स्वयं को सुधारना: गाँधी जी के तीन बंदरों से आगे की सोच

“गुरु जी आप महान है। लेकिन ये महानता कब एकत्र होगी ओर देश का कल्याण होगा। सभी तरफ गलत ही गलत है। हम सिर्फ अपने को सुधार सकते ओर रहै है लेकिन कुछ नही कर सकते । न भक्त सिंह बन सकते ओर न गांधी जी। कोई रास्ता नही दिखाई देता ओर सिर्फ अपने गुणों को सुधारना मेरे को पाप् लगता है। जब हम कुछ नही कर पातै तो हमसे अछहै तो वै लोग जो कुछ गलत कर रहै है गलत मैं भी कुछ तो सही होता ही है।” -रूद्र प्रताप
अक्सर हम सुनते हैं कि जीवन में वास्तविक परिवर्तन के लिए हमें सबसे पहले स्वयं को सुधारना चाहिए। यही बात सभी महान आत्माओं, संतों और दार्शनिकों ने कही है। उन्होंने हमें प्रेरित किया कि दूसरों को सुधारने के प्रयास में अपने समय और ऊर्जा को व्यर्थ न गवाएँ, बल्कि स्वयं में बदलाव लाएँ। परंतु क्या स्वयं को सुधारने का अर्थ सिर्फ आँखें मूँद लेना है? क्या इसका मतलब है कि समाज की समस्याओं से आँखें फेरकर केवल आत्म-सुधार में लिप्त हो जाना?
आजकल बहुत लोग ‘स्वयं को सुधारने’ के नाम पर समाज की कुरीतियों, अज्ञानता और खोखले सिद्धांतों से बचने का बहाना बना लेते हैं। वे केवल किताबी ज्ञान और दूसरों द्वारा दी गई बातों पर भरोसा कर अपनी मौलिकता को खोते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, उनके विचारों में गहराई और स्वाभाविकता का अभाव होता है, और वे यथास्थितिवादी बनकर रह जाते हैं।
गाँधी जी के तीन बंदरों से आगे की सोच
स्वयं को सुधारने का अर्थ गाँधी जी के तीन बंदरों की भाँति गलत को न देखना, न सुनना और न कहना नहीं है। यह केवल एक निष्क्रिय सोच है। आत्म-सुधार का वास्तविक अर्थ अपनी सोई हुई क्षमताओं को पहचानना और काल-परिस्थिति के अनुसार सक्रिय रूप से कार्य करना है। जब हम ऐसा करते हैं, तो हमारे छोटे-छोटे प्रयास भी समाज में बड़े परिवर्तन ला सकते हैं। दूसरों की नकल करने से बेहतर है कि हम अपने व्यक्तित्व की मौलिकता को स्वीकारें और उसका विकास करें।
खुद के लिए खड़े हों, दूसरों की नकल न करें
यह समस्या केवल दूसरों की ओर देख कर प्रेरित होने की नहीं है, बल्कि यह उस गहरी मानसिकता की भी है जिसमें हम अपने व्यक्तित्व को नकार कर किसी और की तरह बनने की कोशिश करते हैं। कोई गांधी बनना चाहता है, तो कोई गोडसे, कोई मोदी तो कोई मायावती। हमें दूसरों की नकल करने से बचना चाहिए और अपने असली स्वभाव को समझकर अपने व्यक्तित्व को निखारना चाहिए।
खुद को बदलें और विरोध करने का साहस रखें
स्वयं को सुधारने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह भी है कि जहाँ गलत हो, वहाँ निडर होकर उसका विरोध करें। अपनी कायरता को अच्छाई का आवरण मत ओढ़ाइए। अगर आप अपने भीतर के डर से मुक्त हो जाते हैं, तो समाज के शोषकों और धूर्त नेताओं के सामने खड़े हो सकते हैं। अपराधी निडर होकर आगे बढ़ते हैं, और उन्हें चुनौती देने के लिए जरूरी है कि हम भी निडर बनें।
आत्म-सुधार का वास्तविक अर्थ
सच्चा आत्म-सुधार तभी संभव है, जब हम समाज की समस्याओं को देखते, समझते और उनका सामना करते हैं। यदि हम अपने भीतर साहस और निडरता का विकास करते हैं, तो हम न केवल अपने जीवन को बल्कि समाज को भी बेहतर बना सकते हैं। याद रखें, एक छोटा बदलाव भी समाज में बड़ी क्रांति ला सकता है।
निष्कर्ष
इसलिए आत्म-सुधार के नाम पर आँखें मूँदने की बजाय, अपनी वास्तविक क्षमताओं का विकास कीजिए। जब हम सच्चे अर्थों में स्वयं को सुधारेंगे, तो समाज और राष्ट्र में परिवर्तन स्वतः ही शुरू हो जाएगा। तीन बंदरों की नीति के परे जाकर सही और गलत का भान रखते हुए अपने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें और निभाएँ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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