगा वह योद्धा होने में ही गौरवान्वित होगा। क्योंकि बचपन से ही वह युद्ध और उसकी विभीषिकाओं से परिचित होने लगता है। अपनों को खोने का दुःख सहने की शक्ति उसे बचपन से ही मिलने लगती है। ऐसे परिवार में कोई कायर प्रजाति का सदस्य आ जाए तो परिवार के लिए वह घातक ही सिद्ध होगा,इसलिए क्षत्रिय अपने लिए वर या वधु का चयन करते समय बहुत ही सावधान रहते हैं। अधिकांश क्षत्रिय क्षत्रिय परिवार के साथ ही सम्बन्ध जोड़ते हैं और यह कुछ गलत भी नहीं है। लेकिन कालान्तर में कायर भी खुद को क्षत्रिय कहने लगे क्योंकि उनके पूर्वज क्षत्रिय थे।
सारांश यह कि अपने नाम, सरनेम आदि का अर्थ समझने का प्रयास अवश्य करें। बिना अर्थो को समझे न तो आपका आत्मिक विकास संभव है और न ही नैतिक विकास।
~विशुद्ध चैतन्य
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